हिन्दू विधि भाग 2 : जानिए हिंदू विवाह अधिनियम का विस्तार, यह अधिनियम कहां तक लागू होता है
Shadab Salim
21 Aug 2020 9:30 AM IST
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 (The Hindu Marriage Act, 1955) के प्रारंभ होते ही सबसे पहले प्रश्न यह आते हैं कि इस अधिनियम का विस्तार कहां तक होगा अर्थात यह अधिनियम कहां तक लागू होगा और कौन से लोगों पर यह लागू होगा और इस अधिनियम के अंतर्गत दी गई विशेष परिभाषाओं का क्या अर्थ है?
इस लेख के माध्यम से हिंदू विवाह अधिनियम का विस्तार उसकी परिभाषाएं तथा अधिनियम किन लोगों पर लागू होगा इस संबंध में सारगर्भित चर्चा की जा रही है।
हिंदू विवाह अधिनियम का विस्तार
हिंदू मैरिज एक्ट 1955 की धारा 1 इस अधिनियम के नाम और विस्तार के संबंध में उल्लेख कर रही है। धारा 1 की उपधारा 2 के अंतर्गत स्पष्ट उल्लेखित किया गया है कि यह अधिनियम संपूर्ण भारत के अधिवासी हिंदुओं पर भी लागू होगा। 2019 के जम्मू कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम के पहले यह अधिनियम जम्मू कश्मीर में लागू नहीं होता था परंतु जम्मू कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम के बाद यह अधिनियम का विस्तार जम्मू कश्मीर राज्य पर भी होगा। उसका विस्तार दादरा नागर हवेली संघ राज्य क्षेत्र तक है।
कोई भी अधिनियम केवल किसी देश के अधिवासी लोगों पर अधिनियमित होता है परंतु हिंदू विवाह अधिनियम भारत राज्यों में अधिवासी समस्त हिंदुओं तथा भारत के बाहर रह रहे भारत के अधिवासी हिंदुओं के संबंध में भी लागू होता है।
गौर गोपाल राय बनाम शिप्रा राय एआईआर 1978 कोलकाता 163 के मामले में यह कहा गया है कि अंतर्राष्ट्रीय विधि के अनुसार यदि कोई व्यक्ति स्थाई रूप से दूसरे देश में रहने लगे तो उसे इस देश की विधि व्यक्तिगत संबंधों में लागू नहीं की जाएगी किंतु उस व्यक्ति के अधिवास के देश की विधि ही लागू होगी।
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 उन सभी पर भी लागू होता है जो भारत से बाहर रह रहे हैं किंतु उनकी नागरिकता भारत की है।
यह अधिनियम किन लोगों पर लागू होगा
यह अधिनियम किन लोगों पर लागू होगा इस संबंध में हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 2 में उल्लेख किया गया है। इस धारा के अनुसार सबसे पहला प्रश्न यह है कि यदि अधिनियम हिंदुओं पर लागू होगा तो हिंदू कौन है?
