वाद की सीमा के अपवाद : भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 516 से 519

Himanshu Mishra

13 Jun 2025 9:37 PM IST

  • वाद की सीमा के अपवाद : भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 516 से 519

    भूमिका

    भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023) के अध्याय 38 में यह प्रावधान किया गया है कि कुछ अपराधों को एक निश्चित अवधि (Limitation Period) के भीतर ही संज्ञान में लिया जा सकता है। यह व्यवस्था मुख्यतः छोटे और मध्यम स्तर के अपराधों पर लागू होती है ताकि मुकदमे समयबद्ध रूप से पूरे किए जा सकें और न्यायिक संसाधनों का समुचित उपयोग हो।

    हालांकि, कई परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं जिनमें वाद की सीमा की सामान्य गणना न्याय के हित में नहीं होती। इन विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए धारा 516 से 519 तक ऐसे प्रावधान बनाए गए हैं जिनके अंतर्गत समय की गणना से कुछ अवधि को छोड़ (exclude) दिया जाता है या सीमा से बाहर जाकर भी अदालत संज्ञान ले सकती है।

    धारा 516 – कुछ विशेष मामलों में समय की गणना से छूट (Exclusion of Time in Certain Cases)

    इस धारा में विस्तार से उन परिस्थितियों को बताया गया है जिनमें समय की गणना करते समय कुछ अवधि को गणना से बाहर रखा जाएगा।

    उपधारा (1): दूसरी कार्यवाही में न्यायोचित प्रयास (Diligent Prosecution in Another Court)

    यदि पीड़ित या अभियोजन पक्ष ने पूरे परिश्रम और ईमानदारी से किसी अन्य अदालत में उसी अपराध से जुड़ी कार्यवाही की है, परंतु वह अदालत किसी कानूनी त्रुटि या अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction) की कमी के कारण उस पर विचार नहीं कर सकी, तो उस अवधि को गणना से निकाल दिया जाएगा।

    उदाहरण के तौर पर, मान लीजिए कि पीड़ित ने पहले एक मजिस्ट्रेट न्यायालय में अभियोजन शुरू किया, लेकिन बाद में पता चला कि मामला सत्र न्यायालय (Sessions Court) के अधिकार क्षेत्र में आता है। इस पूरी अवधि को सीमा से बाहर मान लिया जाएगा।

    उपधारा (2): स्थगनादेश या निषेधाज्ञा (Stay Order or Injunction)

    यदि किसी कारणवश अदालत में मुकदमा दायर करने पर न्यायिक आदेश या निषेधाज्ञा (injunction) लगाई गई थी, तो उस आदेश की सम्पूर्ण अवधि, जिसमें वह प्रभावी रहा, और उसके जारी होने तथा हटाए जाने वाले दिन – तीनों को समय-सीमा से बाहर माना जाएगा।

    उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि किसी उच्च न्यायालय ने 1 मार्च 2024 को मुकदमा दायर करने पर रोक लगा दी और 1 अगस्त 2024 को वह रोक हटा दी, तो इन पांच महीनों को सीमा की गणना में नहीं जोड़ा जाएगा।

    उपधारा (3): अभियोजन के लिए पूर्व सूचना या स्वीकृति (Notice or Sanction)

    अगर किसी अपराध के लिए कानून के अनुसार सरकार या किसी प्राधिकरण से पूर्व स्वीकृति (prior sanction) या सूचना (notice) की आवश्यकता हो, तो इस प्रक्रिया में लगे समय को भी सीमा से बाहर माना जाएगा।

    यहाँ एक स्पष्टीकरण भी जोड़ा गया है कि स्वीकृति के लिए आवेदन करने की तिथि और स्वीकृति मिलने की तिथि, दोनों को भी गणना से बाहर रखा जाएगा।

    उदाहरण के लिए, यदि किसी सरकारी कर्मचारी के विरुद्ध भ्रष्टाचार का अभियोग दर्ज करना है और इसके लिए सरकार से स्वीकृति आवश्यक है, और यह प्रक्रिया 1 अप्रैल से 1 जुलाई तक चली, तो ये तीन महीने सीमा से हटाकर समय की गणना की जाएगी।

    उपधारा (4): आरोपी का देश से बाहर होना या गिरफ्तारी से बचना (Absconding or Out of India)

    यदि आरोपी व्यक्ति भारत से बाहर है या किसी ऐसे क्षेत्र में है जो भारत सरकार के प्रशासन में है लेकिन भारत का हिस्सा नहीं है, या यदि वह गिरफ्तारी से बचने के लिए फरार या छिपा हुआ है, तो वह पूरी अवधि भी समय की सीमा से हटा दी जाएगी।

    उदाहरण के लिए, कोई आरोपी वर्ष 2022 से 2024 तक विदेश में रह रहा था, और उसके विरुद्ध मुकदमा भारत में दर्ज होना था, तो इन दो वर्षों को गणना से बाहर रखा जाएगा।

