क्या सेल्फ-रेस्पेक्ट मैरिज को वैध होने के लिए सार्वजनिक घोषणा जरूरी है?

Himanshu Mishra

27 Jun 2025 11:30 AM

  • क्या सेल्फ-रेस्पेक्ट मैरिज को वैध होने के लिए सार्वजनिक घोषणा जरूरी है?

    तमिलनाडु में सेल्फ-रेस्पेक्ट विवाह का कानूनी आधार

    सुप्रीम कोर्ट ने इलावरसन बनाम पुलिस अधीक्षक (2023) केस में यह तय किया कि क्या हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (Hindu Marriage Act) की धारा 7A के तहत होने वाले सेल्फ-रेस्पेक्ट विवाह को वैध (Valid) बनाने के लिए सार्वजनिक रूप से घोषित (Publicly Declared) करना आवश्यक है।

    तमिलनाडु राज्य ने 1967 में इस धारा को विशेष संशोधन (Amendment) के जरिए जोड़ा ताकि "सयमरियाथाई" और "सीरथिरुथ्था" जैसे विवाहों को कानूनी मान्यता दी जा सके, जो पारंपरिक धार्मिक रीति-रिवाजों (Religious Ceremonies) के बिना किए जाते हैं।

    इस प्रावधान का उद्देश्य यह था कि विवाह करने वाले दो बालिग व्यक्ति आपसी सहमति (Mutual Consent) से, केवल माला पहनाकर, अंगूठी पहनाकर या थाली (Thali – Sacred Thread) बांधकर विवाह कर सकते हैं। इस तरह के विवाह में पुजारी या विस्तृत समारोह की कोई अनिवार्यता नहीं है।

    धारा 7A का उद्देश्य और संरचना (Structure and Purpose of Section 7A)

    धारा 7A(1) कहती है कि यदि दोनों पक्ष विवाह करने की इच्छा का स्पष्ट रूप से आपसी घोषणा करें और प्रतीकात्मक क्रियाएं जैसे कि माला पहनाना या थाली बांधना करें, तो विवाह वैध माना जाएगा। धारा 7A(2)(a) और (b) यह स्पष्ट करती हैं कि यह नियम न केवल 1967 के बाद हुए विवाहों पर लागू होता है, बल्कि उससे पहले के ऐसे विवाहों को भी कानूनी दर्जा देता है।

    यह प्रावधान व्यक्ति की स्वतंत्रता (Personal Liberty) और आधुनिक सोच को मान्यता देता है और सामाजिक या धार्मिक बाध्यताओं से मुक्ति प्रदान करता है। इस धारा में कहीं भी यह नहीं लिखा गया है कि विवाह को सार्वजनिक रूप से घोषित करना आवश्यक है।

    सार्वजनिक घोषणा की कोई कानूनी अनिवार्यता नहीं (Public Declaration Not a Legal Necessity)

    सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह मुद्दा था कि क्या सेल्फ-रेस्पेक्ट विवाह को वैध बनाने के लिए सार्वजनिक घोषणा या समारोह अनिवार्य है। मद्रास हाईकोर्ट ने एस. बालकृष्णन पांडियन बनाम इंस्पेक्टर ऑफ पुलिस (2014) मामले में कहा था कि विवाह को सार्वजनिक रूप से घोषित किया जाना चाहिए।

    लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस व्याख्या को खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि धारा 7A में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो सार्वजनिक घोषणा को आवश्यक बनाए। केवल यह जरूरी है कि विवाह कुछ लोगों की उपस्थिति (Presence of Relatives or Friends) में हो, लेकिन सामूहिक सार्वजनिक उत्सव (Community Participation) की कोई कानूनी मांग नहीं है।

    अनुच्छेद 21 और विवाह का मौलिक अधिकार (Article 21 and Fundamental Right to Marry)

    कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि हम विवाह को सार्वजनिक रूप से घोषित करने की अनिवार्यता जोड़ दें, तो यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 (Article 21 – Right to Life and Personal Liberty) का उल्लंघन होगा। यह अनुच्छेद व्यक्ति को गरिमा (Dignity), निजता (Privacy), और अपनी पसंद से जीवनसाथी चुनने का अधिकार देता है।

