एक्सप्लेनर: ट्रांजिट एंटीसिपेटरी बेल 'क्या है? 'ट्रांजिट बेल' कब दी जा सकती है?

LiveLaw News Network

22 Feb 2021 4:21 AM GMT

  • एक्सप्लेनर: ट्रांजिट एंटीसिपेटरी बेल क्या है? ट्रांजिट बेल कब दी जा सकती है?

    'टूलकिट' मामले के मद्देनजर हाल ही में "ट्रांजिट बेल" और "ट्रांजिट एंटीसिपेटरी बेल" जैसे शब्दों ने ध्यान आकर्षित किया है।

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने पिछले हफ्ते शांतनु मुलुक को 10 दिन के ‌लिए एंटीसिपेटरी बेल दी थी, जिनकी गिरफ्तारी की मांग दिल्ली पुलिस ने टूलकिट मामले में की थी। इसके बाद, मुंबई स्थित वकील निकिता जैकब को भी इस मामले में तीन सप्ताह की एंटीसिपेटरी बेल दी गई।

    इस आलेख में "ट्राजिंट एंटीसिपेटरी बेल" या "ट्राजिंट बेल" की वैचारिक समझ प्रदान करने का प्रयास किया गया है, जिनका अर्थ एक ही है या एक दूसरे के बदले इस्तेमाल किया जाता है।

    ट्रांजिट बेल: आशय क्या है

    'ट्रांजिट बेल' या 'ट्रांजिट एंटीसिपेटरी बेल' को न तो दंड प्रक्रिया संहिता या किसी अन्य कानून के तहत परिभाषित किया गया है, और न ही आपराधिक प्रक्रिया के कानून के तहत कोई विशिष्ट संदर्भ मिलता है। हालांकि, इस अवधारणा की जड़ें सीआरपीसी के तहत खोजी जा सकती हैं।

    इन अवधारणाओं का विशिष्ट या प्रावधान का एकल स्रोत नहीं होने का मुख्य कारण यह है कि अवधारणा "न्यायाधीश निर्मित कानून" है। समय-समय पर, भारतीय न्यायालयों ने आपराधिक कानून की विभिन्न धाराओं के अंतर्पठन के बाद अवधारणा की व्याख्या की है, जिसने कानूनी न्यायशास्त्र की अन्यथा असामान्य अभिधारणा के लिए एक संरचना दी है।

    आइए हम "ट्राजिंट बेल" शब्द के अर्थ को समझते हैं। ट्रांजिट बेल अदालत द्वारा दी गई बेल है, जिसका उस स्थान पर अधिकार क्षेत्र नहीं है, जहां अपराध किया गया था।

    "ट्राजिंट एंटीसिपेटरी बेल", तब दी जाती है, जब कोई व्यक्ति, उस राज्य के अलावा, जिस राज्य में वह वर्तमान में रहता है, किसी अन्य राज्य की पुलिस द्वारा गिरफ्तारी की आशंका व्यक्त करता है। जैसा कि शब्द "ट्रांजिट" बताता है, यह एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने या ले आने का काम है। ब्लैक लॉ डिक्शनरी में "इन ट्रांसिटु" की परिभाषा इस प्रकार दी गई है- रास्ते में / मार्ग पर या किसी व्यक्ति या स्थान से दूसरे पर जाते हुए।

    उदाहरण के लिए, A पंजाब का निवासी है और इस बात की आशंका है कि दिल्ली में A के खिलाफ मामला दर्ज किया जा सकता है। एक सामान्य स्थिति में, A को बेल पाने के लिए पंजाब से दिल्ली की यात्रा करनी होगी, क्योंकि दिल्ली कोर्ट को A को बेल देने का अधिकार है।

