धारा 358 सीआरपीसी: जानिए क्या है निराधार गिरफ्तारी के लिए प्रतिकर (Compensation) सम्बन्धी प्रावधान?

SPARSH UPADHYAY

15 April 2020 9:41 AM GMT

  • धारा 358 सीआरपीसी: जानिए क्या है निराधार गिरफ्तारी के लिए प्रतिकर (Compensation) सम्बन्धी प्रावधान?

    अक्सर ऐसा देखा जाता है कि समाज में लोग एक दूसरे को आपसी रंजिश, मतभेद, विवाद या अन्य कारणों के चलते, कानूनी दांव पेंच में फंसाने के लिए कानून का दुरुपयोग करते हैं। वे कानून का सहारा लेकर किसी दूसरे पक्ष पर निराधार आरोप लगाते हैं, जिसके परिणाम-स्वरुप कभी-कभार उस व्यक्ति की पुलिस अफसर द्वारा गिरफ्तारी हो जाती है।

    ऐसे मामलों में गिरफ्तार किये गए पक्ष को काफी परेशानी एवं बिना वजह की समस्याओं से जूझना पड़ता है, ऐसे में यह जरुरी हो जाता है कि कानून द्वारा ऐसे गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को कथित तौर पर निराधार गिरफ्तार करवाने वाले व्यक्ति की ओर से कुछ राहत या प्रतिकर (Compensation) दिलाया जाए। दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 358 इसी सम्बन्ध में प्रावधान करती है।

    मौजूदा लेख में हम इस धारा को गहराई से समझेंगे और यह जानेंगे कि आखिर कब, निराधार गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को प्रतिकार (Compensation) प्राप्त करने का अधिकार है? इसके अलावा हम धारा 358 के बारे में अन्य महत्वपूर्ण बातों पर भी गौर करेंगे।

    क्या है दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 358?

    धारा 358, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अनुसार, अदालत को यह शक्ति प्रदान की गयी है कि वह किसी एक पक्ष को यह आदेश दे सके कि वह, किसी दूसरे पक्ष को, जिसकी उसने पुलिस द्वारा गिरफ्तारी सदोषता पूर्वक करवाई, प्रतिकर (Compensation) दे।

    यह धारा यह कहती है:

    [BARE TEXT BEGINS] 358 निराधार गिरफ्तार करवाए गए व्यक्तियों को प्रतिकर --

    (1) जब कभी कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को पुलिस अधिकारी से गिरफ्तार कराता है, तब यदि उस मजिस्ट्रेट को, जिसके द्वारा वह मामला सुना जाता है यह प्रतीत होता है कि ऐसी गिरफ्तारी कराने के लिए कोई पर्याप्त आधार नहीं था तो, वह मजिस्ट्रेट अधिनिर्णय दे सकता है कि ऐसे गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को इस संबंध में उसके समय की हानि और व्यय के लिए एक हजार रुपए से अनधिक इतना प्रतिकर, जितना मजिस्ट्रेट ठीक समझे, गिरफ्तार कराने वाले व्यक्ति द्वारा दिया जाएगा।

    (2) ऐसे मामलों में यदि एक से अधिक व्यक्ति गिरफ्तार किए जाते हैं तो मजिस्ट्रेट उनमें से प्रत्येक के लिए उसी रीति से एक हजार रुपए से अनधिक उतना प्रतिकर अधिनिर्णीत कर सकेगा, जितना ऐसा मजिस्ट्रेट ठीक समझे।

    (3) इस धारा के अधीन अधिनिर्णीत समस्त प्रतिकर ऐसे वसूल किया जा सकता है, मानो वह जुर्माना है और यदि वह ऐसे वसूल नहीं किया जा सकता तो उस व्यक्ति को, जिसके द्वारा वह संदेय है, तीस दिन से अनधिक की इतनी अवधि के लिए, जितनी मजिस्ट्रेट निर्दिष्ट करे, सादे कारावास का दण्डादेश दिया जाएगा जब तक कि ऐसी राशि उससे पहले न दे दी जाए। [BARE TEXT ENDS]

    धारा 358 (1) यह कहती है कि मजिस्ट्रेट द्वारा एक ऐसे व्यक्ति को प्रतिकर दिलवाया जा सकता है जिसे निराधार गिरफ्तार किया गया था। इस सम्पूर्ण धारा के लिए निम्नलिखित 4 बातें नोट की जानी जरुरी हैं:-

