डिफॉल्ट जमानत पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले और विधि आयोग की रिपोर्ट
Himanshu Mishra
8 Oct 2024 5:32 PM IST
अचपाल @ रामस्वरूप बनाम राजस्थान राज्य के मामले में इस महत्वपूर्ण सवाल पर विचार किया गया कि क्या अगर 90 दिन की निर्धारित अवधि में जांच पूरी नहीं होती है, तो आरोपी को डिफॉल्ट जमानत (Default Bail) मिल सकती है।
भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code, CrPC) की धारा 167(2) के अनुसार, इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कई कानूनी मिसालों (Legal Precedents) पर विचार किया और आरोपी के अधिकारों और राज्य की जांच समय पर पूरी करने की जिम्मेदारी के बीच संतुलन की चर्चा की।
इस लेख में उन प्रमुख फैसलों और विधि आयोग की रिपोर्ट का विश्लेषण किया गया है, जो इस मामले में संदर्भित हैं, और इस पर चर्चा की गई है कि अदालतें डिफॉल्ट जमानत के अधिकार की व्याख्या कैसे करती हैं।
धारा 167(2) CrPC: आरोपी के लिए सुरक्षा कवच (Section 167(2) of the CrPC: A Safeguard for Accused)
CrPC की धारा 167(2) के अनुसार, अगर गंभीर अपराधों (जिनकी सजा मृत्यु या आजीवन कारावास है) के लिए 90 दिनों के भीतर जांच पूरी नहीं होती या छोटे अपराधों के लिए 60 दिनों के भीतर जांच नहीं होती, तो आरोपी को डिफॉल्ट जमानत पाने का अधिकार होता है।
यह प्रावधान यह सुनिश्चित करता है कि राज्य अनिश्चितकाल तक व्यक्ति को हिरासत में नहीं रख सकता बिना जांच पूरी किए। एक बार यह अवधि समाप्त हो जाती है और अगर चार्जशीट (Charge-sheet) दाखिल नहीं होती है, तो आरोपी का डिफॉल्ट जमानत पाने का "अवधारणा के अनुसार अटल अधिकार" (Indefeasible Right) होता है, बशर्ते वह जमानत के लिए आवेदन करे और आवश्यक जमानत बांड प्रस्तुत करने के लिए तैयार हो।
डिफॉल्ट जमानत पर प्रमुख न्यायिक निर्णय (Key Judgments on Default Bail)
1. उदय मोहनलाल आचार्य बनाम महाराष्ट्र राज्य
इस ऐतिहासिक फैसले ने डिफॉल्ट जमानत के कई सिद्धांतों को स्थापित किया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 90 या 60 दिनों की निर्धारित अवधि के समाप्त होते ही, अगर चार्जशीट दाखिल नहीं होती, तो आरोपी को जमानत का अधिकार स्वचालित रूप से मिल जाता है। यह अधिकार "अटल" (Indefeasible) होता है, जिसे किसी भी परिस्थिति में नकारा नहीं जा सकता, भले ही चार्जशीट थोड़ी देर बाद दाखिल की जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी जोर दिया कि जमानत के आवेदन पर तुरंत निर्णय लिया जाना चाहिए ताकि अभियोजन पक्ष प्रक्रिया को लंबा खींचकर आरोपी के अधिकारों को प्रभावित न कर सके।
2. हितेंद्र विष्णु ठाकुर बनाम महाराष्ट्र राज्य
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि केवल जांच चल रही है, इस आधार पर किसी आरोपी को अनिश्चितकाल तक हिरासत में नहीं रखा जा सकता। आरोपी को निर्धारित अवधि समाप्त होने के बाद स्वचालित रूप से जमानत का अधिकार होता है, जो एक कानूनी सुरक्षा है, जिससे अनावश्यक देरी से बचा जा सके।
3. संजय दत्त बनाम राज्य (CBI)
इस फैसले ने डिफॉल्ट जमानत के सिद्धांतों को और मजबूती दी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर निर्धारित समय सीमा के भीतर जांच पूरी नहीं होती, तो आरोपी जमानत पाने का हकदार होता है। यह अधिकार स्वचालित है और इसके लिए किसी अतिरिक्त न्यायिक विवेकाधिकार (Judicial Discretion) की आवश्यकता नहीं होती।
4. राकेश कुमार पॉल बनाम असम राज्य
