भारत का संविधान (Constitution of India) भाग 7: भारत के संविधान के अंतर्गत प्राण और दैहिक स्वतंत्रता

LiveLaw News Network

8 Feb 2021 10:46 AM IST

  • भारत का संविधान (Constitution of India) भाग 7: भारत के संविधान के अंतर्गत प्राण और दैहिक स्वतंत्रता

    पिछले आलेख में भारत के संविधान से संबंधित स्वतंत्रता के अधिकार पर दिए गए अनुच्छेद 19 का अध्ययन किया गया था, इस आलेख में भारत के संविधान अनुच्छेद-21 के अंतर्गत दिए गए प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लेख किया जा रहा है।

    प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार अनुच्छेद-21

    भारत के संविधान के भाग 3 मूल अधिकार के अंतर्गत अनुच्छेद 21 सर्वाधिक महत्वपूर्ण अनुच्छेद है। यदि महत्ता के दृष्टिकोण से इस अनुच्छेद को देखा जाए तो समस्त मूल अधिकारों का निचोड़ हमें इस अनुच्छेद के अंतर्गत प्राप्त होता है।

    शब्दों के आधार पर तो यह अनुच्छेद छोटा सा है परंतु भारत के न्यायालयों ने इस अनुच्छेद की बहुत अधिक विस्तृत विवेचना समय-समय पर प्रस्तुत की है। प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार सभी अधिकारों में श्रेष्ठ है और अनुच्छेद 21 इस ही अधिकार को संरक्षण प्रदान करता है। कुछ इसलिए भी इस अनुच्छेद का इतना महत्व है।

    इस आलेख में भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत दी गई प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार पर अध्ययन किया जा रहा है।

    अनुच्छेद 21 में नागरिक शब्द का प्रयोग न करके व्यक्ति शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका अर्थ यह है कि अनुच्छेद 21 का संरक्षण नागरिक और विदेशी सभी प्रकार के व्यक्तियों को प्राप्त है। इस अनुच्छेद का संरक्षण प्राप्त करने के लिए शर्त केवल मनुष्य होना है।

    इस धरती के समस्त मनुष्यों को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत संरक्षण प्रदान किया गया है। यह विदित है कि कोई भी अधिकार अत्यंतिक नहीं है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अस्तित्व एक सुव्यवस्थित समाज में ही संभव है इसके लिए व्यक्तियों के अधिकार पर निर्बंधन लगाना जरूरी भी जिससे दूसरे के अधिकारों का हनन न हो। भारतीय संविधान में इसी बात को ध्यान में रखते हुए व्यक्तियों के प्राण और दैहिक स्वतंत्रता को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अधीन रखा गया है।

    राज्य युक्तियुक्त प्रक्रिया के अनुसार किसी व्यक्ति को उसके प्राण दैहिक स्वतंत्रता से वंचित कर सकता है अर्थात प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार भी युक्तियुक्त निर्बंधनो के अधीन है। राज्य समय-समय पर निर्बंधन लगा सकता है।

    भारत में दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अधीन है अर्थात अनुच्छेद 21 में प्रदत्त अधिकार विधायिका द्वारा बनाई गई विधियों के अधीन है किंतु बाद के मामलों में दिए गए निर्णय के परिणामस्वरूप अब अमेरिकन और भारतीय स्थिति में कोई विशेष अंतर नहीं रह गया है।

    उच्चतम न्यायालय ने उपर्युक्त मामले में नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत को अनुच्छेद 21 का एक आवश्यक तत्व मान लिया है। मेनका गांधी के प्रकरण में अनुच्छेद 21 में प्रयुक्त दैहिक स्वतंत्रता पदावली पर्याप्त विस्तृत अर्थ वाली पदावली है।

    इसके अंतर्गत दैहिक स्वतंत्रता में सभी आवश्यक तत्व शामिल हैं जो व्यक्ति को पूर्ण बनाने में सहायक है। इस अर्थ में इस पदावली में अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत स्वतंत्रता के सभी अधिकार भी आ जाते हैं किंतु प्रारंभ में उच्चतम न्यायालय ने इस पदावली का बहुत संकुचित अर्थ लगाया है।

    ए के गोपालन बनाम मद्रास राज्य 1952 उच्चतम न्यायालय 27 के मामले में पिटीशनर को निवारक निरोध अधिनियम 1950 के अधीन निरूद्ध करके जेल भेज दिया गया था। पिटीशनर ने अपने निरोध की विधिमान्यता को निम्नलिखित आधारों पर चुनौती दी।

