JJ Act के तहत आपराधिक मामलों में अभियोजन पक्ष की उम्र कैसे तय की जानी चाहिए?

Himanshu Mishra

13 Nov 2024 8:30 PM IST

  • JJ Act के तहत आपराधिक मामलों में अभियोजन पक्ष की उम्र कैसे तय की जानी चाहिए?

    सुप्रीम कोर्ट के निर्णय स्टेट ऑफ एम.पी. बनाम अनुप सिंह (2015) में अभियोजन पक्ष की उम्र (Age of Prosecutrix) को आपराधिक मामलों में सही तरीके से निर्धारण के मुद्दे पर प्रमुखता दी गई है।

    विशेष रूप से भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code - IPC) की धारा 363, 366 और 376 के अंतर्गत मामलों में, अभियोजन पक्ष की उम्र बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह फैसला उम्र के निर्धारण में प्राथमिकता से डॉक्यूमेंट्री (Documentary) साक्ष्य पर निर्भरता की बात करता है, जब तक कि मेडिकल टेस्ट की अनिवार्यता न हो।

    आपराधिक कानून में उम्र के निर्धारण का महत्व (Importance of Age Determination in Criminal Law)

    कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि आपराधिक मामलों में उम्र का सही निर्धारण बहुत जरूरी है क्योंकि यह सहमति (Consent), दोष (Culpability) और सजा के कानूनी मानकों को प्रभावित करता है।

    भारतीय कानून के अनुसार, यदि अभियोजन पक्ष की उम्र एक निश्चित सीमा से कम है, तो किसी भी प्रकार का कथित कार्य, चाहे वह अपहरण (Abduction) हो या यौन उत्पीड़न (Sexual Assault), बिना सहमति के अपराध माना जाएगा। यह निर्णय कोर्ट को उम्र निर्धारण के लिए डॉक्यूमेंट्री साक्ष्य का प्राथमिक रूप से उपयोग करने की पुष्टि करता है।

    सुप्रीम कोर्ट द्वारा डॉक्यूमेंट्री साक्ष्य को प्राथमिकता (Supreme Court's Preference for Documentary Evidence)

    सुप्रीम कोर्ट ने प्रमुखता से बताया कि किशोर न्याय (बालकों की देखभाल और संरक्षण) नियम, 2007 (Juvenile Justice Rules, 2007) के नियम 12(3) के अनुसार उम्र निर्धारण में डॉक्यूमेंट्री साक्ष्य प्रमुख होता है।

    यह नियम कहता है कि कोर्ट को निम्नलिखित साक्ष्यों को प्राथमिकता देनी चाहिए:

    1. मैट्रिकुलेशन (Matriculation) या स्कूल छोड़ने का प्रमाणपत्र (School-Leaving Certificate)

    2. स्कूल का जन्म प्रमाणपत्र (Birth Certificate)

    3. नगरपालिका या पंचायत द्वारा जारी किया गया जन्म प्रमाणपत्र

    यदि इनमें से कोई भी दस्तावेज उपलब्ध नहीं है, तो मेडिकल जांच, जैसे कि ऑसिफिकेशन टेस्ट (Ossification Test), का सहारा लिया जा सकता है। कोर्ट ने महादेव बनाम महाराष्ट्र राज्य (2013) के मामले में अपने निर्णय का संदर्भ दिया, जिसमें कहा गया कि जब तक डॉक्यूमेंट्री साक्ष्य उपलब्ध हो, तब तक वही उम्र निर्धारण के लिए निर्णायक होगा।

    मेडिकल साक्ष्य की सीमाएं: ऑसिफिकेशन टेस्ट (Limits of Medical Evidence: Ossification Test)

    ऑसिफिकेशन टेस्ट हड्डियों की वृद्धि के आधार पर उम्र का अनुमान लगाने की एक सामान्य मेडिकल जांच है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह टेस्ट पूरी तरह से भरोसेमंद नहीं है, क्योंकि यह केवल आयु सीमा का एक अनुमान ही प्रदान करता है।

