क्या सरकार ने भारत से मैला ढोने की प्रथा समाप्त करने के अपने संवैधानिक कर्तव्य को निभाया है?

Himanshu Mishra

10 July 2025 12:50 PM

  • क्या सरकार ने भारत से मैला ढोने की प्रथा समाप्त करने के अपने संवैधानिक कर्तव्य को निभाया है?

    डॉ. बलराम सिंह बनाम भारत संघ (2023) में सुप्रीम कोर्ट ने यह गंभीर प्रश्न उठाया कि क्या भारत सरकार और उसकी एजेंसियां मैला ढोने (Manual Scavenging) की अमानवीय प्रथा को खत्म करने और इससे जुड़े लोगों के पुनर्वास (Rehabilitation) की संवैधानिक और कानूनी जिम्मेदारी को सही तरीके से निभा रही हैं? कोर्ट ने इस केस में 2013 के कानून – Prohibition of Employment as Manual Scavengers and their Rehabilitation Act, 2013 – के प्रभावी क्रियान्वयन और उससे जुड़े अधिकारों के उल्लंघन पर विस्तार से विचार किया।

    यह फैसला संविधान के अनुच्छेद 14 (Equality), 15 (Non-discrimination), 17 (Abolition of Untouchability), 21 (Right to Life with Dignity), और 23 (Prohibition of Forced Labour) जैसे महत्वपूर्ण प्रावधानों पर आधारित था।

    संविधान में समावेशी अधिकारों की संरचना (Constitutional Framework and the Emancipatory Code)

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 15, 17, 21 और 23 केवल सामान्य कानूनी प्रावधान नहीं हैं, बल्कि इन्हें 'Emancipatory Code' यानी समाज के उत्पीड़ित वर्गों को मुक्त करने वाले संवैधानिक वचनों (Constitutional Promises) के रूप में समझा जाना चाहिए। अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता को समाप्त करता है, अनुच्छेद 23 जबरन श्रम पर रोक लगाता है और अनुच्छेद 21 गरिमामय जीवन का अधिकार देता है।

    कोर्ट ने Safai Karamchari Andolan v. Union of India (2014) के फैसले को दोहराया, जिसमें यह माना गया था कि नालों और सीवर की सफाई में मौतें और मैला ढोने की प्रथा मानव गरिमा का निरंतर उल्लंघन हैं और सरकार इन मामलों में मुआवजा और पुनर्वास देने की जिम्मेदार है।

    2013 का अधिनियम: निषेध से पुनर्वास तक (The 2013 Act: From Prohibition to Rehabilitation)

    Prohibition of Employment as Manual Scavengers and their Rehabilitation Act, 2013 मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने और इससे जुड़े लोगों के सामाजिक और आर्थिक पुनर्वास के लिए बनाया गया कानून है। यह 1993 के पुराने कानून की जगह लेकर आया और इसमें कई नई व्यवस्थाएं जोड़ी गईं जैसे:

    1. घर-घर जाकर सर्वे करके मैला ढोने वालों की पहचान (Section 11 – Identification through Survey)

    2. उन्हें इस प्रथा से मुक्त करने की घोषणा (Section 6 – Declaration of Release)

    3. पुनर्वास के लिए नकद सहायता, आवास, शिक्षा और रोजगार योजनाएं (Sections 13–16 – Rehabilitation Measures)

    4. निगरानी समितियों की स्थापना (Monitoring Committees)

    कोर्ट ने कहा कि यह कानून केवल रोक लगाने के लिए नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन और न्याय के लिए लाया गया है।

    सर्वेक्षणों में गंभीर खामियाँ और लाभ से वंचित लोग (Failure to Conduct Valid Surveys and Denial of Benefits)

    धारा 11 के तहत किए जाने वाले सर्वे (Survey) के बिना किसी भी व्यक्ति को कानून के तहत पुनर्वास का लाभ नहीं दिया जा सकता। 2013 और 2018 में किए गए सर्वेक्षण पूरी तरह त्रुटिपूर्ण पाए गए।

    कोर्ट ने कहा कि Rule 11 के तहत जो प्रक्रियाएँ तय हैं – जैसे घर-घर जाकर जानकारी लेना, सार्वजनिक सुनवाई करना, आपत्तियाँ आमंत्रित करना – वे लागू नहीं की गईं। राज्य और ज़िला स्तर की सर्वे समितियाँ (Survey Committees) या तो बनी ही नहीं थीं या फिर निष्क्रिय थीं।

    राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग (NCSK) और अन्य एजेंसियों ने जो आंकड़े दिए, वे भी साफ दिखाते हैं कि पूरे देश में सही और सटीक डेटा (Data) की भारी कमी है।

    सीवर की सफाई और मौतें: एक चलती हुई त्रासदी (Sewer Cleaning and Deaths: A Continuing Tragedy)

    कोर्ट ने कहा कि Hazardous Cleaning यानी बिना उचित सुरक्षा उपायों के सीवर या सेप्टिक टैंक की सफाई, आज भी कई जगह जारी है, जो कि कानून की सीधी अवहेलना है।