भारत के विद्वानों के मतानुसार हिंदू धर्म एक सहिष्णु धर्म है तथा यह धर्म किसी एक संस्थापक द्वारा संचालित नहीं किया गया, किसी एक व्यक्ति का इस धर्म पर कभी प्रभाव नहीं रहा। किसी एक ईश्वर की पूजा नहीं करता है यह किसी एक दार्शनिक संकल्पना में विश्वास नहीं रखता है। यह तो पूरी सहिष्णुता के साथ व्यापक रूप से जीवन यापन का ढंग है।
इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए अधिनियम की धारा -2 का विस्तार किया गया और इस धारा के अनुसार वर्तमान अधिनियम सभी हिंदुओं पर लागू होता है। हिंदू धर्म के अंतर्गत जिन व्यक्तियों को शामिल किया जाएगा उन व्यक्तियों का स्पष्ट उल्लेख किया गया है वह निम्न हैं।
वीरशैव, लिंगायत, ब्रह्मा, प्रार्थना और आर्य समाज के अनुयायी
बौद्ध, जैन, सिख धर्म के व्यक्ति
यह अधिनियम किसी ऐसे व्यक्ति पर लागू नहीं होगा जो धर्म से मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी है। यदि कोई व्यक्ति मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी नहीं है ऐसी सूरत में यह अधिनियम उस पर लागू होगा। इस धारा का अर्थ यह है कि यह अधिनियम केवल मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी पर ही लागू नहीं होगा इसके अलावा यह अधिनियम प्रत्येक व्यक्ति पर लागू होगा जो हिंदू आस्थाओं से जुड़ा हुआ है। भारत के आदिवासियों पर भी यह धर्म लागू होता है परंतु कुछ मामलों में धारा 29 के अंतर्गत आदिवासियों को अपनी रूढ़ियों एवं प्रथाओं के अधीन कुछ मान्यताएं विशेष दी गई हैं।
कमलेश कुमार बनाम कन्नापुरम ग्राम पंचायत 1998 (1) सिविल लॉ जर्नल 409 केरल के मामले में यह तथ्य थे कि भारतीय मूल के निवासी एक बौद्ध धर्म के व्यक्ति ने जो जापानी कंपनी में कार्यरत था, जापानी औरत के साथ जापान में रह रहा था। उसके साथ विवाह संस्कार संपन्न हुआ और विवाह नैयर समुदाय के अनुरूप संपन्न कराया। इस मामले में यह अभिनिश्चित किया गया कि पत्नी धारा 2(2) के अंतर्गत आवेदन करने हेतु एक हिंदू मानी जा सकती है।
यह अधिनियम आर्य समाज पर भी लागू होता है। यदि कोई व्यक्ति आर्य समाज के रीति-रिवाजों के अंतर्गत विवाह करता है तो भी हिंदू विवाह अधिनियम 1955 उस पर अधिनियमित होगा।
राजगोपाल बनाम अरुमुगम एआईआर 1969 सुप्रीम कोर्ट (101) इस प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि यदि कोई ईसाई लड़की धर्म परिवर्तन करके हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार किसी हिंदू पुरुष से विवाह करती है और स्थानीय हिंदू समुदाय उसे हिंदू मान लेता है तो लड़की हिंदू धर्म में परिवर्तित मानी जाएगी। भले ही उसकी कोई औपचारिक शुद्धि नहीं हुई हो।
हिंदू धर्म धर्मपरिवर्तन के माध्यम से धर्म में आए लोगों की कोई औपचारिक शुद्धि की व्यवस्था नहीं करता है तथा इसके लिए कोई औपचारिक शुद्धि की कोई आवश्यकता भी नहीं है। इस प्रकार के प्रकरण में हिंदू विवाह अधिनियम ही लागू होगा।
प्रिंसिपल गुंटुर मेडिकल कॉलेज बनाम मोहन राव एआईआर 1976 सुप्रीम कोर्ट 1904 के प्रकरण में यह अभिनिश्चित हुआ कि यह अधिनियम ऐसे मामलों में भी लागू होता है, जिसमें किसी व्यक्ति का जन्म उसके माता-पिता द्वारा अपना धर्म परिवर्तन करने के पश्चात होता है तथा वह बाद में पुनः हिन्दू धर्म अपना लेता है।