    उसका पहला तर्क यह था कि इससे उसके अनुच्छेद 19 में प्रदत समस्त भारत में भ्रमण की स्वतंत्रता के अधिकार का अनुच्छेद 19 (5) के अंतर्गत अतिक्रमण होता है जो दैहिक स्वतंत्रता का एक आवश्यक तत्व है।

    उक्त निरोध उसके अधिकार पर आयुक्तियुक होता है जो दैहिक स्वतंत्रता का एक आवश्यक तत्व है। उक्त निरोध उस पर आयुक्तियुक्त निर्बंधन लगाता है और यह निरोध अवैध है।

    अपने दूसरे तर्क में उसने कहा कि निरोध अनुच्छेद 21 का अतिक्रमण करता है क्योंकि यह व्यक्ति की दैहिक स्वतंत्रता को विधि द्वारा विहित प्रक्रिया के विरुद्ध वंचित करने को प्राधिकृत करता है। उसने यह तर्क दिया कि विधि शब्द के अंतर्गत नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत निहित है और ऐसी विधि जिनमे ऐसे सिद्धांत नहीं है अवैध करार दी जानी चाहिए।

    अनुच्छेद 21 में प्रयुक्त विधि द्वारा विहित प्रक्रिया पदावली को उसी अर्थ में प्रयुक्त किया गया है जिस अर्थ में अमेरिकन संविधान में सम्यक विधि प्रक्रिया शब्दावली का प्रयोग किया गया है। सम्यक विधि प्रक्रिया में नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत भी आते हैं।

    संक्षेप में उसका तर्क था कि विधि द्वारा विहित प्रक्रिया युक्तियुक्त न्याय पूर्ण एवं नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के अनुसार होनी चाहिए। इस प्रकार का यह कथन था कि निवारक निरोध अधिनियम अनुच्छेद 21 अनुच्छेद 19 दोनों का ही अतिक्रमण करता है अतः वह असंवैधानिक है।

    -इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने पिटीशनर के सभी तर्कों को अस्वीकार कर दिया और यह अभिनिर्धारित किया कि यह दैहिक स्वतंत्रता का एक व्यापक अर्थ वाला शब्द है किंतु अनुच्छेद 21 में इसके क्षेत्र को दैहिक विश्लेषण लगाकर सीमित कर दिया गया है और इस अर्थ में दैहिक स्वतंत्रता का अर्थ शारीरिक स्वतंत्रता मात्र से है अर्थात बिना विधि के प्राधिकार के किसी व्यक्ति को कारावास में विरुद्ध करने आदि की स्वतंत्रता है।

    यह परिभाषा अनेक विद्वानों की दी गई परिभाषा पर आधारित थी जिसका उल्लेख अनेक उदारवादी देशों के संविधान में किया गया था। बहुमत के अनुसार अनुच्छेद 21, 19 स्वतंत्रता के अधिकार के दो विभिन्न पहलुओं से संबंधित है। अनुच्छेद 19 में प्रयुक्त समस्त भारत ने भ्रमण का अधिकार अनुच्छेद 21 में प्रदत्त स्वतंत्रता से बिल्कुल भिन्न है।

    अनुच्छेद 21 के अधीन दैहिक स्वतंत्रता को वंचित करने वाली विधि की विधिमान्यता को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है कि अनुच्छेद 19 (5) के अधीन आयुक्तियुक निर्बंधन लगाती है अथवा अविधिमान्य है।

    पिटीशनर को उसकी दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार वंचित किया गया था उक्त विधि संविधान विरोधी नहीं है बल्कि संविधानिक है।

    इस मामले में न्यायधीश फजल अली ने बहुमत के खिलाफ निर्णय दिया और यह निर्णय दिया कि दैहिक स्वतंत्रता पदावली बहुत व्यापक अर्थ वाली है जिसमें भ्रमण की स्वतंत्रता भी शामिल है।

    अनुच्छेद 19 में समस्त भारत में भ्रमण की स्वतंत्रता दैहिक स्वतंत्रता का एक आवश्यक तत्व है अतः स्वतंत्रता को जीने के लिए बनाई गई विधि को अनुच्छेद 19 (5) की शर्ते पूरी करनी चाहिए अन्यथा वह अवैध हो जाएगी।