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उस आरोपी के बारे में चर्चा की जिसने समय पर जमानत के लिए आवेदन किया था लेकिन उसमें देरी हुई। अदालत ने कहा कि जैसे ही निर्धारित अवधि समाप्त होती है और आरोपी जमानत के लिए आवेदन करता है, उसे यह अधिकार मिल जाता है। अगर अदालत या जांच एजेंसी की देरी के कारण यह अधिकार नहीं मिलता, तो आरोपी का अधिकार प्रभावित नहीं किया जा सकता।
5. बिपिन शांतिलाल पंचाल बनाम गुजरात राज्य
इस फैसले ने फिर से पुष्टि की कि जैसे ही कानूनी अवधि समाप्त होती है, आरोपी को जमानत मिलनी चाहिए, अगर वह जमानत बांड प्रस्तुत करने के लिए तैयार है। जांच एजेंसी इस अवधि को बढ़ाने या अधूरी रिपोर्ट दाखिल करके आरोपी को हिरासत में रखने का प्रयास नहीं कर सकती।
6. रनबीर शौकीन बनाम दिल्ली राज्य (NCT)
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जैसे ही निर्धारित जांच अवधि समाप्त होती है और चार्जशीट दाखिल नहीं होती, आरोपी का डिफॉल्ट जमानत पाने का अधिकार लागू हो जाता है। यह अधिकार तब तक नहीं नकारा जा सकता जब तक कि आरोपी जमानत के लिए आवेदन न करे या बांड प्रस्तुत करने में विफल न हो।
विधि आयोग की रिपोर्ट और विधायी उद्देश्य (Law Commission Report and Legislative Intent)
41वीं विधि आयोग की रिपोर्ट, जो राकेश कुमार पॉल मामले में उद्धृत की गई थी, ने CrPC की धारा 167 को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विधि आयोग ने यह देखा कि पुरानी CrPC (1898) के प्रावधानों के तहत बिना मुकदमा चलाए अनिश्चितकाल तक हिरासत में रखने का दुरुपयोग होता था।
इसे ठीक करने के लिए आयोग ने जांच पूरी करने के लिए समय सीमा निर्धारित करने का प्रस्ताव दिया, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि पुलिस हिरासत में रखने का दुरुपयोग न कर सके।
CrPC (1973) की प्रस्तावना में भी इसी तरह की चिंताओं का जिक्र किया गया था, जिसमें यह कहा गया था कि आरोपी का निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार सुरक्षित होना चाहिए, जांच में देरी से बचा जाना चाहिए, और जमानत प्रक्रिया को सरल और न्यायपूर्ण बनाया जाना चाहिए।
मुख्य मुद्दा: डिफॉल्ट जमानत का अटल अधिकार (Fundamental Issue: The Indefeasible Right to Default Bail)
सुप्रीम कोर्ट ने अचपाल @ रामस्वरूप मामले में इस बात को फिर से स्पष्ट किया कि जांच पूरी न होने पर आरोपी का डिफॉल्ट जमानत का अधिकार एक कानूनी सुरक्षा है।
अदालत ने यह भी कहा कि जांच की अवधि को बढ़ाने का कोई प्रावधान CrPC में नहीं है, जब तक कि विशेष कानून जैसे महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (MCOCA) या आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियों (रोकथाम) अधिनियम (TADA) जैसी व्यवस्थाएँ न हों, जिनमें समय सीमा को बढ़ाने की अनुमति दी गई हो।
अचपाल @ रामस्वरूप मामले में अदालत ने यह दोहराया कि अगर जांच निर्धारित समय सीमा के भीतर पूरी नहीं होती है, तो आरोपी को डिफॉल्ट जमानत का अटल अधिकार प्राप्त होता है।
अदालत ने कहा कि यह अधिकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है और इसे प्रक्रियागत देरी के कारण प्रभावित नहीं किया जा सकता। इस फैसले ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा को और मजबूत किया और यह सुनिश्चित किया कि न्यायिक प्रक्रियाएँ समय पर पूरी हों, जिससे अनावश्यक हिरासत में रखने से बचा जा सके।
यह निर्णय कई महत्वपूर्ण फैसलों और विधि आयोग की रिपोर्ट के समर्थन में है, जो आरोपी के अधिकारों की रक्षा और राज्य द्वारा जांच पूरी करने की जिम्मेदारी के बीच संतुलन बनाए रखने के महत्व को रेखांकित करता है।