COVID -19 : जानिए क्या कहती है आईपीसी की धारा 188, क्या हो सकते हैंं प्रशासन के आदेश की अवज्ञा के परिणाम

SPARSH UPADHYAY

22 March 2020 9:22 AM GMT

  • COVID -19 : जानिए क्या कहती है आईपीसी की धारा 188, क्या हो सकते हैंं प्रशासन के आदेश की अवज्ञा के परिणाम

    कोरोना वायरस के बढ़ते असर को देखते हुए देश में तमाम जगहों पर प्रशासन द्वारा अधिसूचना जारी करते हुए यह आदेश जारी कर दिया गया है/किया जा रहा है कि तमाम दुकाने (आवश्यक वस्तुओं को बेचने वाली दुकानों को छोड़कर), रेस्तरां, पब, म्यूजियम, डिस्को, पर्यटन स्थल इत्यादि बंद कर दिए जाएँ।

    यह आदेश इस वायरस के प्रभाव को कम करने के लिए जारी किये जा रहे हैं। हम सभी अबतक यह जान ही चुके हैं कि कैसे यह वायरस पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले चुका है और अब यह भारत में भी अपने पाँव तेज़ी पसार रहा है।

    इस आदेश के साथ यह भी सख्त हिदायत दी जा रही है कि पुलिस और जिले के अधिकारी, इलाकों में गश्त करेंगे और यदि इन आदेशों की अवज्ञा/अवहेलना की जाएगी तो उल्लंघन करने वालों पर आईपीसी की धारा 188 (सरकारी अधिकारी की अवज्ञा) के तहत मामला दर्ज किया जाएगा,जिसमें एक महीने की कैद और 1,000 रुपये का जुर्माना है।

    इसी क्रम में हम मौजूदा लेख में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 188 के विषय में बात करेंगे और जानेंगे कि इसके अंतर्गत क्या प्रावधान दिए गए हैं। इसके पहले हम कोविड-2019 के सन्दर्भ में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 269 एवं 270 के बारे में एक लेख में बात कर चुके हैं।

    क्या है भारतीय दण्ड संहिता की धारा 188?

    इस धारा के अंतर्गत लोक सेवक (Public Servant) द्वारा प्रख्यापित (Promulgated) किसी आदेश (Order) की अवज्ञा (Disobedience) करने वाले व्यक्ति को दण्डित करने का प्रावधान किया गया है।

    हालाँकि, भरत राउत बनाम राज्य AIR 1953 Pat। 376 के मामले में यह कहा गया था कि केवल एक लोक सेवक द्वारा प्रख्यापित किसी आदेश की अवज्ञा करने भरने से किसी व्यक्ति को इस धारा के अंतर्गत दण्डित नहीं किया जायेगा, बल्कि यह दिखाया जाना जरुरी है कि आदेश की अवज्ञा के परिणामस्वरूप इस धारा के अंतर्गत बताये गए परिणाम कारित हो जाएँ।

    दूसरे शब्दों में, यदि ऐसी अवज्ञा के चलते (अ) विधिपूर्वक नियुक्त व्यक्तियों को बाधा (obstruction), क्षोभ (annoyance) या क्षति (injury), अथवा बाधा, क्षोभ या क्षति का जोखिम (risk) कारित की जाये, या कारित करने की प्रवॄत्ति रखती हो; या

    (ब) अगर ऐसी अवज्ञा मानव जीवन, स्वास्थ्य या सुरक्षा को संकट कारित करे, या कारित करने की प्रवॄत्ति रखती हो, या उपद्रव या दंगा कारित करती हो, या कारित करने की प्रवॄत्ति रखती हो, केवल तब ही इस धारा के अंतर्गत दण्ड का प्रावधान/यह प्रावधान हरकत में आएगा (लक्ष्मी देवी बनाम एम्परर 1930 ILR 58 Cal. 971)।

    यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि (अ) और (ब) दोनों ही मामलों के लिए, अलग-अलग सजाओं का प्रावधान है। आगे बढ़ने से पहले चलिए इस धारा को पढ़ लेते हैं। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 188 कहती है:-

    [धारा 188 आईपीसी] लोक सेवक द्वारा विधिवत रूप से प्रख्यापित आदेश की अवज्ञा -

    जो भी कोई यह जानते हुए कि वह ऐसे लोक सेवक द्वारा प्रख्यापित किसी आदेश से, जिसे प्रख्यापित करने के लिए लोक सेवक विधिपूर्वक सशक्त है, कोई कार्य करने से बचे रहने के लिए या अपने कब्जे या प्रबन्धाधीन, किसी संपत्ति के बारे में कोई विशेष व्यवस्था करने के लिए निर्दिष्ट किया गया है, ऐसे निदेश की अवज्ञा करेगा;