    इस प्रकरण के बाद के निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने अपने गोपालन के मामले में दी हुई दैहिक स्वतंत्रता की पदावली के शाब्दिक सीमित अर्थ को अस्वीकार कर दिया और इसका बहुत व्यापक अर्थ लगाया है।

    न्यायालय के अनुसार दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार केवल शारीरिक स्वतंत्रता प्रदान करने तक सीमित नहीं है वरन यह एक विस्तृत अर्थ वाली पदावली है जिसके अंतर्गत सभी प्रकार के अधिकार सम्मिलित हैं जो व्यक्ति की दैहिक स्वतंत्रता को पूर्ण बनाते हैं जिनमें से कुछ को अनुच्छेद 19 के अधीन सुस्पष्ट विभिन्न मूल अधिकारों का दर्जा दिया गया है और उन्हें अतिरिक्त संरक्षण प्रदान किया गया है।

    अनुच्छेद 21 व्यक्ति को उसकी निजी जीवन में किसी प्रकार का अधिकृत हस्तक्षेप से संरक्षण प्रदान करता है चाहे वह प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष। अनुच्छेद 21 सभी प्रकार के मनोवैज्ञानिक अवरोधों के विरुद्ध भी संरक्षण प्रदान करता है।

    मेनका गांधी के मामले में उच्चतम न्यायालय ने एक के गोपालन के मामले में दिए निर्णय को उलट दिया। स्वतंत्रता के क्षेत्र को अत्यंत विस्तृत कर दिया अनुच्छेद 21 अब कार्यपालिका और विधायिका दोनों के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है। गोपालन के मामले में न्यायाधीश फ़ज़ल अली द्वारा दिए गए विसम्मत निर्णय को मेनका गांधी के मामले में बहुमत में स्वीकार कर लिया गया।

    मेनका गांधी का यह प्रकरण एआईआर 1978 उच्चतम न्यायालय 597 का प्रकरण है। इस समय भारत के उच्चतम न्यायालय ने प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार को अनुच्छेद 21 के अंतर्गत अत्यंत विस्तृत अधिकार कर दिया था।

    मेनका गांधी के इस मामले में पिटीशनर को पासपोर्ट एक्ट 1967 के अधीन विदेश जाने के लिए पासपोर्ट दिया गया था। उसका पासपोर्ट 7 दिनों के भीतर लौटा देने के लिए आदेश दिया गया था।

    पिटीशनर ने पासपोर्ट अधिकारी से आदेश पारित करने के कारणों को देने की मांग की जिसे सरकार ने लोक हित में देने से इनकार कर दिया। इसके बाद में पासपोर्ट एक्ट के अधीन पारित आदेश की विधिमान्यता को पासपोर्ट एक्ट की धारा 10 (3) को अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण करती है इस आधार पर क्योंकि वह पासपोर्ट अधिकारी को स्पष्ट तथा मनमाना अधिकार प्रदान करती है चुनौती दी गई।

    पिटीशनर ने कहा कि उक्त धारा संबंधित अधिकारी को मनमानी शक्ति प्रदान करती है क्योंकि इसके अधीन पासपोर्ट धारक को सुनवाई का अवसर दिए बिना उसको पासपोर्ट से वंचित करने की शक्ति प्रदान करती है।

    इसके बाद पिटीशनर ने कहा कि यह विधि अनुच्छेद 21 का अतिक्रमण करती है क्योंकि यह मनमानी और आयुक्त प्रक्रिया द्वारा उसे उसके अधिकार से वंचित करती है। उक्त धारा अनुच्छेद 19 (1) (क) और (ज) का अतिक्रमण करती है।

    अनुच्छेद 19 (2)(6) के अनुसार युक्तियुक्त नहीं लगाती है। इस मामले में न्यायालय में सुनवाई के समय सरकार की ओर से यह कहा गया कि ऐसा इसलिए किया था क्योंकि एक जांच आयोग के संबंध में सबूत देने के लिए पिटीशनर की उपस्थिति आवश्यक थी किंतु अटॉर्नी जनरल ने कहा कि सुनवाई का अवसर दें तथा उसके प्रतिवेदन को शीघ्र निपटाने के लिए सहमत है।

    इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अनुच्छेद 21 में प्रयुक्त प्रक्रिया का अर्थ कोई प्रक्रिया नहीं है बल्कि ऐसी प्रक्रिया है जो औचित्यपूर्ण हो, न्यायपूर्ण हो और युक्तियुक्त हो। युक्तियुक्तता का सिद्धांत अनुच्छेद 14 का आवश्यक तत्व है। किसी व्यक्ति को उसके मूल अधिकार से वंचित करने के लिए विहित प्रक्रिया युक्तियुक्त होनी चाहिए।

    प्रक्रिया युक्तियुक्त तभी होगी जब नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का पालन किया जाएगा। नैसर्गिक न्याय का सिद्धांत कानून को मानवतावादी दृष्टिकोण प्रदान करता है और उसे न्याय पूर्ण बनाता है किसी व्यक्ति के पासपोर्ट वापस लेने के पहले उसे सुनवाई का अवसर देना आवश्यक तत्व है।

    इस प्रकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत किसी व्यक्ति को उसकी स्वतंत्रता से वंचित करने के लिए कुछ शर्ते हैं जिनका पूरा होना आवश्यक है। जैसे-

    विधि, विधिमान्य होना चाहिए।

    विधि को प्रक्रिया विहित करनी चाहिए।

    न्याय पूर्ण को युक्तियुक्त होनी चाहिए।

    विधि को अनुच्छेद 14 और 19 की अपेक्षाओं को भी पूरा करना चाहिए अर्थात उसे युक्तियुक्त होना चाहिए।

    न्यायाधीश श्री भगवती ने अपना बहुमत से निर्णय सुनाते हुए कहा कि अनुच्छेद 21 में प्रयुक्त दैहिक स्वतंत्रता पदावली का सामान्य स्वभाविक अर्थ लगाना चाहिए उसका ऐसा सीमित अर्थ नहीं लगाना चाहिए जिससे दैहिक स्वतंत्रता के तत्व उसमें से निकल जाएं जिनका अनुच्छेद 19 में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है।

    अनुच्छेद 21 में प्रयुक्त स्वतंत्रता शब्दावली अत्यंत व्यापक अर्थ वाली पदावली है और इसके अंतर्गत ऐसे बहुत से अधिकार सम्मिलित हैं जिनसे व्यक्ति की दैहिक स्वतंत्रता का गठन होता है और उनमें से कुछ को विशिष्ट मूल अधिकारों का दर्जा दिया गया है और अनुच्छेद 21 के अधीन अतिरिक्त संरक्षण प्रदान किया गया है।

    न्यायधीश भगवती ने अपने निर्णय में स्पष्ट कर दिया कि भारत के संविधान के अंतर्गत अनुच्छेद 14 अनुच्छेद 19 में जो अधिकार दिए गए हैं यह सभी अधिकार अनुच्छेद 21 के अंदर भी समाहित है। अनुच्छेद 21 के अंतर्गत इन अधिकारों को अतिरिक्त रूप से संरक्षण दिया गया है।

    महाराष्ट्र राज्य बनाम मधुकर नारायण एआईआर 1991 उच्चतम न्यायालय 207 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि एक चरित्रहीन महिला को भी एकांतता का अधिकार प्राप्त है और उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता है। इस मामले में तथ्य यह था कि एक पुलिस इंस्पेक्टर एक महिला के घर गया और उससे लैंगिक संबंध स्थापित करना चाहा किंतु उसने इंकार कर दिया।

    बलपूर्वक ऐसा प्रयास किए जाने पर उसने हल्ला मचाया और वह पकड़ा गया। अपने विरुद्ध परीक्षण में उसने तर्क दिया कि उक्त महिला एक चरित्रहीन महिला है तथा उसका साक्ष्य मान्य नहीं है।

    न्यायालय ने उसके तर्क को अस्वीकार कर दिया और उसे उक्त महिला के अनुच्छेद 21 के द्वारा प्रदत एकाग्रता के अधिकार के उल्लंघन करने के लिए दोषी ठहराया और दंडित किया गया। भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत एकांतता का अधिकार भी प्रदान किया गया है।

    लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एआईआर 2006 उच्चतम न्यायालय 2522 के मामले में एक 27 वर्ष की नव युवती पिता की मृत्यु के पश्चात अपने भाई के साथ रह रही थी। वह अपने भाई का घर स्वेच्छा से छोड़कर एक व्यक्ति ब्रह्मानंद गुप्ता से आर्य समाज मंदिर में जाकर विवाह कर लेती है।