    हालांकि, अगर A आशंका व्यक्त करता है कि दिल्ली पुलिस उसे पंजाब के अधिकार क्षेत्र में गिरफ्तार कर सकती है, तो वह पंजाब की कोर्ट से एंटीसिपेटरी बेल मांग सकता है। स्थानीय अदालत, जब तक आरोपी बेल के लिए न्यायिक अधिकारक्षेत्र की अदालत का दरवाजा खटखटाता है, तब तक के लिए सीमित सुरक्षा के रूप में ट्रांजिट बेल प्रदान करती है।

    मोटे तौर पर, ट्राजिंट एंटीसिपेटरी बेल का उद्देश्य किसी व्यक्ति को तब तक बेल देना है जब तक कि वह उपयुक्त अदालत में नहीं पहुंच जाता है, ताकि यदि पुलिस गिरफ्तारी को प्रभावित करना चाहती है, तो वह व्यक्ति बेल पर रिहा हो जाए। हालांकि, ऐसी बेल इस शर्त पर दी जाती है कि आरोपी को जांच प्रक्रिया में सहयोग करेगा।

    ट्रांजिट एंटीसिपेटरी बेल की वैधानिक प्रासंगिकता: न्यायिक सिद्धांतों का विश्लेषण

    आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 438 "गिरफ्तारी की आशंका व्यक्ति करने वाले व्यक्ति को बेल देने के निर्देशों" से संबंधित है। यद्यपि यह प्रावधान सीधे तौर पर गिरफ्तारी से पहले की ट्रांजिट बेल देने का संकेत नहीं देता है, लेकिन यह प्रावधान करता है कि जब किसी भी व्यक्ति के पास यह मानने का कारण है कि उसे गैर-जमानती अपराध करने के आरोप में गिरफ्तार किया जा सकता है, वह इस धारा के तहत दिशा न‌िर्देश के लिए उच्‍च न्यायालय या सत्र न्यायालय से संपर्क कर सकता है ; और वह न्यायालय, यदि यह उचित समझे, तो निर्देश दे कि ऐसी गिरफ्तारी की स्थिति में, उसे बेल पर रिहा किया जाएगा।

    जैसा कि पहले ही चर्चा की जा चुकी है, चूंकि ट्राजिंट एंटीसिपेटरी बेल देने का कानून एक न्यायिक व्याख्या वाला कानून है, आइए इसके सिद्धांतों को निर्धारित करने वाले कुछ महत्वपूर्ण निर्णयों पर गौर करें।

    गिरफ्तारी की आशंका- प्रमुख कारक

    शांतनु मुलुक मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट (औरंगाबाद बेंच) ने हालिया आदेश में कहा कि गिरफ्तारी की आशंका, इस तरह के आवेदनों पर विचार करने के लिए प्रमुख कारक है।

    अदालत ने कहा, "केवल इस तथ्य पर विचार किया जाना आवश्यक है कि क्या आवेदक को उपयुक्त राहत पाने के लिए सक्षम प्राधिकारी से संपर्क करने के लिए ट्रांजिट बेल के माध्यम से स्वतंत्रता दी जा सकती है"। अदालत ने कहा कि यहां तक तथ्य यह है ​​कि दिल्ली पुलिस (जो महाराष्ट्र में आवेदक को गिरफ्तार करने की मांग कर रही थी) को जमानत अर्जी में पक्षकार नहीं बनाया गया है।

    कोर्ट ने कहा, "यह प्रस्तुत किया गया है कि दिल्ली पुलिस के अधिकारी पहले से ही बीड में हैं। उन्हें बीड में जांच में किए जाने वाले किसी भी ऑपरेशन के लिए स्थानीय पुलिस की मदद लेनी होगी। ऐसी परिस्थिति में, केवल इस आधार पर आवेदन को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है‌ कि दिल्ली पुलिस इसमें पक्ष में नहीं हैं।"

    1985 के एक फैसले में, बॉम्बे हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने एनके नायर और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य (1985) में कहा कि एक अदालत के पास आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के तहत एक आवेदन पर विचार करने का अधिकार होगा, यदि आवेदक उसके क्षेत्राधिकार के भीतर गिरफ्तारी की आशंका व्यक्त कर रहा है।

