क्या Commercial Courts Act, 2015 की धारा 12A के तहत मुकदमा दायर करने से पहले मध्यस्थता करना अनिवार्य है?

Himanshu Mishra

19 Feb 2025 11:46 AM

  • क्या Commercial Courts Act, 2015 की धारा 12A के तहत मुकदमा दायर करने से पहले मध्यस्थता करना अनिवार्य है?

    सुप्रीम कोर्ट ने Patil Automation Private Limited बनाम Rakheja Engineers Private Limited के मामले में एक महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर दिया है कि क्या Commercial Courts Act, 2015 की धारा 12A के तहत मुकदमा दायर करने से पहले मध्यस्थता (Mediation) करना अनिवार्य है।

    इस धारा को 2018 में एक संशोधन (Amendment) के माध्यम से जोड़ा गया था, ताकि मुकदमेबाजी (Litigation) को कम किया जा सके और वैकल्पिक विवाद समाधान (Alternative Dispute Resolution - ADR) को बढ़ावा दिया जा सके।

    सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि धारा 12A अनिवार्य (Mandatory) है, और यदि कोई पक्ष बिना मध्यस्थता किए सीधा मुकदमा दायर करता है, तो उसे CPC (Code of Civil Procedure) के Order VII Rule 11 के तहत खारिज (Reject) कर दिया जाएगा।

    धारा 12A का उद्देश्य (Purpose of Section 12A of the Commercial Courts Act)

    धारा 12A का मुख्य उद्देश्य न्यायालयों पर बढ़ते मुकदमों के बोझ को कम करना और पक्षकारों को पहले मध्यस्थता के माध्यम से विवाद सुलझाने का अवसर देना है। यह धारा उन मुकदमों पर लागू होती है जहां कोई तत्काल राहत (Urgent Interim Relief) नहीं मांगी गई हो।

    यदि विवाद मध्यस्थता के माध्यम से सुलझ जाता है, तो इसे Arbitration and Conciliation Act, 1996 की धारा 30(4) के तहत मध्यस्थता अवॉर्ड (Mediation Award) का दर्जा दिया जाता है, जिससे यह कानूनी रूप से बाध्यकारी (Legally Binding) हो जाता है।

    सुप्रीम कोर्ट द्वारा उठाए गए प्रमुख कानूनी मुद्दे (Fundamental Legal Issues Addressed by the Supreme Court)

    1. क्या धारा 12A केवल एक प्रक्रिया (Procedural) है या यह कानून का एक अनिवार्य भाग (Substantive) है?

    एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह था कि क्या धारा 12A केवल एक प्रक्रिया (Procedure) है या यह मुकदमा दायर करने के लिए एक आवश्यक शर्त (Condition) है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह केवल प्रक्रियात्मक (Procedural) नहीं, बल्कि एक महत्वपूर्ण कानूनी अनिवार्यता (Legal Requirement) है।

    यह धारा यह सुनिश्चित करती है कि केवल उन्हीं मामलों को अदालत में लाया जाए, जिनका मध्यस्थता के माध्यम से समाधान संभव नहीं है। इस प्रकार, यह केवल एक औपचारिकता (Formality) नहीं, बल्कि एक आवश्यक पूर्व शर्त (Pre-Condition) है।

    2. यदि बिना मध्यस्थता के मुकदमा दायर किया जाता है, तो उसका क्या प्रभाव होगा?

    सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जो मुकदमे धारा 12A का पालन किए बिना दायर किए जाते हैं, उन्हें CPC के Order VII Rule 11 के तहत खारिज कर दिया जाएगा।

    अदालत ने यह भी कहा कि न्यायालय स्वतः (Suo Motu) भी ऐसे मुकदमों को खारिज कर सकते हैं, भले ही प्रतिवादी (Defendant) ने इसकी मांग न की हो।

    3. क्या मध्यस्थता को व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण अनिवार्य नहीं माना जाना चाहिए?

    कुछ पक्षों ने तर्क दिया कि मध्यस्थता को अनिवार्य बनाना व्यावहारिक रूप से कठिन (Practically Difficult) है, क्योंकि प्रशिक्षित मध्यस्थों (Trained Mediators) की कमी और आधारभूत संरचना (Infrastructure) का अभाव है।

    सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि व्यावहारिक कठिनाइयाँ किसी कानूनी प्रावधान की अनिवार्यता (Mandatory Nature) को प्रभावित नहीं कर सकतीं। अदालत ने हाईकोर्ट (High Courts) को निर्देश दिया कि वे जिला और तालुका स्तर पर प्रशिक्षित मध्यस्थों (Trained Mediators) के पैनल तैयार करें, ताकि इस प्रावधान को प्रभावी रूप से लागू किया जा सके।

    4. यदि मुकदमा खारिज हो जाए, तो क्या वादी (Plaintiff) दोबारा मुकदमा दायर कर सकता है?