    भाई ने पुलिस में अपनी बहन के गायब होने की रिपोर्ट लिखवाई पुलिस ने उसके पति और बहनों को गिरफ्तार कर लिया। उसका भाई जो उसके अंतरजातीय विवाह से नाराज था उसके पति को बहुत मारा पीटा और धमकी दी और उसके पति को जान से मार दिए जाने का कहा।

    उसने पुलिस में उसके पति और परिवार के विरुद्ध अपनी बहन का अपहरण करने की रिपोर्ट भी लिखवाई। पुलिस ने उन सभी को गिरफ्तार कर लिया पुलिस ने इस बयान के बावजूद मजिस्ट्रेट ने उसकी गिरफ्तारी का वारंट जारी कर दिया। बाद में पुलिस ने अपनी फाइनल रिपोर्ट लगाई।

    इस मामले में गंभीर चिंता व्यक्त की थी और उसे अपनी स्वेच्छा से किसी भी व्यक्ति के साथ विवाह करने का अधिकार था और ऐसा अधिकार उसे भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत दिया गया है। उसने कोई अपराध नहीं किया था उसके विरुद्ध मजिस्ट्रेट के न्यायालय द्वारा चलाया गया आपराधिक मामला भी खंडित कर दिया गया।

    पुलिस प्रशासन को यह निर्देश दिया गया कि उसे परेशान न करें तथा उसे पूर्ण सुरक्षा प्रदान करें। अनुच्छेद 21 के अंतर्गत उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार है जिसका उल्लंघन कोई नहीं कर सकता।

    मेनका गांधी के मामले में दिए गए अपने ऐतिहासिक निर्णय के बाद पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम भारत संघ एआईआर 1981 उच्चतम न्यायालय 1473 के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक निर्णय को दोहराते हुए कहा कि एशियाड खेलों की विभिन्न योजनाओं में कार्यरत श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी का भुगतान न करना अनुच्छेद 21 द्वारा प्रदत उनके मानव गरिमा के साथ जीविकोपार्जन के अधिकार का उल्लंघन करना है।

    श्री भगवती ने बहुमत का निर्णय सुनाते हुए निर्धारित किया की विभिन्न विधियों के अधिकारों को अधिकार और सुविधाएं मानव गरिमा को सुरक्षित रखने के लिए प्रदान किए गए हैं। यदि उन्हें वंचित किया जाता है तो वह अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगा।

    एशियाड योजनाओं में कार्य करने वाले श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी 9 रुपये दिया जाना था किंतु ठेकेदारों के जवानों ने उन्हें केवल ₹8 मजदूरी ₹1 कमीशन काट लिया। इसे अवैध घोषित कर दिया क्योंकि न्यूनतम मजदूरी न दिए जाने से श्रमिकों के अनुच्छेद 21 के अधीन मानव गरिमा से जीविकोपार्जन के अधिकार का उल्लंघन होता है।

    इस मामले में यह भी तय हो गया कि गरिमा से जीने का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत समाहित है क्योंकि गरिमा का उल्लेख भारत के संविधान की प्रस्तावना अंतर्गत किया गया है।

    जॉली जॉर्ज वर्गीज़ बनाम कोचीन बैंक एआईआर 1980 उच्चतम न्यायालय 470 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि एक निर्धन पर ईमानदार कर्ज़दार इस आधार पर गिरफ्तारी करना और जेल में निरूद्ध करना कि वह अपनी निर्धनता के कारण डिग्री प्रदान की गई ऋण की रकम चुकाने में असमर्थ था।

    संविधान के अनुच्छेद 21 का और इंटरनेशनल कान्वेंट ऑन सिविल एंड पॉलीटिकल राइट्स की धारा 11 का अतिक्रमण करना होगा। अंतरराष्ट्रीय अधिकारों की धारा 11 उपबंधित करती है कि किसी व्यक्ति को अपने संविदात्मक दायित्व को पूरा करने में असमर्थ होने मात्र के आधार पर बंदी नहीं बनाया जाएगा।

    न्यायाधीश श्री कृष्ण ने बहुमत का निर्णय सुनाते हुए इस मामले में यह अभिनीत किया कि एक निर्धन व्यक्ति को केवल कर्ज न चुकाने के कारण निरूद्ध करना भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन बिना उचित प्रक्रिया के उसे उसकी प्राण और दैहिक स्वतंत्रता से वंचित करना है। निर्धन होना कोई अपराध नहीं है।