    यदि ऐसी अवज्ञा -विधिपूर्वक नियुक्त व्यक्तियों को बाधा, क्षोभ या क्षति, अथवा बाधा, क्षोभ या क्षति का जोखिम कारित करे, या कारित करने की प्रवॄत्ति रखती हो, तो उसे किसी एक अवधि के लिए सादा कारावास की सजा जिसे एक मास तक बढ़ाया जा सकता है, या दौ सौ रुपए तक के आर्थिक दण्ड या दोनों से दण्डित किया जाएगा;

    और यदि ऐसी अवज्ञा मानव जीवन, स्वास्थ्य या सुरक्षा को संकट कारित करे, या कारित करने की प्रवॄत्ति रखती हो, या उपद्रव या दंगा कारित करती हो, या कारित करने की प्रवॄत्ति रखती हो, तो उसे किसी एक अवधि के लिए कारावास की सजा जिसे छह मास तक बढ़ाया जा सकता है, या एक हजार रुपए तक के आर्थिक दण्ड या दोनों से दण्डित किया जाएगा।

    स्पष्टीकरण--

    यह आवश्यक नहीं है कि अपराधी का आशय क्षति उत्पन्न करने का हो या उसके ध्यान में यह हो कि उसकी अवज्ञा करने से क्षति होना संभाव्य है । यह पर्याप्त है कि जिस आदेश की वह अवज्ञा करता है, उस आदेश का उसे ज्ञान है, और यह भी ज्ञान है कि उसके अवज्ञा करने से क्षति उत्पन्न होती या होनी संभाव्य है।

    NOTE 1 – यदि आदेश की अवज्ञा से विधिपूर्वक नियुक्त व्यक्तियों को बाधा, क्षोभ या क्षति, अथवा बाधा, क्षोभ या क्षति का जोखिम कारित करे, या कारित करने की प्रवॄत्ति रखती हो तो सादा कारावास की सजा जिसे एक मास तक बढ़ाया जा सकता है, या दौ सौ रुपए तक के आर्थिक दण्ड या दोनों से दण्डित किया जाएगा

    NOTE 2 – यदि ऐसी अवज्ञा मानव जीवन, स्वास्थ्य या सुरक्षा को संकट कारित करे, या कारित करने की प्रवॄत्ति रखती हो, या उपद्रव या दंगा कारित करती हो, या कारित करने की प्रवॄत्ति रखती हो तो ऐसे व्यक्ति को किसी एक अवधि के लिए कारावास की सजा जिसे छह मास तक बढ़ाया जा सकता है, या एक हजार रुपए तक के आर्थिक दण्ड या दोनों से दण्डित किया जाएगा।

    अम्बालन बनाम एस. जगन्नाथा AIR 1959 Mad. 89 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया था कि धारा 188 के अंतर्गत तब तक किसी व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है जबतक कि यह न दिखाया जाए कि कथित अवज्ञा के चलते "विधिपूर्वक नियुक्त व्यक्तियों को बाधा, क्षोभ या क्षति, अथवा बाधा, क्षोभ या क्षति का जोखिम" कारित हुआ।

    धारा 269 के अंतर्गत अपराध गठित के लिए आवश्यक सामग्री

    1- लोक सेवक द्वारा प्रख्यापित एक आदेश का होना

    2- वह आदेश प्रख्यापित करने के लिए लोक सेवक विधिपूर्वक सशक्त है

    3- अभियुक्त उस आदेश के बारे में जानकारी रखता था

    4- अभियुक्त ने उस आदेश की अवज्ञा की

    5 – ऐसी अवज्ञा के चलते (अ) विधिपूर्वक नियुक्त व्यक्तियों को बाधा, क्षोभ या क्षति, अथवा बाधा, क्षोभ या क्षति का जोखिम कारित की जाये, या कारित करने की प्रवॄत्ति रखती हो या; (ब) अगर ऐसी अवज्ञा मानव जीवन, स्वास्थ्य या सुरक्षा को संकट कारित करे, या कारित करने की प्रवॄत्ति रखती हो, या उपद्रव या दंगा कारित करती हो, या कारित करने की प्रवॄत्ति रखती हो।

