Hindu Marriage Act में मैरिज की शर्तों में पक्षकारों का हिन्दू होना और प्रोहिबिटेड रिलेशनशिप का महत्त्व

Shadab Salim

15 July 2025 4:49 AM

  • Hindu Marriage Act में मैरिज की शर्तों में पक्षकारों का हिन्दू होना और प्रोहिबिटेड रिलेशनशिप का महत्त्व

    हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अधीन जो शर्त दी गई है उनमें सबसे पहली शर्त दो हिंदू पक्षकारों का होना अति आवश्यक है। कोई भी विवाह हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अधीन तब ही संपन्न होगा जब दोनों पक्षकार हिंदू होंगे। सुप्रीम कोर्ट ने भीमराव लोखंडे बनाम महाराष्ट्र राज्य एआईआर 1985 सुप्रीम कोर्ट 1564 के मामले में कहा है कि जब विवाह के दोनों पक्षकार हिंदू हो तो ही हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत कोई हिंदू विवाह संपन्न माना जाएगा।

    यदि विवाह का कोई एक पक्षकार हिंदू है तथा दूसरा पक्षकार गैरहिंदू है तो विवाह इस अधिनियम की परिधि के बाहर होगा और यह विवाह हिंदू विवाह नहीं कहलाएगा।

    यह आवश्यक नहीं है कि दोनों पक्षकार एक ही वर्ण के हो तथा एक ही पंथ के हो। हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत हिंदुओं में प्रचलित जातिगत व्यवस्था के अधीन हिंदू विवाह को संपन्न किए जाने की अनिवार्यता को समाप्त किया गया है।

    यह अधिनियम हिंदुओं को जाति पाती के बंधन से मुक्त करने का प्रयास करता है तथा इस अधिनियम के अंतर्गत पक्षकारों का केवल हिंदू होना आवश्यक है।

    यदि विवाह के पक्षकार हिंदू हैं तो उनका आपस में विवाह संपन्न हो सकता है इसके लिए किसी जाति पाती तथा पंथ विशेष की कोई आवश्यकता नहीं होगी।

    प्राचीन शास्त्रीय हिंदू विवाह समय की मांग के अनुसार जातियों के आधार पर हिंदू विवाह को मान्यता देता था परंतु आधुनिक हिंदू विवाह जातियों के आधार पर हिंदू विवाह में कोई बाध्यता नहीं रखता है। जगन्नाथम बनाम सविथम्मा एआईआर 1972 आंध्र प्रदेश 377 के मामले में यह बात कही गई है कि हिंदू विवाह किसी जातिगत व्यवस्था की अनिवार्यता का समर्थन नहीं करता है।

    प्रोहिबिटेड रिलेशनशिप

    प्रतिषिद्ध नातेदारी का हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत कड़ाई से पालन किया गया है। कोई भी हिंदू विवाह तभी संपन्न माना जाता है जब पक्षकारों के मध्य प्रतिषिद्ध नातेदारी की डिग्रियां नहीं हो। प्रतिषिद्ध नातेदारी क्या होती हैं इस संबंध में लेखक द्वारा पूर्व के लेख में उल्लेख किया जा चुका है। यदि पक्षकारों में कोई प्रतिषिद्ध नातेदारी होती है तो इस आधार पर अधिनियम की धारा 11 के अनुसार विवाह को शून्य घोषित किया जा सकता है।

    यदि इस प्रकार की शर्त का पालन नहीं किया गया और कोई विवाह प्रतिषिद्ध नातेदारी के होते हुए भी हिंदू विवाह के अधीन संपन्न कर दिया गया तो इस प्रकार का विवाह याचिका लाए जाने पर शून्य घोषित किया जाएगा तथा प्रारंभ से ही इस प्रकार के विवाह की कोई विधिमान्यता नहीं होगी।

    इस शर्त का अपवाद है कि यदि कहीं इस प्रकार की प्रतिषिद्ध नातेदारी में विवाह को मान्यता प्राप्त है रूढ़ि और प्रथाओं के अधीन इस प्रकार के विवाह का प्रचलन रहा है तो वहां इस शर्त की अनिवार्यता आवश्यक नहीं होगी।

    कामाक्षी बनाम 'के मणि' 1971 के प्रकरण में कहा गया कि यदि किसी प्रथा के अधीन इस प्रकार की प्रतिषिद्ध नातेदारी में विवाह को मान्यता प्राप्त है तो विवाह पर कोई भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा तथा अधिनियम की धारा 5 के अधीन यह शर्त लागू नहीं होगी, यह प्रकरण मद्रास का था तथा मद्रास के हिंदुओं में निकट के संबंधियों में विवाह की प्रथा रही है।

    प्रथा और रूढ़ियों को कब मान्यता प्राप्त होगी इस संबंध में लेखक द्वारा पूर्व के लेख में उल्लेख किया जा चुका है।

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