    धारा 7 और 9 के अनुसार ऐसी सफाई पूरी तरह प्रतिबंधित (Prohibited) है। फिर भी यदि कोई सफाई कर्मचारी इस कार्य में मरता है, तो कोर्ट ने पहले Safai Karamchari Andolan केस में ₹10 लाख मुआवजे की व्यवस्था दी थी, जिसे इस फैसले में भी दोहराया गया।

    कोर्ट ने यह भी कहा कि सिर्फ दस्ताने या बूट जैसे सतही सुरक्षा उपकरण इस अमानवीय काम को वैध नहीं बना सकते। People's Union for Democratic Rights v. Union of India (1982) और Sanjit Roy v. State of Rajasthan (1983) में कहा गया था कि ऐसा श्रम, जिसमें व्यक्ति को विकल्प नहीं मिलता, Forced Labour (जबरन श्रम) की श्रेणी में आता है, चाहे उसे कुछ पैसे मिलें या नहीं।

    संस्थागत विफलताएँ और निगरानी की कमी (Institutional Breakdown and Monitoring Failures)

    कोर्ट ने गंभीर चिंता जताई कि जिन संस्थाओं को इस कानून को लागू करना था, वे या तो निष्क्रिय थीं या अस्तित्व में ही नहीं थीं।

    उदाहरण के लिए, केंद्रीय निगरानी समिति (Central Monitoring Committee – CMC) को हर 6 महीने में बैठक करनी होती है लेकिन 9 वर्षों में केवल 7 बैठकें हुईं। कई राज्यों में राज्य निगरानी समितियाँ (State Monitoring Committees – SMCs) या ज़िला सतर्कता समितियाँ (District Vigilance Committees – DVCs) बनाई ही नहीं गईं।

    NCSK, जो सफाई कर्मचारियों के अधिकारों की निगरानी करती है, भी एक गैर-वैधानिक संस्था (Non-Statutory Body) बन गई है और उसमें कर्मचारियों की भारी कमी है।

    धारा 11 की व्याख्या और केंद्र की भूमिका (Interpretation of Section 11 and Role of the Union Government)

    सरकार ने यह तर्क दिया कि कानून केवल स्थानीय निकायों को सर्वे करने को कहता है, न कि पूरे देश में एकसमान सर्वे करने को। सुप्रीम कोर्ट ने इस व्याख्या को खारिज करते हुए कहा कि इस प्रकार के Purposive Legislation (उद्देश्यपूर्ण कानून) को व्यापक रूप से पढ़ा जाना चाहिए।

    कोर्ट ने Swaraj Abhiyan v. Union of India (2016) के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि अगर केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर प्रभावी रूप से कानून लागू नहीं करतीं, तो यह एक Constitutional Crisis (संवैधानिक संकट) बन सकता है।

    इसलिए केंद्र सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह सभी राज्यों को स्पष्ट दिशा-निर्देश दे, एकरूपता बनाए और निगरानी संस्थाओं को सक्रिय रखे।

    गरिमा और बंधुत्व का अधिकार: निर्णय का नैतिक मूल (Right to Dignity and Fraternity: The Moral Core of the Judgment)

    कोर्ट ने दोहराया कि 2013 का कानून केवल निषेध नहीं बल्कि सम्मान और पुनर्वास की संवैधानिक गारंटी है। संविधान की प्रस्तावना (Preamble) में उल्लिखित Fraternity (बंधुत्व) को साकार करने का यही रास्ता है।

    कोर्ट ने कहा कि पुनर्वास कोई दया नहीं है बल्कि एक संवैधानिक अधिकार (Constitutional Right) है। धारा 6(2) के तहत जो घोषणा होती है कि कोई व्यक्ति अब मैला नहीं उठाएगा, वह सिर्फ कानूनी नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन का प्रतीक है।

    कोर्ट ने यह भी कहा कि जो वैधानिक अपवाद (Statutory Exceptions) दिये गए हैं, जैसे कि सुरक्षा उपकरणों के साथ सफाई, उन्हें बहुत संकीर्ण अर्थ में पढ़ा जाना चाहिए और पूरी तरह मशीनीकरण (Mechanization) को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

    डॉ. बलराम सिंह बनाम भारत संघ का फैसला भारतीय संविधान की सामाजिक न्याय (Social Justice) की भावना को सशक्त करता है। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि न तो सर्वेक्षण सही से हुए, न ही पुनर्वास की प्रक्रिया चली, और न ही निगरानी संस्थाएं प्रभावी रहीं।

    कोर्ट ने सभी सरकारों को निर्देश दिया कि वे नए सिरे से वैध सर्वेक्षण करें, पुनर्वास के सभी प्रावधान लागू करें और सभी निगरानी संस्थाओं को सक्रिय करें।

    यह निर्णय स्पष्ट करता है कि मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करना केवल एक कानूनी आवश्यकता नहीं बल्कि एक संवैधानिक कर्तव्य (Constitutional Duty) है। अब देरी की कोई गुंजाइश नहीं बची है। यह एक नैतिक, सामाजिक और संवैधानिक सवाल है – जिसे अब पूरी ईमानदारी से हल किया जाना चाहिए।

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