हिन्दू विधि भाग 12 : हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 और उससे संबंधित महत्वपूर्ण बातें

Shadab Salim

7 Sep 2020 7:12 AM GMT

  • हिन्दू विधि भाग 12 :  हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 और उससे संबंधित महत्वपूर्ण बातें

    लेखक द्वारा लाइव लॉ पर हिंदू विधि के अंतर्गत हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के समस्त महत्वपूर्ण प्रावधानों पर सारगर्भित टीका टिप्पणी के साथ आलेख लिखे गए हैं। इसके आगे भाग 12 से हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के महत्वपूर्ण प्रावधान पर टीका टिप्पणी सहित आलेख लिखे जाएंगे।

    इस लेख भाग -12 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 से संबंधित महत्वपूर्ण बातों का समावेश किया जा रहा है तथा इस अधिनियम की प्रस्तावना को प्रस्तुत किया जा रहा है।

    हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956

    हिंदू पर्सनल लॉ (Hindu Personal Law) के अंतर्गत हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 के बाद यदि सर्वाधिक महत्वपूर्ण कोई विधि है तो उत्तराधिकार से संबंधित हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 (Hindu Succession Act 1956) है। यह अधिनियम निर्वसीयती मृत्यु होने पर हिंदुओं के उत्तराधिकार से संबंधित विधि को सहिंताबद्ध करता है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के सहिंताबद्ध होने से हिंदुओं के संपत्ति के उत्तराधिकार के संबंध में बहुत आमूलचूल परिवर्तन हुए हैं।

    इस अधिनियम के प्रभावशील होने के पहले हिंदुओं में उत्तराधिकार से संबंधित विभिन्न विधियां भारत में प्रचलित थी। जहां संयुक्त संपत्ति थी वहां उत्तरजीविता का सिद्धांत लागू था और जहां अर्जित संपत्ति थी, उस दशा में उत्तराधिकार लागू होता था। स्त्रीधन के उत्तराधिकार के संबंध में भी विभिन्न नियम थे और ऐसे उत्तराधिकार को सुनिश्चित करने के लिए साबित करना आवश्यक होता था कि स्त्री ने संपत्ति या संपदा किससे प्राप्त की है।

    यह अधिनियम प्राचीन शास्त्रीय हिंदू विधि दाय और मिताक्षरा से प्रभावित होते हुए आधुनिक परिवेश के मिश्रण में अधिनियमित किया गया है। यह अधिनियम को बनाते समय हिंदू स्त्री और पुरुषों में कोई विभेद नहीं किया गया है।

    किसी समय मिताक्षरा और दायभाग शाखाओं से शासित होने वाले हिंदुओं के संबंध में उत्तराधिकार के भिन्न भिन्न नियम थे। उत्तराधिकार के नियम स्थान परिवर्तन के साथ भी परिवर्तित हो जाते थे परंतु यह संहिताबद्ध हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 सभी उत्तराधिकार से संबंधित लक्ष्यों को पूरा करता है। वास्तव में यह अधिनियम उत्तराधिकार संबंधी विधि को सहिंताबद्ध करता है। उत्तराधिकार को एकरूपता प्रदान करता है।

    वर्तमान अधिनियम के दूरगामी परिणाम है। यह निर्वसीयती मृत हिंदू की संपत्ति के उत्तराधिकार के संबंध में सभी आवश्यक प्रावधान करता है।

    यह अधिनियम हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख पर लागू होता है। इसके लागू होने के संदर्भ में हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 2 के अनुरूप ही प्रावधान है। जिस प्रकार विवाह अधिनियम में मुसलमान, ईसाई, पारसी और यहूदी को छोड़कर भारत में निवास करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को हिंदू माना गया है इसी प्रकार हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के अंतर्गत हिंदू की यही परिभाषा है।

    यह अधिनियम निर्वसीयती स्वर्गवासी हो जाने वाले हिंदू पुरुष अथवा स्त्री की संपत्ति के उत्तराधिकार के लिए नए नियम निर्धारित करता है। जब किसी निर्वसीयत संपत्ति का उत्तराधिकार दो या दो से अधिक अधिकारियों पर होता है और इनमें से कोई उत्तराधिकारी अपने हिस्से को हस्तांतरित करना चाहता है तो दूसरे उत्तराधिकारी को संपत्ति को प्राप्त करने का अधिकार इस अधिनियम के अंतर्गत दिया गया है। यह अधिनियम वैज्ञानिकता के आधार पर प्रेम और अनुराग के अनुसरण में अधिनियमित किया गया है। संपत्ति का उत्तराधिकार उसी व्यक्ति को देने का प्रयास किया गया है जो मरने वाले से सबसे निकट का संबंधी है। जिससे सबसे अधिक प्रेम और अनुराग मरने वाले का होता है उसे संपत्ति पहले मिलती है। इस अधिनियम के अंतर्गत हिंदू नारी और हिंदू पुरुष को समान रूप से उत्तराधिकार का एक समान क्रम दिया गया है।

