किसी भी सजा का एक्जीक्यूशन कैसे करवाया जाता है?

Shadab Salim

25 Nov 2024 10:07 AM IST

  • किसी भी सजा का एक्जीक्यूशन कैसे करवाया जाता है?

    भारतीय न्याय संहिता में मौत की सज़ा, जेल की सज़ा, जुर्माना और सामुदायिक सेवा जैसी सज़ा के प्रावधान हैं। यह भारत में किए गए किसी भी अपराध के संबंध में दी जा रही है। भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 किसी भी व्यक्ति को प्राण और दैहिक स्वतंत्रता देता है तथा विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के माध्यम से ही किसी व्यक्ति से प्राण और दैहिक स्वतंत्रता को छीना जा सकता है।

    जब कोई व्यक्ति भारत की सीमा में अपराध करता है तो उस अपराध के लिए भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 या फिर कोई विशेष निहित की गयी प्रक्रिया विधि के अधीन कार्यवाही की जाती है एवं अन्वेषण, जांच और विचारण किया जाता है। विचारण के उपरांत निर्णय दिया जाता है निर्णय के पश्चात दोषसिद्ध व्यक्ति के पास अपील का अधिकार होता है तथा अपील के अधिकार के बाद अंत में जब व्यक्ति दोषसिद्ध हो जाता है तथा अपील के अधिकार समाप्त हो जाते हैं ऐसी परिस्थिति में अपराधियों को दिए गए दंड के निष्पादन का प्रश्न आता है। BNSS के अंतर्गत दंडादेशों का निष्पादन निलंबन, परिहार और लघुकरण से संबंधित विधि दी गयी है।

    जब हाई कोर्ट संपुष्टि के लिए प्रेषित मृत्यु दंडादेश की पुष्टि कर देता है (कोई भी मृत्यु दंडादेश जो सेशन कोर्ट द्वारा दिया जाता है उसकी पुष्टि हाई कोर्ट द्वारा की जाती है)

    धारा 453 इस संबंध में उल्लेख कर रही है कि जब हाई कोर्ट किसी मृत्यु दंडादेश की संपुष्टि कर देता है तो सेशन कोर्ट वारंट तैयार करके उसे जेल के भारसाधक अधिकारी को भेज देता है। जिसमें अभियुक्त को कैदी के रूप में रखा गया है। कोर्ट द्वारा जेल के अधिकारियों को हाई कोर्ट के आदेश का निष्पादन करने हेतु आदेशित किया जाता है।

    जेल के भारसाधक अधिकारी ऐसा वारंट प्राप्त होने के बाद बतलाए गए व्यक्ति को मृत्यु दंडादेश देने की कार्यवाही करता है। भारत का अटॉर्नी जनरल बनाम लक्ष्मी देवी के मामले में खुलेआम सर्वजनिक मार्ग पर फांसी दिए जाने को असंवैधानिक करार दिया गया है। भारत की सीमा के भीतर किसी भी जेल में खुलेआम फांसी दिया जाना अवैध और असंवैधानिक है।

    BNSS की धारा 454 के अंतर्गत जब अपील और पुनरीक्षण में हाई कोर्ट द्वारा मृत्यु दंडादेश दे दिया जाता है तब सेशन कोर्ट हाई कोर्ट का आदेश प्राप्त होने पर वारंट जारी करके दंडादेश का निष्पादन हेतु जेल अधिकारियों को भेजा जाता है।

    टी वी वाथेस्वरन के तमिलनाडु के केस में अभियुक्त को हत्या के अपराध के लिए मृत्यु दंडादेश दिया गया। प्रथम 2 वर्ष तक उसे प्रतिप्रेषण (Remand) में रखा गया, तत्पश्चात 8 वर्षों तक एकांत कारावास में रखा गया। इस प्रकार मृत्यु दंडादेश के निष्पादन में कुल मिलाकर 10 वर्ष का विलंब हुआ तथा उसने उक्त विलंब के आधार पर मृत्युदंड को आजीवन कारावास में संपरिवर्तित किए जाने हेतु आवेदन किया था।