    इस मामले में, हाई कोर्ट ने ऑसिफिकेशन टेस्ट को बहुत अधिक महत्व दिया था, जिसमें यह दिखाया गया था कि अभियोजन पक्ष की उम्र 15 से 18 वर्ष के बीच है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे साफ किया कि मेडिकल साक्ष्य का सहारा तभी लेना चाहिए जब डॉक्यूमेंट्री साक्ष्य उपलब्ध न हो।

    दस्तावेजों में मामूली असंगतियों का महत्व (Importance of Minor Discrepancies in Documents)

    इस मामले में, एक मुख्य मुद्दा यह था कि जन्म प्रमाणपत्र और मिडिल स्कूल प्रमाणपत्र में तारीखों में दो दिनों का मामूली अंतर था। हाई कोर्ट ने इस अंतर को अभियोजन पक्ष की उम्र पर संदेह करने के लिए पर्याप्त माना।

    हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह छोटा अंतर पर्याप्त नहीं है कि वैध (Valid) डॉक्यूमेंट्री साक्ष्य को खारिज किया जा सके, विशेष रूप से जब दस्तावेज़ आधिकारिक हैं और जन्म के तुरंत बाद पंजीकृत किए गए थे। यह निर्णय इस बात पर जोर देता है कि छोटे-मोटे अंतर के कारण भरोसेमंद साक्ष्य को कमजोर नहीं किया जाना चाहिए।

    हाईकोर्ट के दृष्टिकोण की समीक्षा (Examination of the High Court's Approach)

    सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट की इस बात के लिए आलोचना की कि उसने डॉक्यूमेंट्री साक्ष्य को नजरअंदाज कर मेडिकल टेस्ट पर अधिक जोर दिया। कोर्ट ने कहा कि मेडिकल राय (Opinion) पर डॉक्यूमेंट्री साक्ष्य को प्राथमिकता देने में विफलता ने अभियोजन पक्ष की उम्र की गलत आकलन का कारण बना।

    उद्धृत प्रमुख मिसालें (Key Precedents Cited)

    सुप्रीम कोर्ट ने अपने दृष्टिकोण को समर्थन देने के लिए कई महत्वपूर्ण उदाहरणों का उल्लेख किया:

    1. महादेव बनाम महाराष्ट्र राज्य – इस मामले में यह तय किया गया कि उम्र निर्धारण में डॉक्यूमेंट्री साक्ष्य प्राथमिक है, और मेडिकल साक्ष्य का सहारा केवल अंतिम विकल्प के रूप में लिया जाना चाहिए।

    2. लखन लाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य – मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के इस मामले में कहा गया कि मेडिकल परीक्षण के आधार पर उम्र का अनुमान दो वर्षों तक भिन्न हो सकता है। हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इस मानक को तभी अपनाया जाना चाहिए जब कोई विश्वसनीय डॉक्यूमेंट्री साक्ष्य उपलब्ध न हो।

    सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय स्टेट ऑफ एम.पी. बनाम अनुप सिंह उम्र निर्धारण में डॉक्यूमेंट्री साक्ष्य की प्राथमिकता को पुनः स्थापित करता है, खासकर नाबालिगों से जुड़े संवेदनशील मामलों में।

    इस फैसले में मेडिकल राय पर निर्भरता को हतोत्साहित किया गया है जब तक कि सभी डॉक्यूमेंट्री साक्ष्य अनुपलब्ध न हों। यह निर्णय उम्र निर्धारण के मुद्दों को हल करते समय साक्ष्य मानकों का पालन करने और उम्र को सटीकता (Accuracy) और निरंतरता (Consistency) के साथ स्थापित करने के लिए न्यायपालिका के लिए एक महत्वपूर्ण निर्देश है।

    Next Story