क्या धारा 313 CrPC के तहत अभियुक्त से सही ढंग से पूछताछ न होने से पूरी सुनवाई निष्प्रभावी हो जाती है?
Himanshu Mishra
4 Jun 2025 11:53 AM

यह निर्णय राज कुमार @ सुमन बनाम राज्य (दिल्ली एनसीटी) में इस बात पर केन्द्रित था कि फौजदारी प्रक्रिया संहिता की धारा 313 (Criminal Procedure Code, 1973) के तहत अभियुक्त (Accused) से हर अहम परिस्थिति पर सीधा प्रश्न पूछना अनिवार्य है। यदि एक भी निर्णायक परिस्थिति अभियुक्त को नहीं बताई गई, तो उसे सफाई देने का अवसर (Opportunity) नहीं मिलता और न्यायालय (Court) की कार्यवाही अनुचित (Unfair) ठहर सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि अकेला महत्वपूर्ण आरोप—कि अभियुक्त घर के बाहर कट्टा लिये खड़ा था—उसके 313 बयान में ही नहीं रखा गया; परिणामतः पूरी दोषसिद्धि (Conviction) रद्द करनी पड़ी।
धारा 313 CrPC: उद्देश्य और न्यायिक व्याख्या (Purpose and Judicial Interpretation)
धारा 313 का उद्देश्य अभियुक्त को न्यायिक संवाद (Dialogue) के माध्यम से वह मंच देना है जहाँ वह अभियोजन (Prosecution) की हर प्रतिकूल परिस्थिति का स्पष्टीकरण दे सके।
1951 के तारा सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि प्रश्नावली (Questionnaire) केवल औपचारिकता नहीं; यह अनुच्छेद 21 के तहत निष्पक्ष सुनवाई (Fair Trial) का अविभाज्य हिस्सा है। 1973 के शिवाजी साहेब राव बोबडे फैसले ने जोड़ा कि यदि कोई अहम तथ्य अभियुक्त के समक्ष नहीं रखा गया तो सामान्यतः उस तथ्य को विचार से अलग रखा जाना चाहिए, वरना सुनवाई निष्प्रभावी (Vitiated) मानी जाएगी—जब तक अभियोजन यह न दिखा दे कि अभियुक्त को कोई पूर्वाग्रह (Prejudice) नहीं हुआ।
राज कुमार मामले ने प्रक्रिया-गत निष्पक्षता को कैसे मजबूत किया (Procedural Fairness)
इस प्रकरण में 42 प्रश्न पूछे गए, पर सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य—PW-5 का यह कथन कि अभियुक्त कट्टा लिये खड़ा था—पूछा ही नहीं गया। अभियुक्त ने हर प्रश्न का जवाब “मुझे नहीं पता” दिया; क्योंकि उससे असल आरोप पूछा ही नहीं गया था। न्यायालय ने पाया कि ऐसा चूक केवल तकनीकी दोष (Technical Lapse) नहीं, बल्कि मौलिक अधिकार (Fundamental Right) का उल्लंघन है। चूँकि 27 वर्ष बीत चुके थे और अभियुक्त 10 वर्ष से अधिक जेल में रह चुका था, सुप्रीम कोर्ट ने पुनःमुकदमा (Retrial) या दोबारा 313 बयान लेने का आदेश देना अन्यायपूर्ण माना और सीधे दोषसिद्धि रद्द कर दी।
धारा 313(5) की भूमिका: त्रुटि-निवारण का साधन (Tool for Preventing Error)