    कोरोना वायरस के प्रसार के बीच जब प्रशासन ने यह आदेश जारी किया है कि कोई अपनी दुकाने नहीं खोलेगा या इसी प्रकार का कोई अन्य आदेश दिया गया है और फिर भी यदि किसी व्यक्ति द्वारा ऐसे आदेश की अवज्ञा की जाती है तो उसे इस धारा के अंतर्गत दोषी ठहराया जा सकता है, बशर्ते कि ऊपर बताये गए अवयव मौजूद हों।

    महामारी अधिनियम 1897 और धारा 188

    महामारी अधिनियम की धारा 3 के अनुसार विहित की गयी किसी भी प्रक्रिया का उल्लंघन करने पर भारतीय दंड संहिता की धारा 188 के प्रावधान रखे गए हैं। इस अधिनियम के अधीन बनाए गए किसी भी आदेश की अवज्ञा करने पर भारतीय दंड संहिता की धारा 188 का मुकदमा दर्ज होगा।

    इस धारा के लागू होने के सम्बन्ध में कुछ अन्य महत्वपूर्ण बातें

    परबत बनाम चरण एच बनाम क्वीन इम्प्रेस, AIR 1915 Bom. 22 के मामले में यह आयोजित किया गया था कि इस धारा के अंतर्गत एक आदेश को एक साधारण कोर्स में आम पब्लिक के संज्ञान में लाया गया होना चाहिए। हालाँकि सोशल मीडिया के ज़माने में ऐसा मुश्किल ही है कि ऐसा कोई आदेश जनता तक न पहुँच सके।

    हालाँकि, जब कोई आदेश किसी खास व्यक्ति या किसी विशिष्ट समूह के लोगों को निर्देशित किया जाता है तो यह जरुरी हो जाता है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि वह आदेश उस व्यक्ति या समूह तक पहुंचे।

    इस धारा के अंतर्गत अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए यह दिखाया जाना जरुरी है कि अभियुक्त को यह ज्ञान था कि लोक अधिकारी ने ऐसा कोई आदेश दिया था जिस आदेश की अवज्ञा का दोष उसके ऊपर है। सिर्फ यह दिखाया जाना कि उस आदेश का एक साधारण नोटिफिकेशन जारी किया गया था, काफी नहीं – बचुराम कर बनाम राज्य, (1965) Cr LJ 515

    यह भी जरुरी है कि आदेश लिखित में होना चाहिए और इसे कानूनी रूप से प्रख्यापित होना चाहिए, और अभियुक्त को निर्देशित किया गया होना चाहिए। यह जरुरी नहीं कि उसे अख़बार या पोस्टर पर चिपकाया या प्रकाशित किया जाये (राज्य बनाम श्रीमती तुगला, AIR 1955 All. 423)।

    उदाहरण

    जहाँ एक मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 133, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत शहर में कुछ गड्ढों और मैनहोल को बंद करने और ड्रेन की मरम्मत का एक आदेश जारी किया गया था, और इस आदेश की अवज्ञा म्युनिसिपल काउंसिल के अधिकारियों द्वारा की गयी, वहां यह माना गया कि वे इस धारा के अंतर्गत दोषी थे – रतलाम म्युनिसिपल बनाम वरदीचंद AIR 1980 SC 1622

    उदाहरण

    एक मामले में अभियुक्त पर यह आरोप था कि उसने पुलिस आयुक्त के उन आदेशों की अवहेलना की, जिसमे अभियुक्त को अपने घर के किरायेदारों के विवरण के बारे में पोलिस स्टेशन को सूचित करने की आवश्यकता थी। अभियुक्त का कहना था कि उसे पुलिस आयुक्त के उन आदेशों का ज्ञान नहीं था, जिनकी अवज्ञा का उसपर आरोप है।

    यह दिखाने के लिए कि पुलिस आयुक्त की अधिसूचना को व्यापक रूप से प्रचारित किया गया था, और आम जनता के ज्ञान में लाया गया था और याचिकाकर्ताओं को भी उसके विषय में ज्ञान हुआ होगा, कुछ हैण्डबिल एवं न्यूज़क्लिपिंग को अदालत में पेश किया गया।

    अदालत ने यह माना कि यह जरुरी नहीं कि अभियुक्त ने वह अख़बार पढ़ा हो या उस तक वह आदेश पहुंचा हो इसलिए उसे इस धारा के अंतर्गत दोषी नहीं माना गया – श्री भूप सिंह त्यागी बनाम राज्य 2002 Cri LJ 2872.

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