    उसने अनुच्छेद 21 के अधीन चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट आयुक्तियुक्त मानते हुए अभियुक्त के मृत्युदंड को आजीवन कारावास में परिवर्तित कर दिया। इस मुकदमे में भारत के सुप्रीम कोर्ट कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया कि मृत्युदंड के निष्पादन में 2 वर्ष से अधिक का विलंब इस दंड को आजीवन कारावास में परिवर्तित किए जाने के लिए पर्याप्त।

    इसी मुकदमे के आधार पर शेर सिंह बनाम पंजाब के मामले में कुछ ऐसे ही प्रश्न खड़े किए गए थे। लेकिन इस प्रकरण में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने विलंब को युक्तियुक्त नहीं माना तथा यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि इस प्रकार के मृत्युदंड में विलंब आयुक्तियुक्त होना चाहिए। कोई भी विलंब जो तुच्छ प्रकृति का हो या फिर अपराधी द्वारा समय काटने हेतु अनावश्यक कार्यवाही करके पैदा किया जा रहा है तो इस प्रकार के विलंब में किसी भी मृत्युदंड को आजीवन कारावास में परिवर्तित नहीं किया जा सकता।

    इस वाद में जस्टिस चंद्रचूड़ ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया तथा अपील को निरस्त करते हुए अभियुक्त को दिए मृत्युदंड को बहाल रखा और साथ ही पंजाब राज्य सरकार से मृत्युदंड के निष्पादन में अनावश्यक विलंब का स्पष्टीकरण मांगा।

    त्रिवेणी बेन बनाम गुजरात राज्य के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिश्चित किया कि मृत्युदंड के निष्पादन में विलंब के बारे में विचार करते समय उस अवधी को शामिल नहीं किया जाना चाहिए जो कार्यवाही में प्रक्रम में व्यतीत हुई है। मृत्यु दंडादेश के निष्पादन में 2 वर्ष के विलंब को आजीवन कारावास में लागू करने के लिए समुचित आधार नहीं माना गया।

    कुछ ऐसा ही मामला जुम्मन खान बनाम उत्तर प्रदेश राज्य सुप्रीम कोर्ट कोर्ट के वाद में सुनिश्चित किया गया कि जहां मृत्युदंड के निष्पादन में असम्यक विलंब किया गया है तो उस दशा में कोर्ट मामले की असम्यकता को ध्यान में रखते हुए मृत्युदंड को आजीवन कारावास में परिवर्तित कर सकता है।

    BNSS की धारा 455 किसी मृत्यु दंडादेश को मुल्तवी किए जाने की उस प्रक्रिया का उल्लेख करती है जब कोई मृत्यु दंडादेश किसी अपील या पुनरीक्षण में हाई कोर्ट द्वारा दे दिया गया है। जब हाई कोर्ट द्वारा किसी अपील या पुनरीक्षण की कार्यवाही में किसी दोषसिद्ध अपराधी को मृत्यु दंडादेश दिया जाता है तो संविधान के अनुच्छेद 134(1) क या ख अथवा अनुच्छेद 134(2) अथवा अनुच्छेद 134, 132 के अधीन सुप्रीम कोर्ट में अपील की जा सकती है।

    जब भारत के सुप्रीम कोर्ट में किसी मृत्यु दंडादेश के विरुद्ध अपील की जाती है तो ऐसी परिस्थिति में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 455 के अंतर्गत दंड देने वाला हाई कोर्ट उस समय तक दंड के निष्पादन को मुल्तवी कर देगा जिस समय तक अपील का निपटारा नहीं कर दिया जाता या फिर अपील की समयावधि नहीं बीत जाती।