2009 से जुडे उप-खंड (5) ने न्यायालय को अभियोजन और बचाव पक्ष के वकीलों की मदद से प्रश्न तैयार करने और, आवश्यकता हो तो, अभियुक्त से लिखित बयान (Written Statement) स्वीकार करने की छूट दी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब गवाह (Witnesses) बहुत हों या साक्ष्य (Evidence) वृहद हो, तो न्यायालय इस सहयोगी व्यवस्था का भरपूर उपयोग करे। इससे प्रश्नों में कोई चूक नहीं रहेगी और तारा सिंह जैसा “72 साल पुराना अफ़सोस” दोबारा नहीं दोहराया जाएगा। न्यायिक अकादमियों को इस विषय का विशेष प्रशिक्षण देना चाहिए।
पूर्वाग्रह का परीक्षण: क्या अनियमितता से सुनवाई निष्प्रभावी होती है (Prejudice Test)
हर त्रुटि सुनवाई को अपने-आप रद्द नहीं करती; निर्णय इस बात पर निर्भर है कि अभियुक्त को वास्तविक पूर्वाग्रह हुआ या नहीं। एस. हरनाम सिंह (1976) में अदालत ने कहा कि यदि प्रश्न-पूछताछ की कमी अभियुक्त को सफाई देने से वंचित करती है, तो यह “गंभीर अनियमितता (Serious Irregularity)” है और सुनवाई शून्य (Nullity) हो सकती है। लेकिन यदि अभियोजन दिखा दे कि कोई अन्य स्वतंत्र प्रमाण (Independent Proof) है और अभियुक्त को सफाई का अवसर प्रभावी रूप से मिल चुका, तो दोष “कुराबिल” (Curable) माना जा सकता है। राज कुमार के मामले में चूँकि एक-मात्र प्रमाण ही नहीं पूछा गया, इसलिए पूर्वाग्रह स्वतः सिद्ध हो गया।
पुष्टि किए गए न्यायिक दृष्टांत (Judicial Precedents)
न्यायालय ने अनेक पूर्व निर्णयों को पुनः बल दिया:
• रणवीर यादव (2009) ने रेखांकित किया कि हर प्रतिकूल परिस्थिति विशिष्ट रूप से पूछी जानी चाहिए।
• महेश्वर टिग्गा (2020) ने दोहराया कि 313 में गंभीर त्रुटि से पूरी सुनवाई रद्द हो सकती है।
• आशरफ़ अली (2008) ने 313 को “अदालत और अभियुक्त के बीच प्रत्यक्ष संवाद” कहा।
• सत्यवीर सिंह राठी (2011) ने माना कि आपत्ति देर से उठाने पर भी न्यायालय को यह देखना होगा कि वास्तविक पूर्वाग्रह हुआ या नहीं।
ये सारे दृष्टांत एकसूत्र में बँधते हैं: अभियुक्त को अपना पक्ष रखने का पूरा अवसर देना न्याय का अपरिहार्य (Inalienable) सिद्धांत है।
राज कुमार @ सुमन फ़ैसला धारा 313 CrPC की संवैधानिक महत्ता को फिर उजागर करता है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि अभियुक्त से जुड़े हर अहम तथ्य पर सीधा प्रश्न-उत्तर (Question-Answer) होना अनिवार्य है। यह न केवल विधिक औपचारिकता, बल्कि जीवन-स्वतंत्रता की बुनियादी गारंटी है।
इस निर्णय से संदेश स्पष्ट है: न्यायालयों को प्रक्रिया-गत सावधानी (Procedural Diligence) बरतनी ही होगी; वरना वर्षों की सुनवाई एक त्रुटि से ध्वस्त (Collapse) हो सकती है। साथ-ही-साथ, उप-खंड (5) द्वारा प्रदत्त सहयोगी व्यवस्था का समुचित उपयोग करके न्यायिक अधिकारी अपने निर्णयों को सुरक्षित, और न्याय-प्रक्रिया को लोकविश्वास-योग्य बनाए रखें।
इस प्रकार, धारा 313 के प्रति सजगता केवल अभियुक्त के अधिकारों का सम्मान नहीं, बल्कि पूरी न्यायिक प्रणाली की विश्वसनीयता (Credibility) का प्रश्न है।