किसी सिविल मुकदमे की संभावना होने पर कोर्ट को पहले ही इन्फॉर्म करना
Shadab Salim
12 Oct 2024 12:55 PM IST
सिविल केस में किसी भी डिस्प्यूट में पहले से ही कोर्ट को सूचित करने की प्रक्रिया को केवियट कहा जाता है। केवियट के संबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 की धारा 148(ए) में प्रावधान मिलते हैं।
केवियट का अर्थ किसी व्यक्ति को सावधान करना होता है। सिविल मामलों में अनेक परिस्थितियां ऐसी होती हैं जहां कोई वादी किसी मुकदमे को कोर्ट में लेकर आता है, उस मुकदमे से संबंधित प्रतिवादी को समन जारी किए जाते हैं, समन की तामील बता दी जाती है, यदि पक्षकार हाज़िर नही होता है तब कोर्ट ऐसे पक्षकार को एकपक्षीय कर अपना फैसला सुना देती है।
केविएट इस परिस्थिति से निपटने के लिए ही एक व्यवस्था है। कानून में यह नैसर्गिक न्याय का सिद्धांत है कि सभी पक्षकारों को बराबर सुना जाए। सभी पक्षकारों से बराबर सबूत लिए जाएं, उसके बाद अपना कोई फैसला सुनाया जाए। लेकिन अनेक मामले ऐसे होते हैं जहां किसी प्रतिवादी को कोर्ट में उपस्थित होकर अपना पक्ष रखने का आदेश दिया जाता है, लेकिन प्रतिवादी कोर्ट की ऐसी बात की अवहेलना कर देते हैं। कोर्ट को मजबूर होकर उस अवहेलना करने वाले आदमी को कार्यवाही से एकपक्षीय करना होता है, अर्थात उस व्यक्ति का पक्ष सुना ही नहीं जाता है, क्योंकि कोर्ट उसे बार बार बुला रही थी और वह व्यक्ति कोर्ट के समक्ष उपस्थित ही नहीं हो रहा था।
यहां पर कोर्ट को भी न्याय करना होता है, इस स्थिति में कोर्ट केवल वादी को सुनकर कोई भी फैसला सुना देती है, जो तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार होता है।
इस व्यवस्था के कारण यह होने लगा कि कभी-कभी समन की तामील होती ही नहीं थी और वादी द्वारा यह कह दिया जाता था कि समन की तामील हो चुकी है।
तामील से संबंधित सबूत कोर्ट में पेश कर दिए जाते थे, जबकि प्रतिवादी को इस बात की कोई जानकारी ही नहीं होती थी, इसलिए केवियट जैसी व्यवस्था आई।
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 की धारा 148(ए) केवियट को उल्लेखित करते हुए यह कहती है कि, कोई भी पक्षकार किसी मामले में पार्टी होने के अंदेशे के आधार पर कोर्ट के समक्ष एक केवियट दाखिल करके यह कह सकता है कि अगर उससे संबंधित मामला कोर्ट में लाया जाए तब उसे सुने बगैर मामले में किसी प्रकार का कोई भी निर्णय नहीं दिया जाए।
ऐसा केवियट किसी कोर्ट में अपने विरुद्ध भविष्य में आने वाली किसी कार्यवाही में पक्षकार बनने के अंदेशे पर दिया जाता है। कोर्ट में किसी प्रकार का कोई मुकदमा होता नहीं है, लेकिन मुकदमा होने की संभावना होती है। इस संभावना के आधार पर ही केवियट दाखिल किया जाता है। जैसे कि किसी व्यक्ति को यह संभावना है कि कोई व्यक्ति या संस्था उसके विरुद्ध किसी प्रकार का सिविल प्रकरण किसी मामले को लेकर कोर्ट के समक्ष ला सकता है, तब ऐसा व्यक्ति उस व्यक्ति के विरुद्ध कोर्ट में केवियट दाखिल कर देता है।
