क्या संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है यदि धारा 432 और 433 के पात्र कैदियों को समय पर रिहा नहीं किया जाता?
Himanshu Mishra
25 Feb 2025 12:27 PM

क्या संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है यदि धारा 432 और 433 के पात्र कैदियों को समय पर रिहा नहीं किया जाता?
सुप्रीम कोर्ट ने रशीदुल जाफर @ छोटा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2022) मामले में यह स्पष्ट किया कि जिन कैदियों को रिहाई (Remission) का पात्र (Eligible) माना जाता है, उनकी रिहाई के लिए आवेदन (Application) देने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।
इस फैसले ने संविधान के समानता (Equality) और स्वतंत्रता (Liberty) के अधिकार को मजबूत किया है, ताकि कैदियों को उनकी रिहाई से अनुचित रूप से वंचित (Denied) न किया जाए। इस फैसले का प्रभाव पूरे भारत में रिहाई नीति (Remission Policy) के कार्यान्वयन (Implementation) पर पड़ेगा।
संवैधानिक और कानूनी प्रावधान (Constitutional and Legal Provisions)
रिहाई (Remission) और समयपूर्व रिहाई (Premature Release) की अवधारणा (Concept) भारतीय संविधान के अनुच्छेद 72 और 161 में निहित है, जो राष्ट्रपति (President) और राज्यपाल (Governor) को दया याचिका (Pardon), सजा में कमी (Commutation) और रिहाई देने का अधिकार प्रदान करते हैं।
इसके अलावा, आपराधिक प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code - CrPC) की धारा 432 और 433 सजा को माफ करने और कम करने के कानूनी प्रावधान प्रदान करती हैं। इस मामले में दिए गए फैसले ने यह सुनिश्चित किया कि रिहाई की प्रक्रिया निष्पक्ष (Fair) और पारदर्शी (Transparent) हो।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी मुख्य निर्देश (Key Directions Issued by the Supreme Court)
सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को कई महत्वपूर्ण निर्देश दिए ताकि रिहाई नीति (Remission Policy) को प्रभावी रूप से लागू किया जा सके। कोर्ट ने कहा कि पात्र (Eligible) कैदियों को स्वचालित रूप से (Automatically) रिहाई दी जानी चाहिए और इसके लिए उन्हें आवेदन देने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।
इससे अनावश्यक देरी (Unnecessary Delay) को रोका जा सकेगा। कोर्ट ने जेल प्रशासन (Prison Administration) और कानूनी सेवा प्राधिकरणों (Legal Services Authorities) को सक्रिय रूप से पात्र कैदियों की पहचान करने और उनकी रिहाई की प्रक्रिया सुनिश्चित करने का निर्देश दिया।
कोर्ट ने यह भी माना कि कई कैदी आर्थिक रूप से कमजोर (Marginalized) और कानूनी संसाधनों (Legal Resources) तक पहुंच नहीं रखते हैं। राज्य अधिकारियों की उदासीनता (Apathy) के कारण कई मामलों में अनावश्यक देरी होती है।
कोर्ट ने कहा कि समय से पहले रिहाई का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 (Article 21 - Right to Life and Personal Liberty) के तहत आता है, और बिना उचित कारण के किसी को लंबे समय तक जेल में रखना गैरकानूनी (Illegal Detention) है।
न्यायालय द्वारा संबोधित प्रमुख मुद्दे (Fundamental Issues Addressed by the Court)
1. स्वचालित रिहाई प्रक्रिया (Automatic Consideration for Remission)
कोर्ट ने निर्णय दिया कि पात्र कैदियों को बिना किसी औपचारिक आवेदन (Formal Application) के रिहाई दी जानी चाहिए। जेल प्रशासन (Prison Administration) को खुद ही ऐसे कैदियों की पहचान करनी होगी।
2. रिहाई नीति में समानता (Equality in Applying Remission Policies)
कोर्ट ने कहा कि रिहाई नीति को निष्पक्ष (Fair) और समान रूप से लागू किया जाना चाहिए। बिना उचित कारण के किसी विशेष श्रेणी (Category) के कैदियों को रिहाई से वंचित करना असंवैधानिक (Unconstitutional) है। कोर्ट ने यह भी कहा कि कैदी को सबसे अनुकूल (Most Favorable) नीति का लाभ दिया जाना चाहिए, जो उनकी सजा के समय प्रभावी (Effective) थी।
3. अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षण (Protection of Article 21 - Right to Life and Liberty)
कोर्ट ने कहा कि बिना उचित कारण के लंबे समय तक जेल में रखना अनुच्छेद 21 (Article 21) का उल्लंघन (Violation) है। यदि कोई कैदी रिहाई नीति के अनुसार अपनी सजा पूरी कर चुका है, तो उसे रिहा किया जाना चाहिए।
4. प्रशासन की जवाबदेही (Accountability of Authorities)
कोर्ट ने राज्य सरकार और जेल प्रशासन को निर्देश दिया कि वे रिहाई की प्रक्रिया को समय पर पूरा करें और यह सुनिश्चित करें कि कोई भी पात्र कैदी अनुचित देरी के कारण जेल में न रहे।
पूर्व निर्णय और संबंधित मामले (Precedents and Related Judgments)
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कई पूर्व मामलों (Past Judgments) का उल्लेख किया। हरियाणा राज्य बनाम जगदीश (2010) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि रिहाई की प्रक्रिया को दोषी की सजा के समय लागू नीति (Policy at the Time of Conviction) के आधार पर तय किया जाना चाहिए। इसी तरह, हरियाणा राज्य बनाम राज कुमार @ बिट्टू (2021) मामले में भी यही दृष्टिकोण अपनाया गया था।
कोर्ट ने लक्ष्मण नास्कर बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2000) के मामले का भी हवाला दिया, जिसमें यह निर्धारित किया गया था कि रिहाई देते समय कैदी के आचरण (Behavior), समाज के लिए खतरे (Risk to Society), और पुनर्वास (Rehabilitation) की संभावना जैसे कारकों पर विचार किया जाना चाहिए। इस फैसले ने इन सिद्धांतों को और मजबूत किया।
फैसले के प्रभाव (Implications of the Judgment)
इस फैसले का भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली (Criminal Justice System) पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा। आवेदन देने की अनिवार्यता समाप्त करके, यह प्रशासनिक बाधाओं (Administrative Burdens) को कम करता है और सुनिश्चित करता है कि पात्र कैदी अपनी कानूनी अधिकारों (Legal Rights) से वंचित न रहें। यह जेल अधिकारियों और कानूनी सेवाओं (Legal Services) को भी जवाबदेह बनाता है ताकि वे समय पर रिहाई प्रक्रिया को पूरा करें।
इस निर्णय से यह भी स्पष्ट होता है कि भारतीय न्यायपालिका (Judiciary) कैदियों के अधिकारों की रक्षा करने और जेल सुधार (Prison Reforms) को बढ़ावा देने के लिए प्रतिबद्ध (Committed) है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला रशीदुल जाफर @ छोटा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य कैदियों के न्याय, निष्पक्षता (Fairness), और समानता के अधिकार को मजबूत करता है।
इस निर्णय ने यह सुनिश्चित किया है कि पात्र कैदियों की रिहाई के लिए किसी औपचारिक आवेदन की आवश्यकता नहीं होगी, जिससे प्रशासनिक बाधाओं को कम किया जा सके। यह निर्णय एक महत्वपूर्ण मिसाल (Precedent) स्थापित करता है और न्यायपालिका के मानवाधिकारों (Human Rights) की रक्षा के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है।