    अधिनियम का विस्तार और उसका लागू होना

    हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की भांति ही उसके विस्तार और उसके लागू होने से प्रारंभ होता है। प्रारंभिक धाराओं के अंतर्गत सर्वप्रथम इसके विस्तार का प्रावधान किया गया है तथा अधिनियम किन लोगों पर लागू होगा इस संबंध में उल्लेख किया गया है। जम्मू कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 के पूर्व यह अधिनियम जम्मू कश्मीर राज्य पर लागू नहीं होता था परंतु जम्मू कश्मीर पुनर्गठन के बाद अधिनियम समस्त भारत पर लागू होता है। इस अधिनियम का विस्तार दादर और नगर हवेली तक है।

    हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के प्रारंभिक प्रावधान इस अधिनियम के विस्तार उनके लागू होने को लेकर है। इससे संबंधित अधिनियम की प्रमुख दो धाराएं हैं। धारा एक और धारा दो।

    यह अधिनियम 17 जून 1956 को प्रभावशील हुआ जिस दिनांक को भारत के राष्ट्रपति ने संसद द्वारा पारित अधिनियम को स्वीकृति प्रदान की थी।

    हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 का लागू होना (धारा-2)

    इस अधिनियम की धारा दो अधिनियम की धाराओं में महत्वपूर्ण धारा है। यह धारा इस बात का प्रावधान कर रही है कि यह अधिनियम किन लोगों पर लागू होगा। इस अधिनियम का नाम हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम है। इस अधिनियम के नाम के प्रारंभ में हिंदू शब्द का उल्लेख होता है परंतु समस्या यह है कि हिंदू कौन है इस संबंध में स्पष्ट प्रावधान किए जाने की नितांत आवश्यकता थी। अधिनियम की धारा 2 के अंतर्गत इस हेतु समस्त प्रावधान कर दिए गए हैं।

    धारा में यह प्रावधान किया गया है कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख धर्म के अनुयायी एवं वीरशैव, लिंगायत, ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज के लोगों पर यह अधिनियम लागू होता है।

    मुस्लिम ईसाई पारसी व यहूदी को छोड़कर अन्य सभी व्यक्तियों को लागू होता है किंतु यदि कोई सिद्ध करे कि वह हिंदू विधि से शासित नहीं होते हैं किंतु रूढ़ि और प्रथा से शासित होते हैं तो यह अधिनियम लागू नहीं होगा। हिंदू बौद्ध जैन सिख दंपत्ति की संतान चाहे धर्मज हो या अधर्मज हो तथा माता-पिता में से कोई एक हिंदू बौद्ध जैन या सिख हो उनके धर्म को तथा जनजाति समुदाय समूह के रूप में हो जिसके माता-पिता सदस्य हैं या थे, लागू होगा।

    हिंदू बौद्ध जैन सिख धर्म में परिवर्तित व्यक्ति पर अधिनियम लागू होता है। जिस प्रकार हिंदू विवाह अधिनियम 1955 भारत के बाहर के हिंदुओं पर भी लागू होता है उसी प्रकार यह अधिनियम न केवल भारत की सीमा में रहने वाले हिंदुओं पर लागू होगा बल्कि उन सभी हिंदुओं को यह अधिनियम लागू होता है जो भारत के बाहर अधिवासी हैं या रहते हैं।

    इस अधिनियम का संबंध व्यक्ति के धर्म से है ना कि उसके अधिवास से है। यदि हिंदू धर्म का व्यक्ति और जिन व्यक्तियों का इस अधिनियम के अंतर्गत उल्लेख किया गया है वह भारत के बाहर भी रह रहे हैं तो भी उन पर या अधिनियम लागू होगा।

    भारत के उच्चतम न्यायालय ने अपने एक निर्णय में कहा है कि यदि कोई व्यक्ति जिसकी मूल उत्पत्ति अहिंदू के रूप में थी और वह हिंदुत्व को अंगीकृत कर लेता है तो वह हिंदू विधि से शासित होगा। यदि एक मुसलमान अपने धर्म को त्याग कर जिसमे उसने जन्म लिया था, हिंदू धर्म को अंगीकृत कर लेता है, हिन्दू पद्धति के अनुसार जीवन व्यतीत करता है तो उसे हिंदू मान लिया जाएगा। हिंदू होने के लिए आवश्यक नहीं है कि किसी जाति विशेष का सदस्य हो हिंदू धर्म को अपना लेने वाला व्यक्ति हिंदू कहलाता है, अब भले वह किसी भी वर्ण का न हो।