    हाईकोर्ट ने कहा, "... इस न्यायालय का क्षेत्राधिकार होगा, यदि किसी व्यक्ति को उसके अधिकारक्षेत्र के भीतर गिरफ्तार होने की आशंका है, भले ही अपराध महाराष्ट्र राज्य के बाहर किए गए हों।"

    उस मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा डॉ एलआर नायडू बनाम कर्नाटक राज्य, 1984 Cri LJ 757, और कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा बीआर सिन्हा बनाम राज्य, 1982 में Cri LJ 61 के मामलों में व्यक्त किए गए समान विचारों को संदर्भित किया।

    विजय लता जैन बनाम राज्य 2007 SCC Online Del 1723 में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता को बेल दे दी ताकि वे उस अदातलत के अध‌िकारक्षेत्र में "उपलब्‍ध उपायों का उपयोग" कर सके, जहां शिकायत दर्ज की गई है।

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने हाल ही में एक विमानन संस्थान के कॉर्पोरेट निदेशक और मार्केटिंग एजेंट द्वारा ट्रांजिट एंटीसिपेटरी बेल की मांग करने वाले आवेदनों का निस्तारण किया था, जिन्होंने गिरफ्तारी की आशंका जताई थी, उन्हें ट्रांजिट बेल दी गई थी।

    आवेदकों के खिलाफ आईपीसी की धारा 420, 406, धारा 34 के साथ पढ़े, के तहत अपराध दर्ज किए गए थे। न्यायालय ने उनके आवेदनों को स्वीकार करते हुए आदेश दिया कि वे उपयुक्त राहत के लिए सक्षम न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकते हैं। (रूपेश नारायण बविस्कर बनाम महाराष्ट्र राज्य 2019 SCC Online Bom 13012)।

    हाल ही में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने टीआरपी घोटाला मामले में रिपब्लिक टीवी की सीओओ प्रिया मुखर्जी को बेल देते हुए कहा कि जब व्यक्तिगत स्वतंत्रता दांव पर होती है, तो कोई व्यक्ति बेल की मांग कर सकता है।

    हाईकोर्ट ने प्र‌िया मुखर्जी बनाम कर्नाटक राज्य मामले में कहा, ".. जब किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता खतरे में हो और गिरफ्तारी की आशंका है, तो याचिकाकर्ता सीआरपीसी की धारा 438 के तहत राहत की मांग कर सकता है।"

    निकिता जैकब को ट्रांजिट बेल देने के आदेश में, बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा, "स्वतंत्रता की रक्षा और तत्काल गिरफ्तारी से बचाव के लिए अस्थायी राहत दी जा सकती है। आम तौर पर एंटीसिपेटरी बेल आवेदनों में उच्च न्यायालय की शक्तियां अपने क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र तक सीमित हैं। हालांकि, जैसा कि जावेद आनंद (सुप्रा) के मामले में कहा गया है, ऐसे मामले हो सकते हैं, जहां अगर सुरक्षा प्रदान नहीं की जाती है, तो किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाएगी। धारा 438 के तहत आवेदन करने का असली कारण व्यक्ति की गिरफ्तारी की आशंका है। वर्तमान मामले में, गिरफ्तारी की प्रबल आशंका है "(निकिता जैकब बनाम महाराष्ट्र राज्य)।

    निकिता जैकब में, उच्च न्यायालय ने जावेद आनंद और एक अन्य बनाम गुजरात राज्य और अन्‍य (ABA No.627 / 2018, तारीख 5-4-2018) के अपने निर्णय का पालन किया।

    न्यायालय यह जांच कर सकता है कि क्या आवेदक उसके अधिकार क्षेत्र का बोना-फाइड निवासी है