    धारा 457

    इस धारा के उपबंध के अनुसार यदि किसी विधि में किसी व्यक्ति को कारावासित किए जाने की व्यवस्था नहीं दी गयी है तो राज्य सरकार निर्देश दे सकती है कि किसी व्यक्ति को जिसे संहिता के अधीन कारावासित किया जा सकता है या अभिरक्षा के लिए सुपुर्द किया जा सकता है किस स्थान पर निरुद्ध किया जाएगा।

    यदि कोई व्यक्ति इस संहिता के अधीन कारावास में परिरुद्ध किया जा सकता है या अभिरक्षा के लिए सुपुर्द किया जा सकता है सिविल जेल में बंद है तो कारावास सुपुर्दगी के लिए आदेश देने वाला कोर्ट या मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति को दाण्डिक जेल में भेजे जाने का निदेश दे सकता है।

    धारा 458

    BNSS की धारा 458 के अंतर्गत जहां मामलों में जिनके लिए धारा 458 में उपबंध किया गया है से भिन्न मामलों में अभियुक्त आजीवन कारावास या किसी अवधि के कारावास के लिए दंडित किया गया है वहां दंडादेश देने वाला कोर्ट जेल या अन्य स्थान को जिसमें वह परिरुद्ध है या उसे परिरुद्ध किया जाना है कोर्ट तत्काल निष्पादन का वारंट भेजेगा।

    यदि अभियुक्त पहले से ही उस जेल या अन्य स्थान में परिरुद्ध नहीं है तो वारंट के साथ उस जेल या अन्य स्थान में भिजवायेगा परंतु जहां अभियुक्त को कोर्ट के उठने तक के लिए कारावास का दंडादेश दिया गया है वहां वारंट तैयार करना यह वारंट जेल को भेजना आवश्यक नहीं होगा।

    जिस समय से जिस दिनांक को वारंट का निष्पादन पुलिस द्वारा कर दिया जाता है, जिस दिन व्यक्ति की गिरफ्तारी हो जाती है उस दिन से उसके दंडादेश की अवधि प्रारंभ हो जाती है।

    BNSS की धारा 459 के अंतर्गत किसी कारावास के निष्पादन के लिए वारंट का निदेशन उस जेल या अन्य स्थान के किसी भारसाधक अधिकारी को निर्दिष्ट होगा जिसमें बंदी कैद है या कैद किया जाना है। धारा 460 के अंतर्गत यह उपबंध दिया गया है कि जब बंदी को जेल में परिरुद्ध किया जाना है तब वारंट जेलर को सौंपा जाता है।

    जब किसी दोषसिद्ध व्यक्ति को जुर्माने का दंड दिया जाता है तो BNSS की धारा 461 के अंतर्गत ऐसे जुर्माने की वसूली की कार्यवाही के संबंध में उपबंध दिए गए हैं। जब अपराधी की किसी जंगम संपत्ति की कुर्की और विक्रय द्वारा जुर्माने की रकम को उद्ग्रहीत करने के लिए वारंट जारी किया जा सकता है।

    जंगम एवं स्थावर संपत्ति दोनों से भू राजस्व की बकाया के रूप में रकम को उद्ग्रहीत करने के लिए जिले के कलेक्टर को अधिकृत करते हुए उसे वारंट जारी किया जा सकता है।

    धारा 461 जुर्माना वसूली का उल्लेख कर रही है। जिसके अंतर्गत कोर्ट अपराधी की किसी चल या अचल संपत्ति को कुर्क कर विक्रय करके जुर्माना उद्ग्रहीत करने के लिए वारंट जारी कर सकता है। यदि कोर्ट उचित समझे तो जुर्माना देने में व्यतिक्रम(चूक) करने वाले अभियुक्त की चल या अचल संपत्ति के दोनों से भू राजस्व की बकाया के रूप में रकम की उगाही करने के लिए जिले के कलेक्टर को अधिकृत करते हुए वारंट जारी कर सकता है और जहां दंडादेश में जुर्माना चुकाने में व्यतिक्रम के बदले कारावास भोगने का निर्देश दिया गया हो तो संबंधित व्यक्ति ने उक्त कारावास भोग लिया हो तो कोई कोर्ट ऐसा वारंट तब तक जारी नहीं करेगा जब तक वह अभिलिखित किए गए कारणों से ऐसा वारंट जारी करना आवश्यक नहीं समझे।

