Hindu Marriage Act में मैरिज के लिए पूर्व पति या पत्नी का जीवित नहीं होना और पक्षकारों की मानसिक स्थिति का ठीक होना

Shadab Salim

15 July 2025 10:21 AM IST

  • Hindu Marriage Act में मैरिज के लिए पूर्व पति या पत्नी का जीवित नहीं होना और पक्षकारों की मानसिक स्थिति का ठीक होना

    हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 के अंतर्गत यह महत्वपूर्ण शर्त अधिरोपित की गई है कि हिंदू विवाह तभी संपन्न होगा जब विवाह के समय दोनों पक्षकारों में से न तो वर कि कोई पत्नी जीवित होगी और न ही वधू का कोई पति जीवित होगा। प्राचीन शास्त्रीय हिंदू विवाह बहुपत्नी को मान्यता देता था परंतु आधुनिक हिंदू विवाह अधिनियम 1955 बहुपत्नी का उन्मूलन करता है।

    लीला गुप्ता बनाम लक्ष्मी नारायण 1978 (3) सुप्रीम कोर्ट 558 के मामले में कहा गया है कि दांपत्य युगल शब्द से आशय पूर्व दांपत्य युगल से नहीं है यदि वर या वधू की पत्नी या पति जीवित नहीं है तो उन्हें पुनर्विवाह करने से वर्जित नहीं किया जा सकता है। एक कुंवारा व्यक्ति जिसने विवाह के समय तक विवाह न किया हो एक विधवा यह विधुर या विवाह विच्छेद के उपरांत ऐसा व्यक्ति विवाह विधिक रुप से रचा सकता है यदि अन्य सभी विनिर्दिष्ट शर्तों का पालन किया गया जाए।

    हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 के अधीन जिस एक पत्नी के सिद्धांत का पालन किया गया है उसकी संवैधानिक वैधता पर प्रश्न आए थे। रामप्रसाद सेठ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एआईआर 1961 इलाहाबाद 334 में प्रार्थी ने कहा कि उसकी स्त्री से उसे कोई पुत्र नहीं हुआ है, उसे हिंदू धर्म के अनुसार परलोक सुख के लिए पुत्र होना अनिवार्य है क्योंकि मृत्यु के उपरांत सभी अनुष्ठान पुत्र के द्वारा किए जाते हैं तथा पुत्र हिंदू धर्म के अधीन नर्क से मुक्ति का कारण बनता है। अतः वह पुत्र प्राप्ति के लिए दूसरा विवाह करना चाहता है परंतु हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 5 उसे इस प्रकार के विवाह करने से रोकती है। यह रोक संविधान के अनुच्छेद 25 (1)के द्वारा प्रदत्त उसके धार्मिक स्वतंत्रता के मूल अधिकार का उल्लंघन करती है।

    कोर्ट ने कहा कि पुत्र लाभ के लिए प्रार्थी दूसरा विवाह करना चाहता है जो कि हिंदू विधि के अधीन आवश्यक नहीं है क्योंकि हिंदू विधि दत्तक पुत्र को औरस पुत्र की भांति ही सभी अनुष्ठान किए जाने की अधिकारिता प्रदान करती है तथा कोई औरस पुत्र भी किसी व्यक्ति के लिए नरक से मुक्ति का प्रदाता बन सकता है। हिंदू दत्तक ग्रहण अधिनियम 1956 के अधीन प्रार्थी दत्तक ग्रहण कर सकता है इसके लिए दूसरा विवाह किए जाने की कोई आवश्यकता नहीं।

    कोर्ट के इस निर्णय ने उन हिंदू स्त्रियों के अधिकारों की रक्षा की है जो स्त्रियां किसी शारीरिक दुर्बलता के कारण संतान को जन्म नहीं दे पाती है। इस निर्णय ने आधुनिक हिंदू विधि को समृद्ध किया है।

    श्रीमती जमुना बाई अंतरराव माधव बनाम अंतरराव शिवराम एआईआर 1988 सुप्रीम कोर्ट 644 के प्रकरण में हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 5 के खंड (1) की व्याख्या करते हुए यह कहा है कि विवाह के समय वर या वधू की कोई पति या पत्नी जीवित नहीं होना चाहिए।

    विवाह के लिए पक्षकारों की मानसिक स्थिति

    विवाह का संबंध पति और पत्नी के समक्ष अनेक अधिकारों और दायित्व को उत्पन्न करता है। ऐसी स्थिति में विवाह के पक्षकारों की मानसिक स्थिति संतुलित होना चाहिए। वर्तमान अधिनियम की धारा 5 के उपखंड (2) के अनुसार विवाह के लिए यह शर्त अधिरोपित की गई है कि विवाह के समय पक्षकारों की मानसिक स्थिति विवाह की प्रकृति और परिणामों को समझने के योग्य हो।

    धारा 5 का खंड 2 विवाह विधि संशोधन अधिनियम 1976 के द्वारा बदला गया है। इस अधिनियम में यह प्रावधान है कि विवाह के समय दोनों पक्षकारों में से कोई पक्षकार चित्त विकृति के कारण विधिमान्य सम्मति देने में असमर्थ न हो। इस प्रकार के या इस सीमा तक मानसिक विकार से ग्रस्त न हो कि वह विवाह और संतान उत्पत्ति के अयोग्य हो। उसे बार-बार उन्मत्तता का दौरा न पड़ता हो। इस प्रावधान का यह अर्थ है कि विवाह के पक्षकार पागल जड़बुद्धि मनबुद्धि नहीं हो।

    यदि पागलपन के आधार पर विवाह को शून्य की डिग्री की मांग की गई है तथा ऐसे विवाह को बातिल करार दिए जाने की मांग की गई है तो पागलपन को सिद्ध करने का भार ऐसी मांग करने वाले याचिकाकर्ता पर होगा। सुप्रीम कोर्ट ने राम नारायण गुप्ता बनाम रामेश्वरी गुप्ता एआईआर 1988 सुप्रीम कोर्ट 2226 के वाद में उल्लेख किया है कि यदि पागलपन विवाह के संपन्न होने के पश्चात उत्पन्न होता है तो ऐसी दशा में विवाह बातिल नहीं समझा जाएगा। विधि की अवधारणा यह है कि प्रत्येक व्यक्ति मानसिक रूप से स्वस्थ है उसमें दांपत्य सूत्र में बनने की योग्यता है।

    इस प्रकरण के बाद सतीश चंद्र बनाम यूनियन ऑफ इंडिया 1987 के प्रकरण में कहा गया कि यदि पागल व्यक्ति का विवाह कर दिया गया हो तो विवाह विच्छेद की कार्यवाही की जा सकेगी क्योंकि इस अधिनियम के उपबंधों के अनुसार अस्वस्थ मस्तिष्क का व्यक्ति विधिमान्य रूप से विवाह नहीं कर सकता है।

    हिंदू विवाह अधिनियम विवाह की सहमति हेतु तो कोई प्रावधान नहीं करता है लेकिन इस विवाह के अनुष्ठान किए जाने के लिए विवाह के पक्षकारों की सहमति होना अनिवार्य है। धारा 12 के अंतर्गत कपट के आधार पर प्राप्त की गई सहमति से संबंध हुए विवाह को शुन्यकरणीय घोषित किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त उस स्थिति में भी उसे विवाह के लिए उपयुक्त पक्षकार नहीं माना जा सकता जब वह उस सीमा तक मानसिक बीमारी से पीड़ित है कि उसे विवाह तथा संतान पैदा करने के योग्य भी नहीं माना जा सकता।

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