Hindu Marriage Act शादी और डिवोर्स का कानून

Shadab Salim

11 July 2025 10:30 AM IST

  • Hindu Marriage Act शादी और डिवोर्स का कानून

    हिंदुओं के विवाह से संबंधित विधि को सहिंताबद्ध करने के उद्देश्य से भारत गणराज्य के छठे वर्ष में संसद द्वारा अधिनियमित किया गया है। यह अधिनियम हिंदुओं के विवाह से संबंधित संपूर्ण विधि उपलब्ध करता है।

    प्राचीन काल से वर्तमान समय तक स्त्री और पुरुष के संबंधों में विवाह को सर्वाधिक योग्य एवं उपयोगी प्रथा माना गया है। आज भी विवाह से अधिक सार्थक प्रथा मनुष्यों के पास स्त्री और पुरुषों के संबंध को लेकर उपलब्ध नहीं है। प्राचीन हिंदू विधि में विवाह एक संस्कार माना गया है। विवाह को हिंदुओं के सोलह संस्कारों में से एक अत्यंत महत्वपूर्ण संस्कार माना है।

    हिंदू धर्म में विवाह एक पवित्र संस्कार माना गया है, वेदों में भी विवाह की महत्ता का वर्णन किया गया है, हिंदू विवाह एक अनिवार्य संस्कार की तरह है।

    प्राचीन हिन्दू विधि के अधीन विवाहित कृत्य इस लोक और परलोक दोनों में बना रहता था इसलिए हिंदू विवाह को संस्कार माना गया है। हिंदुओं में विवाह बंधन केवल इस धरती तक ही सीमित नहीं है परंतु अपितु इसका संबंध परलोक तक है यह संबंध जन्म जन्मांतर का है। यह धारणा है कि पति पत्नी के संबंध परलोक तक भी अटूट रहते हैं।

    प्राचीन हिंदू समाज शास्त्रियों ने विवाह को संस्कार का विषय माना था न कि संविदा (contract) । यह बात वर्तमान हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 7 को ध्यान में रखकर हिंदू विवाह को संस्कार की संज्ञा देने का प्रयास किया गया है। फिर भी अधिकांश हिंदू विवाह के लिए धार्मिक अनुष्ठानों को अनिवार्य मानते हैं हिंदू विवाह अधिनियम के लागू हो जाने के पश्चात यह कहा जा सकता है कि वर्तमान हिंदू विवाह न तो पूर्ण संस्कार है और न ही एक संविदा (contract) है। यह संस्कार और संविदा दोनों का मिश्रित स्वरूप है।

    वर्तमान हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5, धारा 11 और धारा 12 अर्थात वैध विवाह के लिए आवश्यक शर्तें शून्य विवाह और शून्यकरणीय विवाह यही स्थापित करते हैं कि विवाह एक संविदा है संस्कार नहीं।

    यह संविदा की भांति ही अनियमित और अवैध हो सकता है। इन आधार पर शून्य और शून्यकरणीय हो सकता है। धारा 13 के अनुसार विवाह का विच्छेद भी किया जा सकता है जो विवाह एतदपूर्व वैध विवाह रहा है। दोनों पक्षों में संताने भी उत्पन्न हुई है फिर भी एक पक्ष के द्वारा कोई वैवाहिक रोग उत्पन्न हो जाने पर इसे विवाह विच्छेद की आज्ञप्ति द्वारा तोड़ा जा सकता है।

    वर्तमान परिस्थितियों के अधीन रहते हुए हिंदू विवाह की प्रकृति को तो लगभग लगभग नष्ट कर दिया गया है परंतु फिर भी हिंदू विवाह कुछ हिस्से तक संस्कार ही है इसलिए यह कहा जा सकता है कि हिंदू विवाह भले ही अधिकांशतः संविदा की भांति हो परंतु फिर भी इसमें कुछ गुण संस्कार के हैं जो प्राचीन हिंदू विवाह की भांति के है। समय के अनुरूप हिन्दू विवाह के स्वरूप को बदलना पड़ा।

    विवाह की प्रकृति चाहे कोई भी हो चाहे उसे संस्कार माना जाए या अनुबंध, यह पति-पत्नी के मध्य एक प्रस्थिति को जन्म देता है, विवाह के पक्षकार पति पत्नी की स्थिति प्राप्त करते हैं। विवाह की संतान धर्मज की संस्थिति प्राप्त करती है। लगभग सभी विधि व्यवस्थाओं में वैध विवाह के लिए दो शर्तों का होना अनिवार्य है। विवाह करने का सामर्थ्य और वैवाहिक अनुष्ठानों का संपन्न होना। वर्तमान अधिनियम के प्रावधानों का अधिभावी या अध्यारोही प्रभाव है अर्थात शास्त्रीय विधियां एवं सामाजिक रूढ़ियां जो अधिनियम के पूर्व से प्रचलित एवं मान्य थी निष्प्रभावी हो जाएगी यदि ही इस अधिनियम के प्रावधानों के विरुद्ध है।

    इस अधिनियम की धारा 4 के अनुसार वर्तमान ऐसी सभी विधियां चाहे वह प्राचीन मूल पाठ रूढ़ियों एवं नियमों के रूप में हो यदि वे अधिनियम के उपबंधों के प्रतिकूल है तो उन्हें निरसित कर दिया जाएगा। यह अधिनियम सभी वर्तमान विधियों को निश्चित करता है किंतु इसके ऊपर ऐसे विषय लागू होंगे जिनके बारे में अधिनियम के अंतर्गत छूट दे दी गई हो और ऐसे विषयों में पहले कि भारतीय मूल पाठ की हिंदू विधि लागू होगी, यह विषय निम्न प्रकार के हैं-

    रूढ़ि के अधीन इस अधिनियम द्वारा मान्य हिंदू विवाह को समाप्त करने का अधिकार {धारा 29( 2)}

    विवाह को समाप्त करने तथा न्यायिक पृथक्करण (judicial separation) के लिए चल रहे वाद {धारा 29 (3)}

    रूढ़ि द्वारा स्वीकृति

    प्रतिषिद्ध वर्ग के संबंधियों के मध्य हुआ विवाह धारा 5(4)

    सपिंडों के मध्य विवाह

    तलाक धारा 29 (2)

    स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 के अंतर्गत हिंदुओं के मध्य हुआ विवाह धारा 29(4)

    इन ऊपर वर्णित सभी बातों के संबंध में रूढ़ि और प्रथा को मान्यता दी गयी है। उदारहण के लिए यदि किसी विशेष प्रकार से किसी समाज की प्रथा में तलाक होता है तो वह किया जा सकेगा और उसके लिए किसी कोर्ट की डिक्री की आवश्यकता नहीं होगी, जैसे आदिवासी समाज में इस प्रकार की रूढ़ि होती है।

    हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में विवाह का कोई विशेष रूप नहीं निर्धारित किया गया है। धारा 7 में केवल यह कहा गया है कि विवाह का संपादन विवाह के दोनों पक्षकारों में से किसी एक की रीति रिवाज तथा कर्मकांड के अनुसार होना चाहिए। यदि वर हिंदू हैं और वधू जैन है तो विवाह दोनों में से किसी एक के रीति रिवाज के अनुसार होना चाहिए परंतु जहां ऐसे रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह की क्रियाओं से सप्तपदी भी शामिल है तो विवाह उसी समय पूरा होगा तथा बंधनकारी होगा जब सातवां पग हो जाए।

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