Hindu Marriage Act में म्यूच्युअल कॉन्सेट से Divorce
Shadab Salim
24 July 2025 10:00 AM IST

म्यूच्यूअल कॉन्सेट से डिवोर्स आधुनिक परिकल्पना है। प्राचीन शास्त्रीय हिंदू विधि के अधीन विवाह एक संस्कार है तथा जन्म जन्मांतरों का संबंध है परंतु आधुनिक परिवेश में तलाक भी समाज की बड़ी आवश्यकता बन कर उभरी है। यदि आपसी मतभेद के बीच रह रहे पति पत्नी के बीच तलाक नहीं हो तो यह बड़े अपराधों को जन्म दे सकता है।
Hindu Marriage Act 1955 में जिस समय भारत की संसद द्वारा बनाया गया था तब इसमें पारस्परिक सहमति से विवाह विच्छेद का कोई प्रावधान नहीं था। हिंदू विवाह अधिनियम 1979 में किए गए संशोधनों के अधीन हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत धारा 13बी के अनुसार पारस्परिक विवाह विच्छेद का प्रावधान दिया गया है।
इस धारा के अनुसार पति पत्नी यदि साथ नहीं रहना चाहते हैं तथा वह इस बात पर पूर्ण रूप से सहमत हो चुके हैं कि विवाह विच्छेद हो जाना चाहिए तो धारा 13बी उन्हें विवाह विच्छेद का अधिकार उपलब्ध करती है।
इस धारा का उद्देश्य वैवाहिक संबंधों के कारण बड़े अपराधों को रोकना है। कभी-कभी वैवाहिक संबंधों को बनाए रखने के परिणामस्वरूप विवाह के पक्षकारों के मध्य बड़े अपराधों का जन्म हो जाता है जैसे विवाह के पक्षकार एक दूसरे की हत्या तक कर देते है। जब विवाह के दो पक्षकार आपसी सहमति से ही साथ रहना नहीं चाहते हैं तथा अब विवाह आगे चल पाना संभव ही नहीं है तो ऐसी परिस्थिति है विवाह के पक्षकारों के मध्य संबंध विच्छेद कर दिया जाना ही ठीक होगा।
जब दो पक्षकार इस बात पर सहमत हो जाते हैं कि कोर्ट उनके वैवाहिक संबंधों की समाप्ति की घोषणा कर दे तो धारा 13बी में विहित प्रक्रिया के अधीन कोर्ट विवाह विच्छेद की डिक्री पारित कर सकता है।
पारस्परिक विवाह विच्छेद के लिए तीन बातों का होना अति आवश्यक है।
विवाह के पक्षकार याचिका प्रस्तुत करने के पूर्व कम से कम 1 वर्ष से अलग अलग रह रहे हो।
दोनों पक्षकार पति-पत्नी की तरह जीवन जीने पर सहमत नहीं है तथा एक दूसरे को साहचर्य प्रदान करना नहीं चाहते।
दोनों पक्षकारों ने विचार-विमर्श करके विवाह को विघटित कराने का निर्णय कर लिया है।
इस धारा के अधीन दोनों को संयुक्त प्रार्थना पत्र देना होता है। कोर्ट प्रार्थना पत्र प्राप्त करने के 6 माह की अवधि तक कोई कार्यवाही नहीं करता है। 6 माह के बाद भी यदि पक्षकारों के मध्य कोई समझौता नहीं होता है तो ऐसी परिस्थिति में कोर्ट पारस्परिक विवाह विच्छेद की डिक्री पारित कर देता है।
सुरेश सीता देवी बनाम ओम प्रकाश एआईआर 1992 सुप्रीम कोर्ट 1904 के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि धारा 13बी की आवश्यक शर्तें विवाह विच्छेद का आदेश निर्गत किए जाने के लिए विवाह विच्छेद करने के लिए पति-पत्नी परस्पर सहमत हो साथ ही परस्पर सहमति विवाह विच्छेद की डिक्री जारी किए जाने तक बनी रहे।
यह 6 माह का समय पक्षकारों के मध्य किसी सुलाह (consolation) हेतु प्रतीक्षा के लिए होता है क्योंकि पक्षकार कभी-कभी क्रोध में त्वरित फैसले लेते हैं। क्रोध के कारण किसी परिवार को टूटने से बचाने हेतु विधायिका का यह प्रयास है कि वह एक समय पक्षकारों को और दें उसके उपरांत कोर्ट विवाह विच्छेद की डिक्री पारित करें।