    इस अधिनियम के लागू होने के संदर्भ में केवल इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि यह अधिनियम भारत की सीमा में रहने वाले समस्त लोगों को लागू होता है केवल मुस्लिम ईसाई पारसी और यहूदी धर्म को छोड़कर। यदि कोई व्यक्ति इन चारों धर्मों का नहीं है तो उस पर यह अधिनियम लागू होगा। अगर कोई व्यक्ति यह सिद्ध कर देता है कि उसे इस धर्म से शासित नहीं किया जा सकता क्योंकि उसके पास अपनी स्वयं की रूढ़ि और प्रथाएं उत्तराधिकार से संबंधित उपलब्ध है और उसे वह व्यक्ति सिद्ध कर देता है तो ही यह अधिनियम उस व्यक्ति पर लागू नहीं होगा। जैसा कि भारत के आदिवासी समुदाय में अपनी बहुत सी रूढ़ि और प्रथाएं उपलब्ध है तथा उनके विवाह और उत्तराधिकार को नियंत्रित करती है।

    रूढ़ि और प्रथाएं क्या होती हैं और उन्हें कब मान्यता दी जाती है, इस संदर्भ में लेखक द्वारा पूर्व में आलेख लिखा जा चुका है।

    हिंदू कौन होगा हिंदू धर्म में परिवर्तित कैसे हुआ जाता है इस संदर्भ में गायक येसूदास का प्रकरण बड़ा रोचक प्रकरण है। केरल उच्च न्यायालय में यहां प्रकरण मोहनदास बनाम देवस्वोम परिषद 1975 'के एल टी' 55 के नाम से जाना जाता है। इस प्रकरण में प्रसिद्ध गायक येसुदास ने केरल उच्च न्यायालय को संज्ञान दिया था कि वह हिंदू धर्म को अंगीकृत कर चुका है और वह हिंदू है। उसका जन्म भले ही ईसाई घर में हुआ हो तथा वह जन्म से ईसाई हो परंतु अब उसने हिंदू धर्म को अपना लिया है और वह हिंदू है।

    इस प्रकरण में केरल उच्च न्यायालय ने कहा कि यदि कोई भी व्यक्ति अपने वचन से स्वीकार कर रहा है कि वह हिंदू है तो ऐसे व्यक्ति को हिंदू ही माना जाएगा। हिंदू धर्म में परिवर्तित होने के लिए किसी संस्कार की कोई आवश्यकता नहीं है। वह धरती का कोई भी व्यक्ति चाहे वह किसी भी धर्म में पैदा हुआ हो यदि सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लेता है कि वह हिंदू है तो फिर उसे हिंदू ही माना जाएगा। इस प्रकरण में येसुदास ने केरल उच्च न्यायालय के समक्ष यह स्वीकार किया कि वह हिंदू है। ऐसी परिस्थिति में उत्तराधिकार से संबंधित प्रावधान हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के लागू होंगे।

    राजकुमार गुप्ता बनाम बाबूराम गुप्ता एआईआर 1989 सुप्रीम कोर्ट 165 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि कोई व्यक्ति जन्म से हिंदू हो वह जिसने हिंदू धर्म न त्यागा हो यदि ऐसे व्यक्ति ने रूढ़िवादी परंपराओं, खान-पान और विस्थापन को छोड़ दिया हो तो भी वह हिंदू ही रहेगा।

    इस प्रकरण से यह समझा जा सकता है कि यदि कोई व्यक्ति हिंदू धर्म को छोड़ देता है तो उसे किसी अन्य धर्म में संपरिवर्तित होना होगा यदि उसका नाम हिंदुओं जैसा है और वह हिंदू धर्म में पैदा हुआ है और हिंदू धर्म के संस्कारों को छोड़ दिया है तो वह हिंदू ही रहता है अगर किसी अन्य धर्म को नहीं अपनाया तो।

    वर्तमान परिदृश्य में अनेक व्यक्ति धार्मिक आडंबरों को छोड़ देते हैं तथा ईश्वर के अस्तित्व को भी नकारते है। इस प्रकार के नास्तिक व्यक्ति के संदर्भ में भी हिंदू उत्तराधिकार 1956 ही लागू होगा यदि उसका नाम हिंदुओं की तरह है और उसका जन्म हिंदू घराने में हुआ है। उस पर उत्तराधिकार के नियम हिंदू उत्तराधिकार के अंतर्गत ही लागू होंगे। यदि किसी विवाह को विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत संपन्न किया गया है तथा घोषणा पत्र दिया गया है कि हम हिंदू संस्कारों को नहीं मानेंगे ऐसी परिस्थिति में उत्तराधिकार अधिनियम हिंदू अधिनियम के लागू नहीं होंगे यदि विवाह हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अंतर्गत स्थापित किया गया है तो फिर उत्तराधिकार भी हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के अनुसार ही होगा।

    छुईया बनाम मंगरीबाई 2000 (2) मध्यप्रदेश 441 एक प्रकरण में यह कहा गया है कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 अनुसूचित जनजाति पर उत्तराधिकार के मामलों में लागू नहीं होगा क्योंकि अनुसूचित जनजाति के पास अपनी रूढ़ि और प्रथा की उत्तराधिकार विधियां उपलब्ध हैं।

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