    धारा 517 – अदालत बंद होने की स्थिति में संज्ञान की अनुमति (Cognizance if Court is Closed on Last Day)

    यह धारा उन व्यावहारिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए बनाई गई है जब वाद की सीमा समाप्त होने का दिन अदालत की छुट्टी पर पड़ता है।

    यदि अंतिम तिथि को अदालत बंद हो, तो अदालत अगले कार्यदिवस पर भी संज्ञान ले सकती है। इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि अगर किसी दिन अदालत अपने सामान्य कामकाजी घंटों में बंद रहती है, तो उसे उस दिन के लिए "बंद" माना जाएगा।

    उदाहरण के लिए, यदि मुकदमा दाखिल करने की अंतिम तिथि 26 जनवरी है और वह दिन गणतंत्र दिवस के कारण अदालत में अवकाश है, तो 27 जनवरी को संज्ञान लिया जा सकता है, यदि वह कार्यदिवस है।

    धारा 518 – निरंतर अपराधों के लिए नई समय सीमा (Continuing Offence and Fresh Limitation)

    इस धारा में उन अपराधों की बात की गई है जो निरंतर चलने वाले अपराध (Continuing Offences) की श्रेणी में आते हैं। इसका अर्थ है कि ऐसे अपराध एक दिन में समाप्त नहीं होते, बल्कि हर दिन होते रहते हैं जब तक अपराधी उन्हें रोकता नहीं।

    ऐसे मामलों में हर दिन अपराध होने की वजह से हर दिन एक नई समय सीमा शुरू होती है।

    उदाहरण के तौर पर, यदि किसी व्यक्ति ने सरकारी आदेश के विरुद्ध अतिक्रमण कर रखा है और वह हर दिन बना रहता है, तो यह एक निरंतर अपराध है। जब तक वह अतिक्रमण जारी है, तब तक मुकदमा दर्ज करने की नई समय सीमा हर दिन से गिनी जा सकती है।

    यह प्रावधान राज्य या स्थानीय अधिकारियों को यह सुविधा देता है कि वे ऐसे निरंतर उल्लंघनों के खिलाफ कभी भी कार्यवाही शुरू कर सकें, बिना इस चिंता के कि मूल अपराध की तारीख बहुत पुरानी हो गई है।

    धारा 519 – न्याय के हित में देरी के बावजूद संज्ञान की अनुमति (Extension in Interest of Justice)

    यह धारा इस अध्याय की एक विशेष अपवादात्मक धारा है। इसके अनुसार, यदि कोई अदालत यह मानती है कि विशेष परिस्थितियों में देरी का उचित कारण है या न्याय के हित में संज्ञान लेना आवश्यक है, तो वह वाद की सीमा समाप्त होने के बाद भी अभियोजन का संज्ञान ले सकती है।

    यह प्रावधान न्यायिक विवेकाधिकार (Judicial Discretion) का उदाहरण है। इसका उद्देश्य उन मामलों में न्याय सुनिश्चित करना है जहाँ तकनीकी कारणों से देरी तो हुई हो लेकिन न्याय की आवश्यकता अभी भी मौजूद है।

    उदाहरण के लिए, यदि पीड़ित महिला मानसिक आघात के कारण कई महीनों तक रिपोर्ट नहीं कर पाई, और बाद में न्याय की उम्मीद में रिपोर्ट करती है, तो अदालत यदि मानती है कि देरी उचित कारण से हुई है, तो वह सीमा समाप्त होने के बावजूद अभियोजन स्वीकार कर सकती है।

    धारा 516 से 519 तक की व्यवस्था स्पष्ट करती है कि वाद की सीमा का सिद्धांत अंतिम नहीं है। न्याय व्यवस्था को लचीलापन प्रदान करने के लिए ये धाराएँ बनाई गई हैं ताकि वास्तविकता और व्यवहारिकता को संतुलित किया जा सके। ये धाराएँ बताती हैं कि कानून केवल अक्षरों में नहीं बल्कि जीवन की परिस्थितियों में भी काम करता है।

    यदि अभियोजन ईमानदारी से पहले किसी गलत न्यायालय में हुआ, यदि सरकारी स्वीकृति में समय लग गया, यदि आरोपी देश से बाहर था या यदि मामला किसी लगातार चलने वाले अपराध से जुड़ा है – ऐसी हर परिस्थिति में अदालत के पास शक्ति है कि वह सच्चे न्याय के लिए समय की बाधा को दरकिनार कर सके।

    और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि यदि अदालत यह पाती है कि देरी उचित कारणों से हुई है या न्याय को बनाए रखने के लिए संज्ञान लेना आवश्यक है, तो वह समय की सीमा को भी पार कर सकती है – क्योंकि न्याय की आत्मा तकनीकी सीमाओं से ऊपर है।

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