COVID-2019: जानिए क्या है सीआरपीसी की धारा 144 और आईपीसी की धारा 188 के मध्य सम्बन्ध?

SPARSH UPADHYAY

24 March 2020 6:38 AM GMT

  • COVID-2019: जानिए क्या है सीआरपीसी की धारा 144 और आईपीसी की धारा 188 के मध्य सम्बन्ध?

    पिछले कई लेखों में हम कोरोना-वायरस से जुड़े तमाम कानूनी पहलुओं पर चर्चा कर चुके हैं। हम देख रहे हैं कि केंद्र और तमाम राज्य सरकारें, किस प्रकार इस महामारी को लेकर गंभीर कदम उठाने पर मजबूर हो रही हैं।

    लॉकडाउन से लेकर दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) की धारा 144 लागू करने तक, सरकारों द्वारा इस वायरस के प्रकोप पर काबू पाने के लिए हर संभव प्रयास किये जा रहे हैं। इसी क्रम में हम ने देखा कि 23 मार्च से ही देश के तमाम जगहों पर सीआरपीसी धारा 144 को लागू कर दिया गया।

    मौजूदा लेख में हम यह जानेंगे कि आखिर क्यों, सीआरपीसी की धारा 144 का उल्लंघन करने पर स्वाभाविक परिणाम, भारतीय दण्ड संहिता, 1860 धारा 188 के अंतर्गत मुक़दमे का चलना होता है। इसके अलावा, इनके मध्य क्या सम्बन्ध है, हम वह भी मौजूदा लेख में समझेंगे।

    क्‍या है दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 144?

    दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) की धारा 144 एक ‌‌डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट, सब-‌डी‌विजनल मजिस्ट्रेट या किसी अन्य कार्यकारी मजिस्ट्रेट को राज्य सरकार की ओर से किसी विशेष स्‍थान या क्षेत्र में एक व्यक्ति या आम जनता को "विशेष गतिविधि से दूर रहने" या "अपने कब्जे या प्रबंधन की किसी संपत्ति के संबंध में कोई आदेश लेने के लिए" आदेश जारी करने की शक्ति देती है।

    धारा 144 लगाने का आदेश "मजिस्ट्रेट" निम्न ‌स्थितियों पर रोक लगाने के लिए दे सकता है-

    1-किसी भी व्यक्ति को कानूनी रूप से नियोजित करने में बाधा हो, परेशानी हो या चोट आने की आशंका हो;

    2-मानव जीवन को, स्वास्‍थ्य और सुरक्षा पर संकट हो;

    3- अशांति, दंगा या उत्पीड़न की आशंका हो।

    यह आदेश एक विशेष व्यक्ति, व्यक्ति के समूह या आम जनता के खिलाफ पारित किया जा सकता है। एक-पक्षीय (ex-parte) आदेश भी पारित किया जा सकता है।

    गौरतलब है कि जगदीश्वरानन्द बनाम पुलिस कमिशनर, 1983 Cri LJ 1872 (Cal।) के मामले में यह कहा गया था कि धारा 144 का सार परिस्थिति की तात्कालिकता है एवं इसके प्रभाव को कुछ हानिकारक घटनाओं को रोकने में सक्षम होने की संभावना एवं सक्षमता से समझा जा सकता है।

    हाल के कुछ मामले

    जैसा कि हम जानते ही हैं कि देश में कुछ राज्यों ने कोरोना-वायरस के बढ़ते प्रकोप के चलते लॉकडाउन की (आंशिक या पूर्णतयः) घोषणा की है।

    वहीँ कुछ ऐसे भी राज्य हैं जहाँ सरकार द्वारा सीआरपीसी की धारा 144 के तहत 'कर्फ्यू' (आम तौर पर धारा 144 को 'कर्फ्यू' के रूप में समझा जाता है, पर इस शब्द का इस धारा के सम्बन्ध में इस्तेमाल एकदम सटीक नहीं) लगाने के आदेश जारी किये गए हैं।

    इन राज्यों में पंजाब, नागालैंड, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, दिल्ली इत्यादि शामिल हैं। अब इस लेख में हम सीआरपीसी की धारा 144 और आईपीसी की धारा 188 के बीच के समबन्ध के बारे में बात करने से पहले यह जान लेते हैं कि इन राज्यों द्वारा, धारा 144 लगाते हुए आखिर क्या आदेश दिए गए हैं?

