Hindu Marriage Act में किसी भी विवाह के Voidable होने के लिए आधार
Shadab Salim
22 July 2025 10:12 AM IST

Hindu Marriage Act 1955 के अधीन किसी विवाह को Voidable विवाह घोषित किए जाने के लिए चार आधार दिए गए हैं। अधिनियम की धारा 12 के अनुसार यह चार आधार निम्न है-
प्रत्यर्थी पति या पत्नी की नपुंसकता के कारण विवाह के पश्चात संभोग नहीं होना-
विवाह इस अधिनियम की धारा 5 के खंड (2) में विनिर्दिष्ट शर्तों का उल्लंघन करता है-
आवेदक याचिकाकर्ता की सम्मति बल प्रयोग द्वारा या कर्मकांड की प्रकृति के बारे में इत्यादि से संबंधित किसी तात्विक तथ्य या परिस्थिति के बारे में कपट द्वारा अभिप्राप्त की गई है-
प्रत्यर्थी पत्नी विवाह के समय आवेदक पति से भिन्न किसी अन्य व्यक्ति द्वारा गर्भवती थी-
ऊपर वर्णित इन 4 कारणों के आधार पर किसी विवाह को शून्यकरणीय विवाह कोर्ट द्वारा घोषित किया जा सकता है। अधिनियम के अनुसार यह चार कारण छल और कपट में अंतर्निहित है, यदि इन कारणों पर सूक्ष्म विश्लेषण किया जाए तो इनके भीतर छल और कपट का समावेश प्राप्त होगा।
पति या पत्नी का नपुंसक होना-
हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 12 (1) (क) के अनुसार विवाह का कोई पक्षकार विवाह के किसी पक्षकार के नपुंसक होने पर संभोग नहीं होने के कारण विवाह के शून्यकरणीय घोषित किए जाने हेतु डिक्री प्राप्त कर सकता है। विवाह के पश्चात संभोग नहीं हुआ प्रत्यर्थी की नपुंसकता के कारण असंभोग की स्थिति बनी थी।
यह तत्व महत्वहीन है कि प्रत्यर्थी विवाह से पूर्व विवाह या विवाह के पश्चात नपुंसक था। नपुंसकता किस समय उत्पन्न हुई ज्यादा प्रासंगिक है। नपुंसकता के संबंध में विभिन्न न्यायिक दृष्टांत में व्याख्या की गई है।
लक्ष्मी बनाम बाबूलाल एआईआर 1973 राजस्थान 39 के प्रकरण में कहा है कि बांझपन या संतान उत्पत्ति हेतु क्षमता नहीं होना नपुंसकता के अर्थ में नहीं आती है। व्यक्ति की शारीरिक मानसिक स्थिति में भी संभोग में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
शारीरिक नपुंसकता उस अवस्था में होती है जब प्रजनन अंग का अभाव हो या अंग में कोई सी बीमारी हो जिसके कारण संभोग नहीं हो पा रहा है जबकि मानसिक नपुंसकता उसे कहते हैं जब अंग व्यवस्थित हो परंतु व्यक्ति मानसिक स्तर पर किसी के साथ संभोग नहीं कर पा रहा है।
कोई व्यक्ति संभोग करने में सक्षम होते हुए भी संतानोत्पत्ति में अयोग्य हो सकता है इसे नपुंसकता नहीं माना जाता है।
मोयना खोसला बनाम अमरदीप खोसला एआईआर 1986 दिल्ली 499 के प्रकरण में कहा गया कि जहां पति के समलैंगिक होने के कारण महिलाओं के साथ क्रियाशील हो पाना संभव नहीं है, सेक्स संभव नहीं हो पाता है तो ऐसी स्थिति में हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 12 उपधारा (1) के खंड (क) के अधीन पत्नी विवाह को अकृत करने की डिक्री प्राप्त करने की अधिकारी होगी।
विकृतचित्तता या पागलपन विवाह के शून्यकरणीय का आधार है-
पागलपन के आधार पर विवाह को शून्यकरणीय घोषित किया जा सकता है। हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 5 उपधारा 2 के खंड (ख) के अधीन किसी हिंदू विवाह के संदर्भ में जो शर्ते उल्लेख कि गई हैं उस शर्त में विवाह के किसी पक्षकार के पागल होने पर उस विवाह को शून्यकरणीय घोषित किया जा सकता है।
यदि कोई विवाह किसी पक्षकार के पागल रहते हुए संपन्न कर दिया है तो ऐसे विवाह को अधिनियम की धारा 12 उपधारा (1) के अधीन शून्यकरणीय घोषित किया जा सकेगा। पागल के अंतर्गत सहमति देने में असमर्थ था और विवाह और सन्तानोउत्पत्ति की अयोग्यता तथा मिर्गी के दौरे बार बार पड़ना पागलपन के लक्षण है। यदि कोई व्यक्ति पारस्परिक साहचर्य को समझ पाने में असमर्थ हो तो उसे जड़ या पागल माना जा सकता।