    हनी प्रीत इंसान बनाम राज्य 2017 SCC Online Del 10690 (गुरमीत राम रहीम सिंह मामला) में, हनी प्रीत सिंह द्वारा एक ट्रांजिट एंटीसिपेटरी बेल याचिका दायर की गई थी। आमतौर पर हरियाणा के रहने वाले प्रीत ने दिल्ली की एक अदालत से बेल की मांग की थी। दिल्ली उच्च न्यायालय ने सेक्‍शन 438 सीआरपीसी और ट्रांजिट एंटीसिपेटरी बेल का विश्लेषण करते हुए, उसे ट्रांजिट बेल से वंचित कर दिया।

    कोर्ट ने कहा, "जब भी किसी अदालत के समक्ष एंटीसिपेटरी बेल के लिए आवेदन किया जाता है, जबकि उस अदालत के अधिकार क्षेत्र के बाहर यानी कहीं और एक प्राथमिकी दर्ज की गई है, तो अदालत यह विचार करने के लिए बाध्य है कि आवेदक अदालत के अध‌िकार क्षेत्र के भीतर नियमित या बोना-फाइड निवासी है या नहीं....यदि अदालत इस पहलू पर संतुष्ट नहीं है, तो आवेदन मामले के गुण में जाए बिना खारिज किए जाने योग्य है।"

    अलग दृष्टिकोण व्यक्त करने वाले निर्णय

    पटना हाईकोर्ट ने इस मामले पर एक अलग विचार रखा है। सैयद ज़फरुल हुसैन और अन्य बनाम राज्य एआईआर 1986 पैट 194, में पूर्ण पीठ इस सवाल का निस्तारण किया है कि "क्या धारा 438 किसी भी उच्च न्यायालय या देश के किसी भी सत्र न्यायालय द्वारा एंटीसिपेटरी बेल देने की परिकल्पना करती है, चाहे वह अपराध का क्षेत्र हो या न हो? "

    न्यायालय ने इस सवाल का जवाब दिया कि "संहिता की धारा 438 किसी भी उच्च न्यायालय या देश के किसी भी सत्र न्यायालय द्वारा एंटीसिपेटरी बेल देने की अनुमति नहीं देती है, जहां अभियुक्त गिरफ्तारी की आशंका व्यक्त कर सकता है। ऐसी शक्ति केवल उस सत्र न्यायालय या उच्च न्यायालय के पास निहित है, जिसके अधिकार क्षेत्र में अपराध किया गया है या अपराध आरोपित किया गया है। "

    ट्रांजिट बेल केवल एक सीमित अवधि के लिए हो सकती है

    कलकत्ता उच्च न्यायालय की 5-न्यायाधीशों की पीठ ने, सैलेश जायसवाल बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1998) में पटना उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ के फैसले के साथ व्यापक सहमति व्यक्त करते हुए कहा था कि केवल सीमित अवधि के लिए ट्रांजिट बेल दी जा सकती है।

    5-न्यायाधीश की बेंच एक डिवीजन बेंच द्वारा किए गए संदर्भ का जवाब दे रही थी कि क्या उच्च न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर दर्ज एफआईआर के संबंध में एंटीसिपेटरी बेल दे सकता है।

    कोर्ट ने कहा, "... हमारा विचार है कि कि जहां किसी भी व्यक्ति के पास यह विश्वास करने का कारण है कि उसे गैर-जमानती अपराध के आरोप में गिरफ्तार किए जाने की संभावना है, वह या तो उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय से इस निर्देश के लिए संपर्क कर सकता है, कि गिरफ्तारी की स्थिति में उसे बेल पर रिहा कर दिया जाएगा।....