    अब चूँकि हर एक राज्य द्वारा धारा 144, सीआरपीसी के अंतर्गत जारी आदेश पर हम यहाँ चर्चा तो नहीं कर सकते, इसलिए हम केवल 'दिल्ली पुलिस' द्वारा धारा 144 के अंतर्गत जारी आदेश की बातों को पढेंगे।

    अमूमन यही आदेश (थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ), हर राज्य सरकार (दिल्ली में दिल्ली पुलिस) द्वारा जारी किये गए हैं। तो चलिए उदाहरण के लिए देखते हैं 'दिल्ली पुलिस' द्वारा धारा 144, सीआरपीसी के अंतर्गत जारी किया गया आदेश क्या कहता है:-

    [*DELHI POLICE's ORDER BEGINS*]

    COVID-19 के प्रसार को कम करने के लिए, दिल्ली पुलिस धारा 144 दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 लागू करती है, और दिल्ली में सार्वजनिक स्वास्थ्य, सार्वजनिक सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए निम्न निषेधात्मक आदेश देती है:

    * प्रदर्शनों, जुलूसों, विरोध प्रदर्शनों आदि के लिए किसी भी प्रकार की सभा निषिद्ध है।

    * किसी भी सामाजिक/सांस्कृतिक/राजनीतिक/धार्मिक/शैक्षणिक/खेल/संगोष्ठी/सम्मेलनों का आयोजन निषिद्ध है।

    * साप्ताहिक बाजारों (सब्जियों, फलों और आवश्यक वस्तुओं को छोड़कर), संगीत, प्रदर्शनियों आदि का संगठन निषिद्ध है।

    * विभिन्न निजी टूर ऑपरेटरों द्वारा संचालित निर्देशित समूह पर्यटन निषिद्ध हैं।

    * COVID-19 के साथ ग्रसित/संदिग्ध हर एक व्यक्ति इसकी रोकथाम/उपचार के लिए उपाय करेगा अर्थात् घर करन्तीन/संस्था करन्तीन/अलगाव या ऐसा कोई व्यक्ति, निगरानी कर्मियों के निर्देशों का पालन करने के लिए सहयोग करेगा या सहायता प्रदान करेगा।

    [*DELHI POLICE's ORDER ENDS*]

    यहाँ इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि इन आदेशों का पालन किया जाना अनिवार्य होता है। जैसा कि हमने ऊपर समझा, इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि कई बार इन आदेशों/आदेश को, लोगों को व्यक्तिगत रूप से निर्देशित कर पाना संभव नहीं होता है।

    ऐसे मामलों में, इन्हें EX-PARTE या एक पक्षीय आदेश के तौर पर निर्देशित कर दिया जाता है (अधिसूचना के रूप में या अन्यथा)। गौरतलब है कि ऐसा आदेश, किसी खास व्यक्ति, आम जनता या किसी खास व्यक्तियों के समूह को निर्देशित हो सकता है।

    ऐसा इसलिए किया जाता है जिससे यह आदेश सभी के संज्ञान में आ जाये और इसका उल्लंघन न किया जाये। यदि ऐसा नहीं किया जायेगा तो उल्लंघन के मामले में किसी पर यह कहकर अभियोग नहीं चलाया जा सकेगा कि उसने लोक सेवक के आदेश का उल्लंघन किया, क्योंकि ऐसे आदेश को अधिसूचित ही नहीं किया गया था, अर्थात आम जनता, किसी खास व्यक्ति या समूह को निर्देशित ही नहीं किया गया था।

    इसके अलावा, जैसे कि हमने बात की, यह आदेश ‌‌डि‌स्टिक्ट मजिस्ट्रेट, सब-‌डी‌विजनल मजिस्ट्रेट या किसी अन्य कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा जारी किये जाते हैं (दिल्ली में यह आदेश कमिश्नर ऑफ़ पुलिस द्वारा जारी किया गया है), जोकि आईपीसी की धारा 188 के अंतर्गत भी, एक लोक-सेवक होते हैं और इसी के चलते, ऐसे आदेशों की अवज्ञा करने वाले व्यक्ति को इस धारा के अंतर्गत दंड भुगतना पड़ सकता है।

    भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 188: संक्षेप में

    हालाँकि पिछले एक लेख मे हम यह समझ चुके हैं कि इस धारा के अंतर्गत लोक सेवक (Public Servant) द्वारा प्रख्यापित (Promulgated) किसी आदेश (Order) की अवज्ञा (Disobedience) करने वाले व्यक्ति को दण्डित करने का प्रावधान किया गया है।

    COVID -19 : जानिए क्या कहती है आईपीसी की धारा 188, क्या हो सकते हैंं प्रशासन के आदेश की अवज्ञा के परिणाम