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि CPC के Order VII Rule 13 के तहत, यदि कोई मुकदमा धारा 12A का पालन न करने के कारण खारिज हो जाता है, तो वादी मध्यस्थता की प्रक्रिया पूरी करने के बाद दोबारा मुकदमा दायर कर सकता है।

    इसका मतलब यह हुआ कि इस निर्णय से वादी (Plaintiff) का अधिकार समाप्त नहीं होता, बल्कि यह केवल यह सुनिश्चित करता है कि मुकदमा दायर करने से पहले सही प्रक्रिया का पालन किया जाए।

    न्यायिक दृष्टांत और तुलनात्मक विश्लेषण (Judicial Precedents and Comparative Analysis)

    1. CPC की धारा 80 और पूर्व मुकदमा शर्त (Pre-Litigation Requirement)

    सुप्रीम कोर्ट ने CPC की धारा 80 से इसकी तुलना की, जिसमें सरकारी विभागों के खिलाफ मुकदमा दायर करने से पहले नोटिस देना आवश्यक होता है। अदालतों ने धारा 80 को अनिवार्य माना है। इसी प्रकार, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 12A का अनुपालन करना भी अनिवार्य है।

    2. वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम (Commercial Courts Act) का उद्देश्य

    अदालत ने इस अधिनियम के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए कहा कि यह कानून भारत में व्यापार करने की सरलता (Ease of Doing Business) को बढ़ाने के लिए लाया गया था।

    इसलिए, वाणिज्यिक मामलों को तेजी से हल करने के लिए मध्यस्थता (Mediation) को प्राथमिकता दी गई, ताकि व्यापारिक विवाद जल्दी सुलझ सकें और न्यायालयों का बोझ कम हो।

    3. विभिन्न हाईकोर्ट के फैसलों में मतभेद

    सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में विभिन्न हाईकोर्ट के परस्पर विरोधी निर्णयों पर भी विचार किया।

    • बॉम्बे हाईकोर्ट (Deepak Raheja v. Ganga Taro Vazirani) ने माना कि धारा 12A अनिवार्य (Mandatory) है।

    • मद्रास हाईकोर्ट ने इसे केवल वैकल्पिक (Directory) बताया।

    सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि धारा 12A अनिवार्य है, और इसका अनुपालन किए बिना दायर किए गए मुकदमे स्वतः खारिज (Rejected) किए जा सकते हैं।

    सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का प्रभाव (Impact of the Supreme Court's Ruling)

    1. मुकदमा दायर करने से पहले मध्यस्थता करना आवश्यक होगा, जिससे विवाद जल्द हल हो सकें और अदालतों पर मुकदमों का बोझ कम हो।

    2. न्यायालय स्वतः मुकदमे खारिज कर सकते हैं, यदि वे धारा 12A का पालन किए बिना दायर किए गए हैं।

    3. राज्य सरकारों और हाईकोर्ट को प्रभावी मध्यस्थता तंत्र तैयार करने होंगे, ताकि इस कानून को सुचारू रूप से लागू किया जा सके।

    4. व्यवसायों को अपने कानूनी रणनीति में बदलाव करना होगा, ताकि मुकदमा दायर करने से पहले धारा 12A का पालन सुनिश्चित किया जाए।

    सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय स्पष्ट करता है कि Commercial Courts Act की धारा 12A के तहत मुकदमा दायर करने से पहले मध्यस्थता करना अनिवार्य है।

    यह निर्णय भारत में विवाद समाधान प्रक्रिया (Dispute Resolution Process) को तेज और प्रभावी बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। अब अदालतें ऐसे मुकदमों को स्वतः खारिज कर सकती हैं, जो इस प्रावधान का पालन किए बिना दायर किए गए हैं।

    यह फैसला भारतीय व्यापारिक माहौल को मजबूत करेगा, न्यायिक प्रणाली को कुशल बनाएगा और यह सुनिश्चित करेगा कि केवल वास्तविक और जरूरी मुकदमे ही अदालतों तक पहुंचें।

    इस निर्णय से भारत में कानूनी प्रक्रियाएं अधिक सुलभ, पारदर्शी और प्रभावी बनेंगी, जिससे न्याय की समय पर उपलब्धता (Timely Justice) सुनिश्चित होगी।

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