धारा 235 (2) सीआरपीसी: जानिए सजा-पूर्व सुनवाई (Pre-sentence Hearing) के बारे में खास बातें

SPARSH UPADHYAY

23 April 2020 6:02 AM GMT

  • धारा 235 (2) सीआरपीसी: जानिए सजा-पूर्व सुनवाई (Pre-sentence Hearing) के बारे में खास बातें

    दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 का अध्याय 18 (XVIII) सेशन न्यायालय के समक्ष विचारण के बारे में प्रावधान करता है। इस अध्याय के अंतर्गत धाराएँ 225 से 237 आती हैं। इसी के अंतर्गत एक धारा 235 है, जिसकी उपधारा (2) दोषी व्यक्ति के सम्बन्ध में सजा-पूर्व सुनवाई (pre-sentence hearing) के बारे में प्रावधान करती है।

    इसके अंतर्गत, यदि अभियुक्त दोषसिद्ध किया जाता है तो न्यायाधीश, दण्ड (Sentence) के प्रश्न पर अभियुक्त की सुनवाई करता है, और उसके पश्च्यात ही विधि के अनुसार दण्ड पारित करता है। हालाँकि, वह ऐसा तब करने के लिए बाध्य नहीं है जब वह धारा 360 के उपबंधों के अंतर्गत कार्यवाही करता है।

    गौरतलब है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 360, सदाचार की परिवीक्षा पर (Probation of good conduct) या भर्त्सना (admonition) के पश्च्यात आरोपी व्यक्ति को छोड़ देने का आदेश देने के सम्बन्ध में प्रावधान करती है।

    मौजूदा लेख में हम दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 235 (2) को सामान्यतः समझेंगे और यह जानेंगे कि सजा-पूर्व सुनवाई (pre-sentence hearing) क्या होती है और इसका मुख्य उद्देश्य क्या होता है। तो चलिए इस लेख की शुरुआत करते हैं।

    दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 235 (2) क्या कहती है?

    जैसा कि हम जानते ही हैं, सत्र अदालत के समक्ष हर मुकदमे में पहले अभियुक्त की दोषसिद्धि के रूप में निर्णय होना चाहिए। अदालत को प्रथम दृष्टया आरोपियों को दोषी ठहराने या बरी करने का फैसला देना होता है। यदि आरोपी, उसपर लगाये गए आरोपों से बरी हो जाता है, तो कोई और सवाल नहीं उठता है।

    लेकिन अगर उसे उसपर लगाये गए आरोपों का दोषी पाया जाता है, तो अदालत को अभियुक्त को दिए जाने वाले दण्ड के सवाल पर सुनवाई करनी होती है, और फिर कानून के अनुसार उसके बारे में दण्डादेश देना होता है। यही बात दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 235 (2) कहती है।

    यह हम सभी जानते हैं कि किसी व्यक्ति की दोषसिद्धि के पश्च्यात, न्यायाधीश को विधि के अनुसार दण्ड भी देना होता है। हालाँकि, कई बार आरोपी व्यक्ति (जिसको अब मामले का दोषी ठहराया जा चुका है) के शील (Character), उसकी आयु, उसके अपराध के स्वाभाव एवं परिस्थिति को देखते हुए न्यायाधीश को यह लगता है कि दण्ड देने के बजाय, उसे धारा 360 के अंतर्गत सदाचार की परिवीक्षा पर (Probation of good conduct) या Probation of Offenders Act, 1958 के प्रावधानों के तहत उसे छोड़ दिया जाना चाहिए, तो ऐसा किया जा सकता है।

    लेकिन जहाँ ऐसा नहीं किया जाता है, वहां न्यायाधीश को सेशन ट्रायल में आरोपी के दोषी पाए जाने के पश्च्यात उस दोषी व्यक्ति को दण्ड के प्रश्न (Question of Sentence) पर सुनना होता है। इसे ट्रायल/परिक्षण की एक अलग स्टेज के रूप में समझा जा सकता है। धारा 235 (2) इसी स्टेज के सम्बन्ध में प्रावधान करती है।

    यह धारा यह कहती है कि:-

    235 (2) – यदि अभियुक्त दोषसिद्ध किया जाता है तो न्यायाधीश, उस दशा के सिवाय जिसमे वह धारा 360 के उपबंधों के अनुसार कार्यवाही करता है, दण्ड के प्रश्न पर अभियुक्त को सुनेगा और तब विधि के अनुसार उसके बारे में दण्ड देगा

    राजेंद्र प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1979) 3 SCC 646 के मामले में धारा 235 (2) के विषय में यह कहा गया था कि इस धार को हम आम तौर पर सजा से पूर्व सुनवाई (pre-sentence hearing) के रूप में जानते और समझते हैं। एक प्रकार से, इस धारा के अंतर्गत एक अलग ट्रायल का प्रावधान है जो दोषी व्यक्ति को अपनी सजा से पहले सुनवाई का अवसर देती है कि वह दण्ड के प्रश्न पर अदालत के समक्ष अपना पक्ष रख सके।

    सजा-पूर्व सुनवाई (pre-sentence hearing) का महत्व

    इस धारा के अंतर्गत प्रावधान का महत्व यह है कि अदालत को दोषी व्यक्ति के सामाजिक एवं निजी जीवन के बारे में जानने का अवसर मिलता है जोकि विचारण (trial) के दौरान संभव नहीं हो पाता है। इससे अदालत को यह निर्णय लेने में सहायता मिलती है कि दोषी के लिए कितना और क्या दण्ड उपयुक्त रहेगा और दोषी व्यक्ति के साथ उसकी दोषसिद्धि के पश्च्यात कैसा बर्ताव किया जाना चाहिए।