    किसी भी अदालत, यानी उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय द्वारा स्थानीय क्षेत्र से परे अग्रिम जमानत के अधिकार क्षेत्र का उपयोग संक्रमणकालीन अवधि के लिए जमानत पर विचार करने की सीमा तक सीमित है, लेकिन इसके पास उस न्यायालय के क्षेत्राधिकार में जाने का कोई अधिकार नहीं है, जिसके क्षेत्र में अपराध होने का आरोप लगाया गया है।"

    डॉ ऑगस्टीन फ्रांसिस पिंटो और अन्य बनाम महाराष्ट्र और अन्य में बॉम्बे हाईकोर्ट ने हरियाणा में सक्षम न्यायालय का दरवाजा खटखटाने के लिए पार्टियों को सक्षम करने के लिए अग्रिम जमानत की मांग वाले आवेदनों का निस्तारण किया था। आवेदकों ने आईपीसी की धारा 302 और शस्त्र अधिनियम की धारा 25 के तहत गिरफ्तारी की आशंका व्यक्त की थी।

    सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां

    हालांकि ट्रांजिट एंटिसिपेटरी बेल के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट हस्तक्षेप सीमित रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट ने इस सवाल को खुला छोड़ दिया है कि ट्रांजिट एंटिसिपेटरी बेल के साथ व्यवहार करते समय सटीक स्थिति क्या होगी।

    संदीप सुनीलकुमार लाहौरिया बनाम जवाहर चेलाराम बिजलानी vide order dated 14.06.2013 in Special Leave to Appeal (Cri.) No.4829 of 2013

    में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसे मामले का निस्तारण किया था, जिसमें अभियुक्त को मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने ट्रांजिट एंटिसीपेटरी बेल दी ‌थी, यह देखते हुए कि उच्च न्यायालय ने उनकी अग्रिम जमानत अर्जी खारिज कर दी थी, जिसे उच्चतम न्यायालय ने बरकरार रखा था।

    मामला धारा 302, 120B और 34 IPC, आर्म्स एक्ट की धारा 3 और 25 के तहत दर्ज किया गया था। 14.06.2013 के आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "अभियुक्त ने ट्रांजिट बेल की प्रकृति में अग्रिम जमानत के लिए एक आवेदन दायर किया प्रतीत होता है, जो हमारे विचार में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत कोई प्रावधान नहीं है।"

    अदालत यह ने आगे कहा कि " यह समझना मुश्किल है कि किन प्रावधानों के तहत और किस तरह के कानून के अधिकार के तहत मध्यप्रदेश के उच्च न्यायालय ने इसे दर्ज किया था।"

    इसके बाद, न्यायालय ने 01.08.2013 के आदेश के दो महीने बाद उसी मामले से निपटते हुए कहा कि, "उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश ट्रांजिट बेल के संबंध में था और इस न्यायालय द्वारा 14 जून, 2013 के आदेश में दी गई टिप्पणियां अग्रिम जमानत के संबंध में थीं और इसलिए इस न्यायालय द्वारा 14 जून, 2013 के आदेश में किए गए अवलोकन

    या इन मामलों में इस न्यायालय द्वारा पारित किसी अन्य आदेश में, किसी भी प्रकार से ट्रायल कोर्ट या हाईकोर्ट के समक्ष प्रतिवादी संख्या एक की नियमित जमानत या अस्‍थायी जमानत के संबंध में किसी भी प्रकार का पूर्वाग्रह नहीं करेगा, जिसे उसके गुणों के आधार पर तय किया जा सकता है।

    हम यह भी स्पष्ट करते हैं कि इस न्यायालय द्वारा 14 जून, 2013 या इस मामले में पारित किसी अन्य आदेश के अवलोकन भी इस मामले में किसी अन्य अभियुक्त के दावे के लिए किसी भी प्रकार का पक्षपात नहीं करेगा। "।

    शांतनु मुलुक बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले में अभियोजन पक्ष ने संदीप लाहौरिया मामले (14.06.2013 को आदेश दिया) में उच्चतम न्यायालय की टिप्पणियों का हवाला दिया था ताकि यह तर्क दिया जा सके कि ट्रांजिट बेल अर्जी सुनवाई योग्य नहीं है।

