जानिए कब अपील करने पर दोषसिद्ध व्यक्ति ज़मानत पर छोड़ा जा सकता है

Shadab Salim

27 July 2020 4:00 AM GMT

  • जानिए कब अपील करने पर दोषसिद्ध व्यक्ति ज़मानत पर छोड़ा जा सकता है

    अपील का अधिकार दोषसिद्ध किए गए व्यक्ति को दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अध्याय 29 के अपील से दिया गया है। दोषसिद्ध हुए व्यक्ति को अपील करने का यह अधिकार सांविधिक (Statute) अधिकार है अर्थात भारत की संसद द्वारा अधिनियमित अधिनियम के माध्यम से दिया गया अधिकार है।

    जब तक किसी दोषसिद्ध व्यक्ति को अपील न्यायालय द्वारा दोषसिद्ध या दोषमुक्त नहीं कर दिया जाता तब तक आरंभिक न्यायालय के निर्णय को अंतिम निर्णय नहीं माना जाता है। अपीलीय न्यायालय को दी गयी शक्तियों में एक सर्वाधिक बड़ी शक्ति दोषसिद्ध किए गए व्यक्ति को जमानत पर छोड़ दिए जाने की शक्ति भी है।

    कोई भी अपील न्यायालय दोषसिद्ध किए गए व्यक्ति को जमानत पर छोड़ सकता है तथा उसके दंड का निलंबन कर सकता है। ऐसे दंड का निलंबन कर देने का अर्थ यह नहीं है कि अपील न्यायालय ने किसी व्यक्ति को दोषमुक्त कर दिया है। अपितु इसका अर्थ यह है कि अपील न्यायालय ने किसी व्यक्ति के दंड का निलंबन कर दिया है, उसे स्थगित कर दिया है।

    धारा 389 सीआरपीसी (Section 389 CrPC)

    धारा 389 सीआरपीसी में यह उपबंधित है कि अपील लंबित रहने तक दंडादेश को निलंबित रखते हुए अपीलार्थी को जमानत पर छोड़ा जा सकता है। धारा 389 के अधीन उपधारा (1) के अधीन इस शक्ति का प्रयोग केवल अपील न्यायालय ही कर सकता है तथा इस धारा के भावबोध में उच्चतम न्यायालय अपील न्यायालय नहीं है।

    इस धारा के अधीन दोषसिद्धि के बाद अभियुक्त को जमानत पर छोड़े जाने की अपीलीय न्यायालय की शक्ति न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर करती है। इस धारा के अधीन दंड का निलंबन किए जाने के कारण अपीलार्थी का दंड अपास्त नहीं होता है केवल स्थगित होता है। इस कारण प्रत्येक प्रायोजन में व्यक्ति को दोषसिद्ध अपराधी ही माना जाता है।

    मध्य प्रदेश राज्य बनाम चिंतामणि 1989 के मामले में यह कहा गया है कि इस धारा के अधीन पारित आदेश की प्रकृति को देखते हुए यह स्पष्ट है कि उचित कारण होने पर अपीलार्थी के दंड के निलंबन को समाप्त कर उसे पुनः गिरफ्तार किए जाने का आदेश देने की शक्ति अंतर्निहित शक्ति के अधीन अपील न्यायालय को प्राप्त है।

    तमिलनाडु राज्य बनाम ए जगन्नाथन का वाद इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। इस वाद में अपीलार्थी जो कि इरोड में पुलिस सब इंस्पेक्टर था। उसे भारतीय दंड संहिता की धारा 392, 218 तथा 466 के अंतर्गत सिद्धदोष घोषित किया गया था। उसकी दोषसिद्धि को सेशन न्यायालय द्वारा पुष्टि की गयी थी जिसके विरुद्ध उसने उच्च न्यायालय में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 389(1) के अधीन आपराधिक पुनरीक्षण याचिका दायर की थी। उच्च न्यायालय ने राम नारायण बनाम रमेश नारंग के पूर्व निर्णय को संज्ञान में लेते हुए निर्णय दिया की अपील की अवधि में अभियुक्त के दंडादेश को लंबित रखा जा सकता है बशर्ते की अपील न्यायालय के कारणों को लेखबद्ध करें। अपील न्यायालय को यह शक्ति दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 द्वारा अंतर्निहित शक्ति के अधीन भी प्राप्त है।

    तमिलनाडु राज्य ने उच्च न्यायालय के उस निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की थी। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रस्तुत वाद में अपीलार्थी जो एक पुलिस इंस्पेक्टर था के कृत्य की ओर उच्च न्यायालय ने ध्यान नहीं दिया और दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए अपील अपीलार्थी के अपील के दौरान निलंबन भत्ते पर लगायी गयी रोक को हटा दिया जो न्यायोचित नहीं था।

    मयूरम सुब्रमण्यम श्रीनिवासन बनाम सीबीआई 2006 सुप्रीम कोर्ट 2449 के वाद में विवादित प्रश्न यह था कि धारा 389 (3) के अधिनियम के उपबंधों पर उच्चतम न्यायालय के नियम 1966 अधिभावी होंगे?