जो व्यक्ति हिंदू धर्म छोड़कर अन्य धर्म अंगीकार कर लेता है उस व्यक्ति पर हिंदू विधि लागू नहीं होती है क्योंकि तब वह उस धर्म से संबंधित पर्सनल लॉ के शासन में आ जाता है।
नीता कृति देसाई बनाम बीनो सैमुअल जॉर्ज एआईआर 1998 मुंबई 74 के प्रकरण में पति जो जन्मतः ईसाई था उसने धोखा देकर विवाह किया। यह वादा किया कि वह हिंदू धर्म को स्वीकार कर लेगा। विवाह उपरांत उसने ऐसा नहीं किया। ऐसी स्थिति में जब दोनों पक्षकार हिंदू नहीं थे तो हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 2 इस मामले में लागू नहीं होगी और विवाह शून्य घोषित नहीं होगा।
सूरजमणि स्टेला कुज़र बनाम दुर्गाचरण हंसधा एआईआर 2001 सुप्रीम कोर्ट 998 के प्रकरण में न्यायालय द्वारा अभिनिश्चित किया गया कि जब अनुसूचित आदिम जाति के सदस्यों के बीच विवाह होता है तो उनका विवाह उनके मध्य प्रभावी रूढ़ि तथा प्रथा द्वारा शासित होता है न कि हिंदू विवाह अधिनियम 1955 द्वारा।
इसी प्रकार जब उन पक्षकारों में से किसी के द्विविवाह किया जाता है तो उनके विवाह को शून्य घोषित करने के लिए किसी प्रभावी रूढ़ि या प्रथा का अभिवचन ही नहीं रूढ़ि के अस्तित्व को भी सिद्ध करना होगा जिसके अनुसार दूसरा विवाह शून्य है। यदि आदिवासी की प्रथा और रूढ़ि में दूसरा विवाह मान्य है तो हिन्दू विवाह अधिनियम के अंतर्गत उसे मान्यता दी जाएगी।
यह अधिनियम भारत के आदिवासी हिंदुओं पर लागू होता है, परंतु इस अधिनियम के अंतर्गत उन आदिवासियों को रूढ़ियों और प्रथाओं के अधीन कुछ मान्यताएं दी गई है। उन्हें यह रूढ़िए और प्रथाएं सिद्ध करना होती है।
यदि कोई विवाह विशेष विवाह अधिनियम 1954 के अधीन हुआ है तो ऐसी परिस्थिति में विशेष विवाह अधिनियम लागू होता है परंतु यदि विशेष विवाह अधिनियम1954 के अंतर्गत हुए किसी विवाह से कोई संतान उत्पन्न होती है और वह संतान हिंदू होती है तो उस संतान पर हिंदू विवाह अधिनियम 1955 लागू होगा। यह हिंदुओं की धर्मज और अधर्मज दोनों प्रकार की संतानों पर लागू होता है।
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अधीन परिभाषाएं
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 3 के अनुसार इस अधिनियम में प्रयुक्त होने वाले शब्दों की परिभाषाएं दी गई है। इन परिभाषाओं से उन शब्दों के संबंध में कोई संशय नहीं रहता है तथा सभी स्थितियां स्पष्ट हो जाती है। इन परिभाषाओं में कुछ विशेष शब्दों का अग्रलिखित उल्लेख किया जा रहा है-
रूढ़ि और प्रथा
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 3 के अनुसार रूढ़ि और प्रथा शब्द की परिभाषाएं दी गयी है। यदि किसी मामले में पारिवारिक रूढ़ि का सहारा लिया जाता है तो उसे सिद्ध भी किया जाएगा। रूढ़ि को सबूतों द्वारा सिद्ध किया जा सकता है। इसके विभिन्न तत्व होते हैं। जैसे रूढ़ि और प्रथा अवैधानिक एवं लोकनीति के विरुद्ध न हो तथा उसका प्रचलन किसी जाति में आदिकाल से बिना किसी व्यवधान के हो तथा सबको मान्य हो तभी रूढ़ि को विधि की मान्यता प्राप्त होती है। रूढ़ि का सतत जारी रहना प्रमाणित करना आवश्यक है। रूढ़ियाँ लंबे समय से प्रचलित है और उसको लगातार पालन किया जा रहा है ऐसी परिस्थिति में रूढ़ि और प्रथाओं को मान्यता दी जाती है।