रत्नेश्वरी देवी जनाब भागवती एआईआर 1950 एस सी 142 के प्रकरण में कहा गया कि हिंदू विवाह एक संस्कार है। विवाह के सभी संस्कारों व समारोह के साथ वर वधु की स्वीकृति का संस्कार भी आवश्यक रूप से पूर्ण किया जाना चाहिए परंतु जब व्यक्ति की समझ एवं तर्कशीलता नष्ट हो जाती है तो वह कन्यादान को स्वीकृत करने में असमर्थ हो जाता है।
ऐसे दिमाग को सही नहीं माना जा सकता। यह भी उल्लेखनीय है कि चिकित्सकीय विकृतचित्तता और विधिक विकृतचित्तता भिन्न है। चिकित्सय विधिशास्त्र के अनुसार साधारण मानसिक विकार भी मानसिक विकृतचित्तता का परिचायक है पर विधि क्षेत्र में विवाहित कर्तव्यों का भाव मानसिक विकृतचित्तता मानी जा सकती। जब पक्षकार विवाह के भाव को ही नहीं समझ पाए उसे उस समय पागल माना जायेगा।
अलका शर्मा बनाम अविनाश चंद्र शर्मा हिंदू ला 335 के प्रकरण में कहा गया कि मनोचिकित्सक द्वारा यह सिद्ध किया गया है कि पत्नी विवाह के पूर्व से ही मानसिक विकार से पीड़ित थी अतः पति विवाह की अकृतता की डिक्री हेतु अधिकारी है।
सरला बनाम कोमल 1992 मध्यप्रदेश लॉ जर्नल 276 में पत्नी इस आधार पर से सहवास करने में असमर्थ थी कि वह हृदय रोग से ग्रसित थी। प्रकरण में कपट या बाध्यता दर्शित करने के संदर्भ में अभिवचन नहीं था। विलंब से याचिका को प्रस्तुत की गई थी। इन सब तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए याचिकाकर्ता को वांछित अनुतोष अस्वीकृत किया गया।
कपट के अधीन बल और छल से सहमति प्राप्त करना-
यदि कपट के आधार पर विवाह के किसी पक्षकार से सहमति प्राप्त की गई है तो इस आधार पर अधिनियम की धारा 12 के अनुसार विवाह को शून्यकरणीय करार दिया गया है तथा कोर्ट में याचिका के माध्यम से ऐसे विवाह के विरुद्ध अकृतता की डिक्री प्राप्त की जा सकती है।
पत्नी का विवाह के पूर्व किसी अन्य व्यक्ति से गर्भवती होना-
हिंदू मैरिज एक्ट 1955 की धारा 12 के अनुसार एक हिंदू पुरुष को अधिकार दिया गया है कि यदि उसकी पत्नी विवाह के पूर्व किसी अन्य पुरुष से गर्भवती थी तो ऐसी स्थिति में विवाह को शून्यकरणीय घोषित किया जा सकता है। गर्भ का विवाह के समय अस्तित्व होना प्रमाणित किया जाना चाहिए। जब पत्नी विवाह के पूर्व किसी समय गर्भवती हुई थी लेकिन विवाह के समय ऐसा गर्भ न हो तो पति की याचिका स्वीकार नहीं होगी।
श्रीमती मंजू बनाम प्रेम कुमार 1982 आरएलआर 628 के मामले में जब पक्षकारों का विवाह अनुष्ठापित हो रहा था तब पत्नी प्रार्थी के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति से गर्भ धारण किए हुई थी। प्रार्थी पति ने इस महत्वपूर्ण तथ्य को नजरअंदाज करते हुए विवाह संपन्न होने दिया लेकिन विवाह के पश्चात पति ने वैवाहिक संभोग नहीं किया। पति द्वारा विवाह के 1 वर्ष पश्चात विवाह को शून्यकरणीय करने की प्रार्थना की गई जो स्वीकार हुई।
पत्नी के किसी अन्य व्यक्ति से गर्भवती होने के कारण विवाह को अकृत घोषित करवाने हेतु कोर्ट के समक्ष डिक्री प्राप्त करने का अधिकार पति को व्यभिचारिणी पत्नी से बचाता है। किसी व्यक्ति के पास यह अधिकार है कि यदि वह पवित्र है तो उसे भी पवित्र पत्नी प्राप्त हो। यदि उसकी पत्नी ने उससे कपट करके विवाह किया है और अपनी गर्भवती होने की जानकारी नहीं दी है तो ऐसी परिस्थिति में पति को यह अधिकार प्राप्त है कि वैसे विवाह को कोर्ट की शरण में जाकर समाप्त करवा दे।