    हालांकि, बॉम्बे हाईकोर्ट ने संदीप लाहौरिया मामले (एससी 01.08.2013 के आदेश) में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारित किए गए बाद के आदेश का उल्लेख किया और कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने ट्रांजिट बेल पर कानून का सवाल छोड़ दिया है।

    गंभीर अपराधों में जमानत

    इस सवाल पर आ रहे हैं कि क्या गंभीर अपराधों में भी ट्रांजिट एंटीसिपेटरी बेल की अर्जी दी जा सकती है, आइए हम उन कुछ मामलों पर नजर डालते हैं, जहां न्यायालय ने गंभीर आरोपों से जुड़े ऐसे आवेदनों का निस्तारण किया है।

    हाल ही में डॉ सुमित गुप्ता बनाम दिल्ली स्टेट ऑफ एनसीटी 2021 एससीसी ऑनलाइन डेल 409 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक डॉक्टर पति को चार सप्ताह की ट्रांजिट एंट‌ीसीपेटरी बेल दी, जो मध्य प्रदेश में दर्ज एक मामले में गिरफ्तारी से बच रहा था। उस पर घरेलू हिंसा अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों के साथ आईपीसी की 498 ए और 34 के तहत मामला दर्ज ‌था।

    न्यायालय ने "गिरफ्तारी की आशंका" के आधार पर इस निर्देश के साथ जमानत दी कि उन्हें सक्षम न्यायालय में अग्रिम जमानत के लिए आवेदन करने के लिए भोपाल पहुंचने से पहले रास्ते में गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है।

    एक अन्य मामले में, सूरज पाल बनाम विजय चौहान 2015 एससीसी ऑनलाइन डेल 10285 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने पाया कि ट्रांजिट जमानत देते समय, अपराध की प्रकृति और गंभीरता को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

    इसलिए उपर्युक्त मामलों के आधार पर कहा जा सकता है कि ट्रांजिट बेल आवेदनों से निपटने के लिए एक सीधा सूत्र नहीं हो सकता है।

    विशेषकर, तब जब सर्वोच्च न्यायालय अभी तक इसके सिद्धांतों के सवाल पर नहीं गया है। हालांकि, ट्रांजिट बेल या ट्रांजिट एंटीसिपेटरी बेल के संबंध में निम्नलिखित प्रस्तावनाओं को समझा जा सकता है-

    -ट्रांजिट एंटीसिपेटरी बेल के अनुदान से संबंधित मुख्य वैधानिक प्रावधान सेक्शन 438 सीआरपीसी है।

    -चूंकि ट्रांजिट एंटीसिपेटरी बेल पर कानून ज्यादातर न्यायिक रूप से व्याख्य‌ा‌यित है, इसलिए उच्च न्यायालय के अवलोकन प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार भिन्न हो सकते हैं। इसलिए, हर मामले में पालन करने के लिए कोई सीधा सिद्धांत नहीं है।

    -ट्रांजिट एंटीसिपेटरी बेल के आवेदनों से निपटने के दौरान, न्यायालयों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के साथ कोई हेरफेर न हो।

    -न्यायालय को यह ध्यान रखना चाहिए कि ट्रांजिट एंटीसिपेटरी बेल देते समय कानून की उचित प्रक्रिया का दुरुपयोग ना किया जाए।

    -गिरफ्तारी की आशंका के कारण व्यक्तिगत स्वतंत्रता के उल्लंघन की आशंका ट्रांजिट एंटीसिपेटरी बेल पाने के लिए एक आधार है।

    -कोर्ट ट्रांजिट एंटीसिपेटरी बेल देते समय गंभीर और गैर-गंभीर अपराधों से निपटने के लिए विचरण दिखा सकता है। इस तरह की जमानत विशुद्ध रूप से न्यायाधीश के विवेक पर दी जाती है।

    -जमानत लेने के लिए नियमित अधिकार क्षेत्र वाले अदालत के दृष्टिकोण के लिए आरोपी को सक्षम करने के लिए केवल सीमित अवधि के लिए ट्रांजिट जमानत दी जाती है।

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