हरिप्रसाद सिंह बनाम बाल्मीकि प्रसाद सिंह एआईआर 1975 सुप्रीम कोर्ट 733 का एक प्रकरण उल्लेखनीय है। पति पत्नी माने जाने के लिए कुछ कर्म या अनुष्ठान का निर्वाह कर देना विवाह संपन्न कर देने के लिए पर्याप्त नहीं किंतु रूढ़ि या प्रथा का सिद्ध किया जाना और उसके अनुसार कर्म किया जाना सिद्ध किया जाना चाहिए।
रूढ़ि और प्रथा शब्द एक ऐसे नियम की ओर संकेत करता है जिसका एक लंबे समय से लगातार समानता पूर्वक अभ्यास किए जाने के परिणामस्वरूप उसे एक कानून का बल प्राप्त हो चुका है। विधिक दृष्टिकोण से उन्हीं रूढ़ियों को वैधता प्रदान की गई है जो युक्तियुक्त और कानूनी विधि के प्रतिकूल नहीं है और जिन्हें बिना किसी प्रतिबंध के आमतौर पर माना जाता है और जिनका अतिप्राचीन काल से लोगों के द्वारा अनुसरण किया जा रहा है।
पूर्णरक्त और अर्द्धरक्त- (Full blood and Half blood)
किसी एक ही पूर्वज से एक ही पत्नी द्वारा पैदा हुई संताने एक दूसरे के पूर्ण रक्त संबंधित कहे जाते हैं और एक ही पूर्वज से किंतु भिन्न-भिन्न पत्नियों के द्वारा पैदा हुए व्यक्ति एक दूसरे से अर्ध रक्त से संबंधित कहे जाते हैं।
जैसे किसी हिंदू पुरुष की दो पत्नियां है। इन दो पत्नियों से तीन संताने होती हैं। पहली पत्नी से राम और श्याम का जन्म होता है तथा दूसरी पत्नी से घनश्याम का जन्म होता है। ऐसी परिस्थिति में राम और श्याम तो पूर्ण रक्त होंगे परंतु घनश्याम और राम अर्द्ध रक्त होंगे।
एकोदर रक्त
जब कोई संताने एक ही मां और अलग-अलग पिता से जन्म लेती है ऐसी संताने आपस में एकोदर रक्त से संबंधित कहीं जाती है। एक उदर का अर्थ होता है एक ही उदर अर्थात पेट से पैदा होने वाले। इस परिस्थिति में कोई हिंदू स्त्री किन्ही संतानों को जन्म देती है यदि उन संतानों के पिता अलग अलग हो तो ऐसी संताने एकोदर रक्त से संबंधित मानी जाती है।
कभी-कभी यह परिस्थितियां होती है कि हिंदू स्त्रियां पूर्व पति से तलाक हो जाने या फिर उसकी मृत्यु के पश्चात किसी अन्य पुरुष से विवाह करती हैं। वहां संतानों की उत्पत्ति भी होती है तथा संतानों के पिता अलग अलग हो जाते हैं। अब इन संतानों के बीच में जो रिश्ता होगा वह एकोदर रक्त संबंध कहलाएगा। हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 3 में इस शब्द की परिभाषा प्रस्तुत की गई है।
सपिंड नातेदारी (Sapinda Relationship)
हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत सपिंड नातेदारी का अधिक महत्व है। विवाह के पश्चात एक दूसरे से सपिंड नहीं होना आवश्यक शर्त होती है। हिंदू शास्त्रों के अनुसार 3 वस्तुओं में सपिंड संबंध का अत्यंत महत्व है- विवाह, उत्तराधिकार तथा जन्म व मृत्यु पर अशौच।
विवाह के लिए पक्षों की पारिवारिक दूरी तथा उत्तराधिकार के लिए उत्तराधिकारी का निर्णय संबंध से होता है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में सपिंड शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। इस शब्द का महत्व केवल वैवाहिक क्षेत्र में वर्णित है। हिंदू विधि के अंतर्गत सपिंड का अर्थ है वह व्यक्ति जो पिंडदान करने की क्षमता रखते हो।