    समाज में जब जाति, धर्म और पारिवारिक दबावों के चलते विवाह करना चुनौती बन जाता है, तब कई युवा जोड़े सार्वजनिक घोषणा से बचना पसंद करते हैं ताकि वे अपनी सुरक्षा और स्वतंत्रता बनाए रख सकें। ऐसे में सार्वजनिक उत्सव को कानूनी आवश्यक शर्त बनाना न केवल अनुचित है, बल्कि यह संवैधानिक स्वतंत्रता पर भी चोट करता है।

    विवाह में अधिवक्ताओं की भूमिका (Role of Advocates in Marriage)

    हाईकोर्ट ने यह भी टिप्पणी की थी कि अधिवक्ता (Advocate) अपने कार्यालय या चैंबर में विवाह न कराएं। सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि अधिवक्ता को अपने पेशेवर कर्तव्य (Professional Capacity) में विवाह नहीं कराना चाहिए, लेकिन यदि वे किसी मित्र या रिश्तेदार की उपस्थिति में व्यक्तिगत रूप से गवाह (Witness) बनते हैं, तो वह विवाह अवैध नहीं होता।

    यह फर्क समझना जरूरी है – अधिवक्ता का पेशेवर रूप में विवाह करना अनुचित है, लेकिन वे व्यक्तिगत गवाह के रूप में भाग ले सकते हैं।

    सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूर्व निर्णयों का समर्थन (Reliance on Earlier Judgements)

    कोर्ट ने लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2006), शफीन जहां बनाम अशोकन (2018) और लक्ष्मीबाई बनाम कर्नाटक राज्य (2021) जैसे निर्णयों का हवाला दिया। इन फैसलों में कहा गया था कि जीवनसाथी चुनने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 का हिस्सा है और राज्य का यह कर्तव्य है कि वह ऐसे लोगों की रक्षा करे।

    लता सिंह केस में कोर्ट ने यह कहा था कि अंतरजातीय विवाह (Inter-caste Marriage) को राज्य का समर्थन मिलना चाहिए। शफीन जहां और लक्ष्मीबाई मामलों में कहा गया कि जीवनसाथी चुनना निजता और स्वायत्तता (Autonomy) का मौलिक अधिकार है।

    बालकृष्णन पांडियन का निर्णय अस्वीकार (Overruling of Balakrishnan Pandiyan Judgment)

    सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि एस. बालकृष्णन पांडियन में दिया गया निर्णय, जिसमें सार्वजनिक घोषणा को आवश्यक बताया गया था, अब मान्य नहीं रहेगा। कोर्ट ने कहा कि इस तरह की व्याख्या न केवल धारा 7A के शब्दों से परे है, बल्कि इस विशेष प्रावधान की उद्देश्यता (Legislative Intent) को भी निष्फल करती है।

    अगर हम कानून में ऐसा कुछ जोड़ते हैं जो उसमें लिखा ही नहीं है, तो यह न्यायिक अतिक्रमण (Judicial Overreach) कहलाता है।

    CrPC की धारा 164 और स्वैच्छिक बयान (Application of Section 164 CrPC)

    इस मामले में महिला का बयान दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code – CrPC) की धारा 164 के तहत मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज किया गया। यह कार्य जिला विधिक सेवा प्राधिकरण (District Legal Services Authority) की निगरानी में हुआ, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि बयान स्वेच्छा (Voluntary) और बिना दबाव के हो।

    इस प्रक्रिया का उद्देश्य यह था कि महिला की इच्छा, स्वतंत्रता और सुरक्षा सुनिश्चित की जाए – जो विवाह जैसे निजी विषय में सर्वोपरि है।

    विवाह की स्वतंत्रता और संविधान की रक्षा (Conclusion: Protection of Marital Autonomy and Constitutional Values)

    सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला विवाह की स्वतंत्रता, निजता और गरिमा की रक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह निर्णय न केवल सेल्फ-रेस्पेक्ट विवाह की वैधता को स्पष्ट करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि विवाह केवल समाजिक रीति-रिवाजों से नहीं, बल्कि आपसी सहमति और व्यक्तिगत निर्णय से भी वैध माना जा सकता है।

    यह फैसला बताता है कि कानून व्यक्ति की स्वतंत्रता का रक्षक है, न कि सामाजिक दबावों का अनुयायी। संविधान में निहित स्वतंत्रता, गरिमा और समानता जैसे मूल्य, केवल शब्द नहीं हैं – वे हर व्यक्ति की जीवन यात्रा का आधार हैं।

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