क्या न्यायिक सेवाओं के लिए आयु प्रतिबंध संविधान के तहत जांच के दायरे में आते हैं?
Himanshu Mishra
25 Jan 2025 1:20 PM

दिल्ली हाईकोर्ट बनाम देविना शर्मा के मामले में न्यायालय ने दिल्ली न्यायिक सेवा (DJS) और दिल्ली उच्च न्यायिक सेवा (DHJS) परीक्षाओं में न्यूनतम और अधिकतम आयु सीमा पर संवैधानिकता (Constitutionality) का विश्लेषण किया।
यह निर्णय इस बात पर प्रकाश डालता है कि संविधान, नीतिगत विचारों (Policy Considerations), और न्यायपालिका की स्वतंत्रता (Judicial Independence) के बीच संतुलन कैसे बनाया जा सकता है।
संवैधानिक ढांचा (Constitutional Framework)
संविधान के अनुच्छेद 233(2) (Article 233(2)) में जिला न्यायाधीश (District Judge) के पद के लिए योग्यता दी गई है, जिसमें कम से कम सात वर्षों की वकालत (Advocacy) या वाद-विवाद (Pleading) का अनुभव अनिवार्य है।
इसमें आयु सीमा का उल्लेख नहीं है। अनुच्छेद 235 (Article 235) हाईकोर्ट को अधीनस्थ न्यायालयों (Subordinate Courts) की नियुक्तियों और सेवा शर्तों (Service Conditions) को नियंत्रित करने का अधिकार देता है।
इन प्रावधानों (Provisions) ने यह तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई कि आयु प्रतिबंध संवैधानिक अधिकारों (Constitutional Rights) का उल्लंघन करते हैं या नहीं।
पूर्व न्यायिक निर्णय (Judicial Precedents)
न्यायालय ने ऑल इंडिया जजेस एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2002) के मामले का उल्लेख किया, जिसमें उच्च न्यायिक सेवा में सीधे प्रवेश के लिए न्यूनतम आयु सीमा 35 वर्ष की सिफारिश की गई थी। यह निर्णय "शेट्टी आयोग" (Shetty Commission) की सिफारिशों के अनुरूप था।
इसके अलावा, हिरेंद्र कुमार बनाम इलाहाबाद हाईकोर्ट (2020) में सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि सेवा में प्रवेश के लिए आयु आधारित मापदंड (Age-Based Criteria) एक नीतिगत मामला (Policy Matter) है और इसे असंवैधानिक (Unconstitutional) नहीं माना जा सकता।
इन निर्णयों ने दिखाया कि न्यायपालिका (Judiciary) ने अनुभव और परिपक्वता (Maturity) सुनिश्चित करने के लिए आयु प्रतिबंधों का समर्थन किया है।
न्यायालय का दृष्टिकोण (Court's Reasoning)
न्यायालय ने कहा कि संविधान में आयु सीमा का उल्लेख न होने का यह अर्थ नहीं है कि हाईकोर्ट ऐसी शर्तें तय नहीं कर सकते। आयु और अनुभव न्यायिक संस्थानों (Judicial Institutions) की प्रभावशीलता (Effectiveness) के लिए आवश्यक हैं।
न्यायालय ने 2022 में दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा आयु सीमा पुनः लागू (Reintroduce) करने को एक वैध नीतिगत निर्णय (Legitimate Policy Decision) माना। अनुच्छेद 233 केवल न्यूनतम सात वर्षों की वकालत की शर्त रखता है, जो एक आधारभूत (Threshold) योग्यता है। हाईकोर्ट अपने अधिकार क्षेत्र में इन योग्यताओं को पूरक (Supplement) कर सकते हैं।
नीतिगत और व्यावहारिक विचार (Policy and Practical Considerations)
कोविड-19 महामारी (Pandemic) और प्रशासनिक कारणों से 2020 और 2021 की परीक्षाएं स्थगित कर दी गई थीं। न्यायालय ने उन उम्मीदवारों को 2022 की परीक्षा में भाग लेने की अनुमति दी जो इन वर्षों में आयु सीमा के भीतर होते। यह निर्णय व्यावहारिकता (Practicality) और न्याय (Justice) के बीच संतुलन बनाने का प्रयास था।
प्रमुख मुद्दे (Fundamental Issues Addressed)
1. आयु प्रतिबंध की वैधता (Legitimacy of Age Restrictions)
न्यायालय ने आयु सीमा तय करने के हाईकोर्ट के अधिकार को मान्यता दी। यह पाया गया कि ये नीतिगत निर्णय हैं और न्यायपालिका की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं।
2. न्यायपालिका की स्वतंत्रता (Judicial Independence)
न्यायालय ने जोर दिया कि संविधान का संरक्षक (Guardian) होने के नाते, हाईकोर्ट को न्यायिक नियुक्तियों के नियम बनाने की स्वतंत्रता है।
3. नीति में लचीलापन (Policy Flexibility)
न्यायालय ने यह भी माना कि असाधारण परिस्थितियों (Exceptional Circumstances) में नीतियों में अस्थायी बदलाव (Temporary Deviations) किए जा सकते हैं। 2022 के लिए दी गई छूट इसका एक उदाहरण है।
व्यापक प्रभाव (Broader Implications)
यह निर्णय इस बात पर जोर देता है कि न्यायपालिका (Judiciary) कानून और नीति के बीच संतुलन कैसे बनाती है। आयु प्रतिबंधों को बरकरार रखते हुए न्यायालय ने दिखाया कि अनुभव और परिपक्वता न्यायिक भूमिकाओं के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं।
दिल्ली हाईकोर्ट बनाम देविना शर्मा के मामले में निर्णय ने संवैधानिक प्रावधानों, नीतिगत विचारों और व्यावहारिक वास्तविकताओं के बीच संतुलन की आवश्यकता को उजागर किया।
इसने न्यायपालिका की स्वतंत्रता और उसकी संस्थागत अखंडता (Institutional Integrity) को मजबूत किया। साथ ही, यह निर्णय यह भी दिखाता है कि न्यायपालिका नीतिगत निर्णयों को न्याय और निष्पक्षता (Fairness) के साथ कैसे संतुलित करती है।