    (a) एक व्यक्ति द्वारा एक पुलिस अफसर के जरिये एक अन्य व्यक्ति को गिरफ्तार करवाया गया हो

    (b) जिस मजिस्ट्रेट द्वारा मामला सुना जा रहा था उसकी यह राय होनी चाहिए कि उस गिरफ्तारी का कोई आधार नहीं था

    (c) निराधार गिरफ्तार किए गए प्रत्येक व्यक्ति को उसके समय की हानि और व्यय के लिए अधिकतम एक हजार रुपए प्रतिकर, गिरफ्तार कराने वाले व्यक्ति की तरफ से मिल सकता है

    (d) प्रतिकर को जुर्माने (fine) के रूप में वसूल किया जायेगा और यदि जुर्माना नहीं वसूला जा सकता, तो जिसकी ओर से जुर्माना देय है वह अधिकतम 30 दिन के सादे कारावास से दण्डित किया जायेगा

    गिरफ्तार करवाने में व्यक्ति की सक्रिय भूमिका है आवश्यक

    दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 358 के लागू होने के लिए यह आवश्यक है कि अपराध की इत्तिला देने वाले व्यक्ति (Informant) या Complainant और गिरफ्तारी के बीच कुछ प्रत्यक्ष समीपता होनी चाहिए।

    प्रमोद कुमार पढ़ी बनाम गोलोखा @ गोल्ला करना एवं अन्य 1986 OLR 89 के मामले में यह साफ़ किया गया था कि उन मामलों में, जहाँ जब संज्ञेय अपराध के कमीशन के बारे में एक सूचना प्राप्त होने पर, एक पुलिस अधिकारी मामले की जांच करता है और फिर भविष्य की कार्रवाई के सम्बन्ध में फैसला करता है और यदि वह किसी अभियुक्त की गिरफ़्तारी करता है, तो यह नहीं कहा जा सकता है कि Informant/Complainant को दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 358 के तहत प्रतिकर देने का आदेश दिया जा सकता है।

    दूसरे शब्दों में, संहिता की धारा 358 के प्रावधानों को आकर्षित करने के लिए, यदि अपराध की इत्तिला देने वाले व्यक्ति (Informant) या Complainant द्वारा थाने को केवल अपराध की सूचना भर भेजी जा रही है तो यह संतोषजनक नहीं है कि ऐसे व्यक्ति को प्रतिकर देने के लिए बाध्य किया जाये और वो भी केवल इसलिए क्योंकि पुलिस ने अपने अन्वेषण के बाद अभियुक्त को गिरफ्तार किया। जाहिर है, महज़ अपराध की सूचना दिए जाने से कुछ अधिक पाया जाना चाहिए।

    चूंकि एक बार अपराध की इत्तिला होने पर पुलिस अपने विवेक से अन्वेषण करती है और अपनी पहल में आगे की कार्यवाही करती है और अन्वेषण के दौरान एकत्र की गई सामग्री के आधार पर ही आरोपी को गिरफ्तार करती है (या नहीं करती है), इसलिए हर मामले में अपराध की इत्तिला देने वाले व्यक्ति (Informant) को आरोपी की गिरफ्तारी का जिम्मेदार नहीं कहा जा सकता है।

    अपराध की इत्तिला देने वाले व्यक्ति (Informant) या Complainant के सम्बन्ध में संहिता की धारा 358 को आकर्षित करने के लिए यह बताने के लिए और भी कुछ रिकॉर्ड पर मौजूद होना चाहिए कि उस व्यक्ति ने पर्याप्त आधार के बिना आरोपियों की गिरफ्तारी का कारण बनाया।

    दूसरे शब्दों में, Informant या Complainant को धारा 358 के अंतर्गत प्रतिकर देने के लिए बाध्य किया जाना है अथवा नहीं इसके लिए परीक्षण ऐसा होना चाहिए, जिससे यह साफ़ हो कि शिकायतकर्ता/परिवादी के असीम प्रयासों के बिना अभियुक्त की गिरफ्तारी को अंजाम नहीं दिया जा सकता था।