6 माह की प्रतीक्षा के बाद यदि विवाह के पक्षकार पारस्परिक सहमति के आधार पर प्रस्तुत किए गए विवाह विच्छेद के आवेदन पर यह कहते हैं कि अभी भी हम एक दूसरे को साहचर्य प्रदान करने के लिए तैयार नहीं है तथा हम पति-पत्नी की तरह एक साथ नहीं रह सकते और हमारे बीच विवाह विच्छेद किया जाए। इसके बाद कोर्ट विवाह विच्छेद की डिक्री पारित कर देता है।
पक्षकारों के पुनर्मिलन की भावना जागृत होती है और वैवाहिक बंधन को जारी रखना चाहते हैं तो इस धारा के अंतर्गत दी गई सहमति को वापस ले सकते हैं। विधायिका ने कोर्ट को यह दायित्व दिया है कि वह जहां तक संभव हो सकें विवाह बंधन के सूत्र को बनाए रखें तथा समाज में विवाह विच्छेद को रोकने के प्रयास करें क्योंकि हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत विवाह एक संस्कार है तथा समाज का आधारभूत ढांचा भी है।
विवाह की दिनांक से एक वर्ष तक विवाह विच्छेद के लिए अर्जी नहीं दी जा सकती
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 14 यह उल्लेख करती है कि किसी भी विवाह विच्छेद के लिए कोई प्रार्थना पत्र विवाह की दिनांक से 1 वर्ष के भीतर प्रस्तुत नहीं किया जाएगा। पारिवारिक समस्याओं में विवाह के पक्षकारों के मध्य कभी-कभी हिंसा और उग्रता का जन्म हो जाता है। ऐसी हिंसा और उग्रता के भीतर ही विवाह के पति पत्नी कोई आहित निर्णय ले लेते हैं जिसके कारण उनका जीवन कष्टदायक हो जाता है।
यह स्मरण रहे कि पक्षकार केवल विवाह विच्छेद के लिए याचिका 1 वर्ष तक प्रस्तुत नहीं करेंगे जबकि शून्य विवाह और शून्यकरणीय विवाह के लिए याचिका के संबंध में यह प्रावधान लागू नहीं होता है। अधिनियम की धारा 14 केवल विवाह विच्छेद के संबंध में ही लागू होती है। इस धारा के अनुसार केवल विवाह विच्छेद की याचिका 1 वर्ष के भीतर प्रस्तुत नहीं की जाएगी।
भारत की विधायिका ने यह प्रयास किया है कि इस अधिनियम के अंतर्गत अनुष्ठापित किसी हिन्दू विवाह को बचाया जाए तथा उग्रता के परिणामस्वरूप क्रोध में लिया गया कोई निर्णय किसी विवाह के लिए अभिशाप न बन जाए।
समाज में देखा जाता है कि दो प्रेम करने वाले आपस में एक दूसरे को छोड़ देते हैं और छोड़ने के बाद दोनों पछतावा भी करते हैं, यह मानव स्वभाव है कि मानव क्रोध में क्या से क्या कर देता है। क्रोध व्यक्ति की बुद्धि का हरण कर लेता है। क्रोध राक्षस की भांति होता है।
हिंदू विवाह अधिनियम यह प्रयास करता है कि पक्षकारों द्वारा क्रोध में लिए गए निर्णय के कारण उन्हें किसी खतरे में नहीं डाला जाए। धारा 14 यह प्रावधान करती है कि विवाह होने से 1 वर्ष के भीतर कोई विवाह विच्छेद की याचिका कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत नहीं की जाएगी। कोर्ट उस ही याचिका को स्वीकार करेगा जो विवाह होने के एक वर्ष पश्चात कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत की जाएगी। कुछ आपवादिक परिस्थितियों में कोर्ट विवाह विच्छेद की अर्जी स्वीकार कर सकता है जहां पर पक्षकार अत्यंत कष्टदायक स्थिति में हो तथा विवाह का विघटन किया जाना नितांत आवश्यक हो।