    इस धारा के अंतर्गत, अभियुक्त को मिले अधिकार के जरिये वह अपने दण्ड के सम्बन्ध में अदालत के समक्ष उदारता बरतने के लिए तमाम प्रकार के आधार प्रस्तुत कर सकता है। वह यह दिखाने का प्रयास कर सकता है कि कैसे वह घर में अकेला कमाने वाला है, और कैसे उसे यदि कम दण्ड मिले तो उसका/उसके बच्चों और परिवार का जीवन बर्बाद होने से बच जायेगा और वो जल्दी जेल से बाहर आकर अपने परिवार के लिए कुछ कर सकेगा।

    इसके अलावा वह अदालत को यह भी दिखा सकता है कि इससे पहले उसकी अपराध में कोई संलिप्तता नहीं रही है या कैसे यह उसका प्रथम अपराध था या कैसे अभी उसकी उम्र कम है इत्यादि।

    सजा-पूर्व सुनवाई कैसे होनी चाहिए?

    यहां, धारा 235 (2) के अनुसार, दण्ड के प्रश्न पर अभियुक्त को 'सुनने' का क्या मतलब होगा, यह सवाल अक्सर उठता रहा है? इस प्रावधान में, 'सुनवाई' शब्द का इस्तेमाल अभियुक्त को अदालत के समक्ष उन विभिन्न परिस्थितियों को पेश करने का अवसर देने के लिए किया गया है, जो उसके दण्ड पर असर डाल सकती हैं।

    संता सिंह बनाम पंजाब राज्य 1976 AIR 2386 के मामले में यह आयोजित किया गया था कि धारा 235 (2) के अनुसार 'सुनवाई' का अर्थ, दोषी व्यक्ति की केवल मौखिक प्रस्तुतियाँ सुनने तक ही सीमित नहीं है। बल्कि इसका मतलब अभियोजन और अभियुक्तों को अदालत के समक्ष उन तथ्यों और सामग्री को रखने का अवसर देना है, जो दण्ड के प्रश्न पर असर डालते हैं।

    इसी मामले में आगे कहा गया था कि यदि उन तथ्यों और सामग्री पर किसी भी पक्ष की ओर से संदेह किया जाता है तो उसको स्थापित करने के उद्देश्य से साक्ष्य प्रस्तुत करने का अवसर भी अदालत द्वारा दिया जा सकता है।

    बेशक, अदालत को यह ध्यान रखना होगा कि दण्ड के प्रश्न पर इस सुनवाई का दुरुपयोग नहीं किया जाए। कार्यवाही के शीघ्र निपटान की आवश्यकता पर अदालत द्वारा हमेशा ही बल दिया जाना चाहिए और यह देखा जाना चाहिए कि दोषी पक्ष द्वारा कार्यवाही को लम्बा खींचने का प्रयास तो नहीं किया जा रहा है।

    इसी प्रकार, इस धारा के अंतर्गत दण्ड के प्रश्न पर अभियुक्त/दोषी को सुनने का यह मतलब नहीं कि अभियुक्त/दोषी से बस एक औपचारिक प्रश्न पूछ लिया जाए कि उसे दण्ड के प्रश्न पर क्या कहना है। बल्कि, न्यायाधीश को दोषी से उन सभी बातों के बारे में जानकरी हासिल करने की सच्ची कोशिश करनी चाहिए जो अंततः दण्ड के सवाल से सम्बंधित होगी - मुनियप्पन बनाम तमिलनाडु राज्य 1981 AIR 1220।

    दोषसिद्धि के दिन ही क्या दण्ड के प्रश्न पर सुनवाई की जा सकती है?

    दरअसल, आरोपी एक्स बनाम महाराष्ट्र राज्य 2019 SCC OnLine SC 543 के मामले में पुनरीक्षण याचिका में एक मामला यह उठाया गया कि निचली अदालत ने सज़ा सुनाने से पहले याचिकाकर्ता की सुनवाई अलग से नहीं की। यानी कि अदालत ने जिस दिन दोषसिद्धि का निर्णय सुनाया उसी दिन दण्ड के प्रश्न पर सुनवाई भी कर दी। जिसको लेकर यह दलील दी गयी थी कि यह सीआरपीसी की धारा 235(2) का उल्लंघन है।

    हालाँकि, इसपर पीठ ने आयोजित किया था कि,

    "हमारा मानना यह है कि अगर धारा 235(2) का उद्देश्य पूरा हो रहा है और अगर आरोपी को सज़ा के बारे में अपना पक्ष रखने का पूरा मौक़ा मौखिक या सबूतों के द्वारा दिया गया है तो जिस दिन दोषसिद्धि की गई है, उसी दिन दण्ड के प्रश्न पर सुनवाई पर कोई रोक नहीं है…"।

    अंत में, यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि धारा 235(2) के तहत सार्थक सुनवाई का मतलब सामान्य स्थिति में सुनवाई के लिए दिए गए समय या दिन की संख्या से नहीं होता है। इसकी गुणवत्ता को देखा जाना चाहिए, न कि मात्रात्मक रूप में। निचली अदालत को सीआरपीसी की धारा 235(2) के अनुरूप काम करने का हमेशा ही भरसक प्रयत्न करना चाहिए।

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