    मल्लप्पा बनाम वीराबसप्पा एवं अन्य 1977 Cri LJ 1856 के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने यह आयोजित किया था कि धारा 358 में मौजूद वाक्यांश "उस मजिस्ट्रेट को, जिसके द्वारा वह मामला सुना जाता है, यह प्रतीत होता है" से भी यह साफ़ है कि संहिता की धारा 358 (1) मजिस्ट्रेट की संतुष्टि के लिए कुछ प्रयाप्त आधार मौजूद होना चाहिए जिससे यह साफ़ दिखे कि अपराध की इत्तिला देने वाले व्यक्ति (Informant) या Complainant ने अभियुक्त की गिरफ्तारी करवाई और ऐसी गिरफ्तारी के लिए पर्याप्त आधार मौजूद नहीं था और केवल तभी धारा 358 के अंतर्गत प्रतिकर की बात अस्तित्व में आती है।

    यह ध्यान दिया जाना बेहद आवश्यक है कि यदि मजिस्ट्रेट ने किसी अभियुक्त के बरी होने का रिकॉर्ड दर्ज किया है, तो इसका मतलब यह नहीं कि अपने आप संहिता की धारा 358 के तहत प्रतिकर प्राप्त करने/दिलवाने के लिए यह पर्याप्त आधार होगा.

    इसके अलावा, न ही मजिस्ट्रेट इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है कि चूँकि अभियुक्तों को बरी किया जा रहा है, इसलिए गिरफ्तारी के लिए पर्याप्त आधार नहीं था इसके लिए Informant/Complainant को प्रतिकर देने के लिए बाध्य किया जा सकता है।

    जैसे कि हमने जाना, Informant/Complainant को संहिता की धारा 358 के अंतर्गत प्रतिकर देने के लिए बाध्य करने के लिए, यह बताने के लिए रिकॉर्ड पर कुछ और मौजूद होना चाहिए कि Informant/Complainant ने पर्याप्त आधार के बिना आरोपियों की गिरफ्तारी करवाई।

    क्या Informant/Complainant से कारण दर्शित करने की अपेक्षा की जानी है अनिवार्य?

    इसमें कोई संदेह नहीं है कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 358 में इस्तेमाल किये गए शब्दों के अनुसार, प्रतिकार (Compensation) वसूलने से पहले दूसरे पक्ष (Informant/Complainant) को कारण-बताओ नोटिस जारी करने का प्रावधान नहीं है, लेकिन इसी संहिता में निहित एक अन्य प्रावधान, अर्थात धारा 250 में इस सम्बन्ध में प्रावधान दिया गया है।

    दरअसल, धारा 250 के अनुसार, जब मजिस्ट्रेट की यह राय होती है कि किसी मामले में आरोप लगाने के लिए कोई उचित आधार मौजूद नहीं था, तो मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति से, जिसकी शिकायत या सूचना पर मामला संस्थित किया गया था, यह बताने की अपेक्षा कर सकता है कि वह ऐसे अभियुक्तों को प्रतिकर (Compensation) क्यों न दे (कारण दर्शित करने की अपेक्षा)।

    ऐसी अपेक्षा तब की जाती है जब मजिस्ट्रेट द्वारा, जिसके द्वारा मामला सुना जा रहा था, अभियुक्तों को या उनमे से किसी को उन्मोचित या दोषमुक्त कर दिया जाता है और उसकी यह राय होती है कि उनके या उनमे से किसी के विरुद्ध अभियोग लगाने का कोई उचित कारण नहीं था।

    इसके अलावा, जैसा कि शाह चंदूलाल गोकलदास एवं अन्य बनाम पटेल बलदेवभाई रणछोड़दास एवं अन्य (1979) GLR 821 के मामले में देखा गया था, प्रतिकर के भुगतान के आदेश का जो स्वाभाविक परिणाम होता है (प्रतिकर देना या सादा कारावास का दंड) उसे देखते हुए और इस बात को ध्यान में रखते हुए कि मजिस्ट्रेट को इस निष्कर्ष पर पहुंचना होता है कि ऐसी गिरफ्तारी के लिए पर्याप्त आधार मौजूद था या नहीं, प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों (Principles of Natural Justice) को ध्यान में रखा जाना चाहिए और कोई भी आदेश देने से पहले Informant/Complainant को सुना जाना चाहिए।

    कानून के प्रावधानों को सुचारू रूप से प्रभाव देने के लिए यह आवश्यक है कि कारण दिखाने का एक अवसर दिया जाना चाहिए जिससे सामने वाला पक्ष मजिस्ट्रेट को इस बात को लेकर संतुष्ट करने की कोशिश करें कि गिरफ्तारी के लिए पर्याप्त आधार वास्तव में मौजूद था।

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