    करतार सिंह बनाम पंजाब राज्य के वाद में पंजाब हाई कोर्ट ने निर्धारित किया कि यदि किसी अभियुक्त की प्रतिभू द्वारा जमानत दी गयी है और अभियुक्त के जमानत तोड़ कर भाग जाने के कारण जमानत को जप्त कर लिया गया हो तो प्रतिभू द्वारा जुर्माने की राशि के भुगतान में असमर्थता की दशा में उसे धारा 421(Crpc) के अधीन कारावास से दंडित नहीं किया जा सकेगा अर्थात यदि कोई प्रतिभू किसी दोषसिद्ध हुए व्यक्ति की जमानत लेता है वह दोषसिद्ध जमानत के नियमों को तोड़कर भाग गया है तो ऐसी परिस्थिति में जुर्माना जमानतदार से वसूला जाएगा लेकिन जुर्माना भर पाने में असमर्थता पर जमानतदार को कारावासित नहीं किया जाएगा।

    यदि व्यक्ति को जुर्माना नहीं देने पर कारावास का दंडादेश दिया गया है तो अभियुक्त व जुर्माने की राशि का भुगतान नहीं करता तो कोर्ट से ऐसे भुगतान के लिए 30 दिन तक का समय दे सकता है यदि कोर्ट चाहे तो अभियुक्त से जुर्माने की राशि एक एक महीने के अंतराल में किस्तों में वसूल किए जाने का आदेश भी दे सकता है। कोर्ट इस संबंध में अभियुक्त से बंधपत्र निष्पादित करवा सकता है। अभियुक्त द्वारा बंधपत्र का उल्लंघन किया जाने पर उसके कारावास के दंडादेश को तुरंत निष्पादित करा देगा

    BNSS की धारा 467 के अंतर्गत यह स्पष्ट किया गया है कि जो अभियुक्त पहले से ही किसी दोषसिद्धि के अधीन कोई दंड भोग रहा है और उसे नवीन मामले में दंडादेश दिया गया है तो दंड किस समय से प्रारंभ होगा।

    इस धारा के अनुसार जब किसी ऐसे व्यक्ति को आजीवन कारावास या अन्य किसी अवधि के कारावास से दंडित किया जाता है जो पहले से ही दंड भोग रहा है तो तब तक कोर्ट दोनों दंडादेश को साथ साथ भुगतने का आदेश नहीं दे पश्चातवर्ती दंड तभी प्रारंभ होगा जब पूर्ववर्ती दंड भोग लिया गया है। किंतु कोई व्यक्ति जो पहले से ही आजीवन कारावास भोग रहा है और उसे आजीवन कारावास का दंडादेश दिया जाता है तो पश्चातवर्ती आदेश और पूर्ववर्ती दंडादेश दोनों साथ-साथ भोगे जाएंगे।

    सुप्रीम कोर्ट ने मोहम्मद अख्तर बनाम सहायक कलेक्टर सीमा शुल्क के एक वाद में विनिश्चित किया कि जहां दूसरा अपराध प्रथम अपराध से भिन्न था तो ऐसी दशा में दूसरा दंडादेश प्रथम दंडादेश के समाप्त होने के बाद ही इंफोर्स होगा।

    रंजीत सिंह बनाम केंद्र शासित चंडीगढ़ प्रदेश के वाद में सुप्रीम कोर्ट कोर्ट ने अभिनिश्चित किया है कि जहां अभियुक्त हत्या के अपराध के लिए आजीवन कारावास की सजा भोग रहा है इस दौरान वह जेल में पुनः किसी व्यक्ति की हत्या कर दे तो ऐसी परिस्थिति में दूसरी हत्या के लिए दिया गया दंड प्रथम हत्या के दंड आजीवन कारावास के साथ साथ नहीं चलेगा।

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