    ऐसे आदेश के लिए यह जरुरी है कि यह आदेश एक लोक सेवक द्वारा प्रख्यापित होना चाहिए (जैसा कि धारा 144, सीआरपीसी के मामले में होता है)। ऐसा लोक सेवक, वह आदेश प्रख्यापित करने के लिए विधिपूर्वक सशक्त होना चाहिए।

    धारा 188 के तहत जिसके खिलाफ मुकदमा चलना है, उस अभियुक्त को उस आदेश के बारे में जानकारी होनी चाहिए थी। और अभियुक्त द्वारा ऐसे आदेश की अवज्ञा होनी चाहिए।

    इसके अलावा, इस धारा के अंतर्गत यह भी बेहद जरुरी है कि ऐसी अवज्ञा के चलते या तो, (अ) विधिपूर्वक नियुक्त व्यक्तियों को बाधा (obstruction), क्षोभ (annoyance) या क्षति (injury), अथवा बाधा, क्षोभ या क्षति का जोखिम (risk) कारित की जाये, या कारित करने की प्रवॄत्ति रखने वाला कोई कार्य किया जाये; या

    (ब) अगर ऐसी अवज्ञा, मानव जीवन, स्वास्थ्य या सुरक्षा को संकट कारित करे, या कारित करने की प्रवॄत्ति रखती हो, या उपद्रव या दंगा कारित करती हो, या कारित करने की प्रवॄत्ति रखती हो, केवल तब ही इस धारा के अंतर्गत दण्ड का प्रावधान/यह प्रावधान हरकत में आएगा (लक्ष्मी देवी बनाम एम्परर 1930 ILR 58 Cal। 971)

    यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि (अ) और (ब) दोनों ही मामलों के लिए, अलग-अलग सजाओं का प्रावधान है, जिसे आप विस्तार से समझने के लिए ऊपर लिंक से जुड़ा हुआ लेख पढ़ सकते हैं।

    धारा 188 आईपीसी एवं धारा 144 सीआरपीसी

    यह बहुत ही स्वाभाविक है कि यदि धारा 144, सीआरपीसी के तहत एक लोक-सेवक द्वारा एक आदेश जारी किया जाता है, तो ऐसे आदेश की अवज्ञा करने वाले व्यक्ति को धारा 188, आईपीसी के तहत दण्ड का सामना करना पड़ सकता है।

    कई मामलों में ऐसा देखा गया है कि धारा 144, सीआरपीसी का आदेश जारी करते हुए ही इस बात का उल्लेख उस आदेश/अधिसूचना में मिल जाता है कि उन आदेशों का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को धारा 188, आईपीसी के तहत दण्ड का सामना करना पड़ेगा।

    हालाँकि, जिन मामलों में ऐसा नहीं लिखा होता है, वहां यह स्वाभाविक है कि चूँकि एक लोक-सेवक द्वारा ही धारा 144, सीआरपीसी के तहत आदेश जारी किये जाते हैं, इसलिए यदि उन आदेशो की अवज्ञा होगी तो धारा 188, आईपीसी के तहत मामला बनेगा, क्योंकि धारा 188, आईपीसी लोक सेवक के आदेशों की अवज्ञा से सम्बंधित है।

    इसके अलावा, जैसा कि राम समुझ बनाम राज्य AIR 1963 All. 579 के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा कहा गया था, धारा 188, आईपीसी के अंतर्गत धारा 144, सीआरपीसी के तहत पारित किये गए आदेश शामिल होंगे।

    हालाँकि, पटना उच्च न्यायालय द्वारा मुंद्रिका देवी एवं अन्य बनाम बिहार राज्य Criminal Miscellaneous No. 28008 of 2013 के मामले में यह साफ़ तौर पर कहा गया था कि जहाँ दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा, 144 के अंतर्गत कार्यवाही कानून के अंतर्गत उचित नहीं थी, वहां भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 188 के अंतर्गत अभियुक्तों के खिलाफ शुरू की गयी कार्यवाही भी बनाये रखने के योग्य नहीं होगी।

    अंत में, यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जैसा राज्य बनाम श्रीमती तुगला, AIR 1955 All. 423 के मामले में कहा गया है, धारा 188, आईपीसी के अंतर्गत किसी को दोषी तबतक नहीं करार दिया जा सकता है, जबतक कि लोकसेवक के आदेश की अवज्ञा के परिणाम, सकारात्मक रूप से साबित न कर दिए जाएँ।

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