रामचंद्र बनाम विनायक एआईआर 1914 के पुराने प्रकरण में इस संबंध में विस्तृत व्याख्या की गई है। पति पत्नी को एक विशेष शरीर माना गया है, इसलिए यह भी सपिंड है। सपिंड नातेदारी को परिभाषित करते हुए न्यायालय द्वारा निर्णय किया गया कि यह अपने पूर्वज अपनी पीढ़ी से नीचे पीढ़ी को शरीर के अवयव के आने के कारण सपिंड नातेदारी होती है।
हिंदू विधि के अंतर्गत प्रतिषिद्ध तथा सपिंड संबंधों में विवाह की अनुमति न देने का एक तार्किक और वैज्ञानिक कारण शरीर विज्ञान के अनुसार रक्त से निकट संबंधियों में विवाह होने से संतान कमज़ोर तथा बीमार होती है। भारत में सामाजिक रूप से भी यह माना गया है कि जिन लोगों में आपसी मेल मिलाप हो उन लोगों में विवाह उचित नहीं है।
वर्तमान हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 3(4) सपिंड के अंतर्गत सपिंड की गणना को पिता की ओर से पांच(5) तथा माता की ओर से तीन पीढ़ी निश्चित करता है। सपिंड रिलेशनशिप को वर्तमान हिंदू विधि के अंतर्गत भी मान्यता दी गई है। पिता की ओर से पांच पीढ़ियों तक के किसी व्यक्ति से विवाह शून्य होता है तथा माता की ओर से ऐसा 3 पीढ़ियों तक होता है।
धारा 3 (च) के अनुसार सपिंड सीमाओं के भीतर सहोदर, सोतेला, सगा संबंधी भी शामिल है।
हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत धारा 18 के अधीन यदि कोई सपिंड के नियम का उल्लंघन करता है और विवाह करता है तो 1 माह के साधारण कारावास और ₹1000 तक के जुर्माने दोनों से दंडित किया जा सकता है। सपिंड विवाह को कठोरता के साथ अपराध बनाया है, इससे यह भी तय होता है कि हिन्दू विवाह की प्रकृति अब भी संस्कार है क्योंकि सपिंड विवाह को अपराध के रूप में उपबंधित किया गया है।
प्रतिशत नातेदारी की डिग्रियां- (Prohibited degree of kinship)
अधिनियम की धारा 3 के अनुसार प्रतिषिद्ध नातेदारी की परिभाषा देते हुए अधिनियमित किया गया है कि विवाह के पक्षकार को प्रतिषिद्ध संबंध में स्थित नहीं होना चाहिए। दो व्यक्ति प्रतिषिद्ध नातेदारी के अंतर्गत तब कहे जाते हैं जब यदि उनमें से दूसरे का पारस्परिक पूर्व पुरुष हो। यदि एक उनमें से दूसरे के पारस्परिक पूर्व पुरुष या महिला की पत्नी या पति रहा हो, यदि एक उनमें से दूसरे के भाई की या पिता अथवा माता के भाई की या पितामह अथवा पितामह के भाई की या मातामह या मातामह के भाई की पत्नी रही हो, यदि भाई और बहन ताया चाचा और भतीजी मामी और भांजी फूफी और भतीजा मौसी और भांजा भाई बहन के बच्चे हैं भाई भाई के बच्चे अथवा बहन बहन के बच्चे हैं तो यह प्रतिषिद्ध नातेदारी होगी।
लेकिन यदि दोनों पक्षकारों में कोई ऐसी प्रथा है जो ऐसे संबंधों में भी विवाह की अनुमति देती है तो उनमे विवाह हो सकता है। यदि ऐसी प्रथा केवल एक ही पक्ष में हो तो विवाह नहीं हो सकता। इसी प्रथा वैध होनी चाहिए अर्थात धारा 3 (क) प्रथा और रूढ़ि की आवश्यकता है वह पूरी होनी चाहिए। इस संबंध में बाबू स्वामी बनाम बालकृष्ण एआईआर 1956 मद्रास का मामला उल्लेखनीय है।
प्रतिषिद्ध नातेदारी से केवल इतना समझ लिया जाए कि किसी भी निकट के संबंधियों में हिन्दू विवाह संपन्न नहीं होगा।