    इस वाद में अपीलार्थी की ओर से यह तर्क प्रस्तुत किया गया था की धारा 389 (3) विचारण न्यायालय को यह शक्ति प्रदान करती है कि वह दोषसिद्ध अभियुक्त को अपील करने का अवसर देने के उद्देश्य से उसे जमानत पर छोड़ने हेतु अपील न्यायालय से उपधारा 1 के अधीन आदेश लेकर आदेश प्राप्ति के पश्चात अभियुक्त की कारावास की सजा अपील के दौरान निलंबित रखी जा सकती। अतः उच्चतम न्यायालय नियम 13क के अंतर्गत यह आदेश पारित नहीं कर सकता कि जब तक अभियुक्त की अपील रजिस्टर नहीं हो जाती वह स्वयं को कारावासित होने के लिए अभ्यर्पण (सरेंडर) करें।

    इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 389 के प्रावधान उच्चतम न्यायालय के नियमों पर अधिभावी प्रभाव नहीं रखते हैं अपितु एक दूसरे से पूर्णता स्वतंत्र होने के कारण उन पर तदनुसार विचार किया जाना चाहिए तथा उच्च न्यायालय द्वारा नियम 13क के अंतर्गत अपीलार्थी को उसकी अपील रजिस्टर होने तक अभ्यर्पण (सरेंडर) का आदेश उचित व वैध था।

    भुनेश्वर यादव बनाम बिहार राज्य के मुकदमे में हत्या के अपराध के लिए दोषसिद्ध पाए गए अभियुक्त की दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील के दौरान उसे जमानत पर छोड़े जाने का प्रश्न न्यायाधीश के समक्ष विचार के लिए था। अपीलार्थी की पूर्व में जमानत पर छोड़े जाने की अर्जी न्यायालय द्वारा इस निर्देश के साथ खारिज कर दी गयी थी कि वह 6 माह बाद हेतु पुनः आवेदन कर सकता है। उसे 6 माह के बाद प्रेषित आवेदन के आधार पर थोड़ा जाना अनुचित माना गया क्योंकि पूर्व में न्यायालय द्वारा दिए गए आदेश में उसे केवल पुनः आवेदन करने का अवसर प्रदान किया गया था ना कि यह आश्वासन की छह माह बाद आवेदन दिया जाने पर उसे जमानत पर छोड़ दिया जाएगा, ऐसा आशय नहीं था कि वह जमानत पर हो जाएगा।

    केंद्रीय जांच ब्यूरो नई दिल्ली बनाम एमएम शर्मा के वाद में प्रत्याशी कि भ्रष्टाचार के अपराध में दोषसिद्धि हुई थी। उसने अपनी दोषसिद्धि के विरुद्ध याचिका दायर की थी जो लंबित थी। अपीलीय न्यायालय ने दोषसिद्धि को बिना कोई कारण दर्शाए निलंबित कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय किया कि अपील न्यायालय का आदेश अपास्त किए जाने की योग्य था।

    दंड देने वाला न्यायालय भी दंड को निलंबित कर सकता है-

    दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 389 की उपधारा (3) के अंतर्गत जिस व्यक्ति को दोषसिद्ध किया गया है उस व्यक्ति का उतने समय के लिए दंड का निलंबन किया जा सकता है जितने समय में अपील करने संबंधी एक युक्तियुक्त समय लगता है।

    दोषसिद्ध किए गए व्यक्ति को यह अधिकार अधिकार पूर्वक प्राप्त है अर्थात वह दंड देने वाले न्यायालय से अधिकार की तरह इतनी अवधि के लिए दंड का निलंबन मांग सकता है जितनी युक्तियुक्त अवधि में अपील की जा सके। परंतु दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 389(3) के अंतर्गत यह अधिकार दोषसिद्ध किए गए व्यक्ति को 2 शर्तो पर प्राप्त होता है-

    1)- जब ऐसा दोषसिद्ध किया गया व्यक्ति जमानत पर रहते हुए 3 वर्ष तक की अवधि के लिए कारावास से दंडित किया गया है।

    2)- ऐसा दोषसिद्ध किया गया व्यक्ति उस अपराध में दोषसिद्ध किया गया है जो जमानतीय है

    यदि न्यायालय इस प्रकार के प्रकरण में दोषसिद्ध किए गए व्यक्ति को जमानत पर छोड़ दिए जाने से इंकार करता है तो ऐसा इंकार करने के विशेष कारणों का उसे उल्लेख करना होगा कि ऐसा दोषसिद्ध (Convicted) किया गया व्यक्ति जमानत पर क्यों नहीं छोड़ा जा सकता और उसका दंडादेश निलंबित क्यों नहीं किया जा सकता।

    कश्मीरा सिंह बनाम पंजाब राज्य 1977 सुप्रीम कोर्ट 2147 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि आजीवन कारावास से दंडित अभियुक्त को जमानत पर छोड़े जाने की नीति पर गंभीरता से पुनः विचार किया जाना चाहिए क्योंकि अपील के निपटारे में अत्यधिक विलंब अपीलार्थी के लिए अहितकर होता है। यह भी अपीलार्थी को उच्चतम न्यायालय में अपील की विशेष अनुमति मंजूर की है तो साधारणतः उसे जमानत पर छोड़ा जाना चाहिए।

    इस प्रकरण में दिए गए विनिश्चय से यह तय होता है कि जब आजीवन कारावास तक के अपराध में दंड को धारा 389 के अंतर्गत निलंबित किए जाने पर उच्चतम न्यायालय बल दे रहा है तो फिर सीआरपीसी की धारा 389 (3) के अंतर्गत तो अधिकार पूर्वक अभियुक्त छोड़ा जाना चाहिए क्योंकि अपील की अवधि में कितना समय लगेगा इस बात का निर्धारण अधिक कठिन होता है।

    अभियुक्त दोषसिद्ध किए जाने पर दोषी तो हो जाता है परंतु उसको दिए गए दंड को अन्तिमता नहीं प्राप्त होती है। अन्तिमता तभी प्राप्त होगी जब उसके अपील के समस्त अधिकार समाप्त हो जाते हैं।

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