ऐसा केवियट किसी भी मामले में दाखिल किया जा सकता है, भले ही कोई वाद हो या कोई अपील हो। आमतौर पर अपील की संभावना के आधार पर ऐसा केवियट दाखिल किया जाता है।
केवियट दाखिल करने की प्रक्रिया
केवियट किसी कोर्ट में दाखिल किया जाता है। केवियट को दाखिल करने के लिए एक एप्लिकेशन होती है, जिस में कोर्ट का नाम लिखा जाता है। जिस व्यक्ति द्वारा केवियट दाखिल किया जा रहा है, उस व्यक्ति का नाम लिखा जाता है। जिस व्यक्ति के विरुद्ध केवियट दाखिल किया जा रहा है, उस व्यक्ति की संपूर्ण जानकारी लिखी जाती है और जिस मामले में पक्षकार होने की संभावना है, उस मामले का सार संक्षेप में इस एप्लिकेशन में अंकित किया जाता है।
इन सभी जानकारियों के साथ पक्षकार अपना केवियट कोर्ट के समक्ष दाखिल कर सकते हैं। कोर्ट केवियट को अपने रिकॉर्ड में रख लेती है और जब भी उससे संबंधित कोई मामला उस कोर्ट में प्रस्तुत किया जाता है, तब कोर्ट किसी भी स्थिति में एकपक्षीय कार्रवाई नहीं करती है तथा केवियट दाखिल करने वाले पक्षकार को इस बात की सूचना देती है।
ऐसा केवियट कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत किए जाते समय, इससे संबंधित जानकारी उस पक्षकार को भी देना होती है, जिस पक्षकार के द्वारा कोई मुकदमा लाए जाने की संभावना है। ऐसी जानकारी रजिस्टर्ड डाक के माध्यम से दी जाती है और उस डाक की पर्ची को केवियट के साथ लगाया जाता है। इससे वह पक्षकार भी इस बात से अवगत हो जाता है कि अगर वह कोई मामला कोर्ट में लाने वाला है, तब उससे संबंधित जानकारी कोर्ट के संज्ञान में पहले ही दे दी गई है तथा उसे अब एकपक्षीय नहीं किया जा सकता।
केवियट की समय अवधि
कोई भी केवियट अपने दाखिल किए जाने से 90 दिनों के भीतर वैध रहता है। 90 दिनों के बाद इसकी वैधता अवधि समाप्त हो जाती है और फिर इसका कोई कानूनी महत्व नहीं रहता है। अगर कोर्ट को फिर से संज्ञान देना है तब नया केवियट दाखिल करना होता है।
इस बात का उल्लेख सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 148(ए) की उपधारा 5 के अंतर्गत किया गया है, जहां स्पष्ट रूप से कह दिया गया है कि कोई भी केवियट केवल 90 दिनों तक ही वैध होता है। 90 दिनों के बाद यह स्वतः समाप्त हो जाता है। अगर इसके बाद पक्षकार कोई मामला कोर्ट के समक्ष लाते हैं, तब प्रतिवादी के हाजिर नहीं होने पर उसे एकपक्षीय किया जा सकेगा।
कानून में यह 90 दिनों की अवधि इसलिए दी गई है क्योंकि सामान्य तौर पर केविएट से संबंधित मामले अपील के प्रकरण में ही लागू किए जाते हैं। अपील के मामले में ही पक्षकार केवियट देते हैं क्योंकि यह मालूम है कि अगर किसी निचली अदालत ने किसी पक्षकार के विरुद्ध किसी प्रकार का कोई निर्णय दिया है तब वे पक्षकार उस निर्णय के विरुद्ध ऊपरी अदालत में अपील ला सकते हैं। सामान्य तौर से ऐसी अपील की अवधि 90 दिनों की ही होती है, इसलिए केवियट को भी 90 दिनों तक सीमित कर दिया गया। यह बात पूरी तरह गलत है कि एक बार केवियट दे देने से कोर्ट उसके मामले में हमेशा सतर्क रहता है। कोर्ट केवल 90 दिनों की अवधि तक ही सतर्क रहने के लिए बाध्य है।