    ऐसे व्यक्ति को करवासित करना ऋण प्राप्त करना जब तक कि वह पर्याप्त साधन के बावजूद ऋण चुकाने में असमर्थ रहता है, आने का इरादा नहीं रखता है अनुच्छेद 21 का अतिक्रमण होगा यानी सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 51 को अवैध न घोषित कर के अपने निर्णय को दृष्टि में रखते हुए मामले को अधीन न्यायालय के पास निर्णय के लिए प्रेषित कर दिया था।

    भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन बनाम भारत संघ एआईआर 2002 उच्चतम न्यायालय 3081 के मामले में भारत संघ तथा मध्य प्रदेश राज्य को निर्देश दिया गया कि विशाल विषाक्त सामग्री अपशिष्ट जो कि यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन लिमिटेड भोपाल की फैक्ट्री के अंदर पड़ी थी कि शीघ्र विनीत किए जाने की आवश्यकता थी, 6 महीने के अंदर कठोर रूप से वैज्ञानिक ढंग से हटा दिया जाए जो मानव स्वास्थ्य पर्यावरण को हानि न करें।

    पीयूसीएल बनाम भारत संघ एआईआर 2000 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि ऐसे लोग जो खाद्य सामग्री खरीदने की असमर्थता के कारण भूख से पीड़ित है उन्हें अनुच्छेद 21 के अधीन राज्य द्वारा खाद सामग्री मुफ्त पाने का मूल अधिकार है और उस समय जब राज्य के गोदाम में पर्याप्त मात्रा में अनाज भरे पड़े हैं और सड़ रहे हो।

    न्यायालय ने कहा कि ऐसी परिस्थिति में राज्य को सभी वृद्धों दुर्लभ विकलांग निराश्रित महिला निराश्रित पुरुष गर्भवती के दूध पिलाने वाली महिला को बालकों को खाद सामग्री प्रदान करना चाहिए।

    न्यायालय ने राज्यों को उपयुक्त सभी व्यक्तियों को अपने गोदामों में पड़े अतिरिक्त खदानों को तत्काल राशन की दुकानों के माध्यम से देने का निर्देश दिया जिससे भूख और कुपोषण से होने वाली मृत्यु से लोगों को बचाया जा सके और भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 को अधिक समृद्ध कर दिया।

    भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल नहीं किया गया है।

    अरूणा रामचंद्र शानबाग बनाम भारत संघ एआईआर 2011 उच्चतम न्यायालय 1290 के मामले में यह निर्धारित हुआ है कि किसी व्यक्ति को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत केवल जीवन का अधिकार है उसमे मृत्यु का अधिकार सम्मिलित नहीं है।

    कुछ विशेष परिस्थितियों में मृत्यु का अधिकार दिए जाने को बाद के निर्णय में भारत के उच्चतम न्यायालय ने मान्यता दी है परंतु इस प्रकार की मान्यता अत्यधिक संकुचित मान्यता है। अब तक भारत के संविधान के अंतर्गत प्राण की स्वतंत्रता के अधिकार में मृत्यु का अधिकार सम्मिलित नहीं हुआ है।

    सुशांता टैगोर बनाम भारत संघ एआईआर 2005 के मामले में अपीलार्थी ने जो सुशांता निकेतन का निवासी है कोलकाता उच्च न्यायालय में एक लोकहित वाद फाइल किया जिसमें उसने शांतिनिकेतन के आसपास भवन निर्माताओं द्वारा भवनों एवं प्रतिष्ठानों के निर्माण से शांति निकेतन के राष्ट्रीय महत्व को और उसकी पारंपारिक प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंच रहा है जिसे रोका जाना चाहिए।

    उच्च न्यायालय से उपचार न मिलने पर उसने प्रस्तुत अपील उच्चतम न्यायालय में फाइल की। उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि विश्व भारती विश्वविद्यालय की परंपरा की विरासत की स्थापना के उद्देश्य से पर्यावरण प्रदूषण से संरक्षण प्रदान करना सरकार का दायित्व है। शांति निकेतन विश्वविद्यालय की स्थिति अन्य विश्वविद्यालय से भिन्न है वह एक राष्ट्रीय स्मारक है।

    शहर का विकास योजना अधिकारियों का कार्य है किंतु उन्हें कानून की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करना चाहिए। मूल कर्तव्यों को बनाए रखना चाहिए।

    बचपन बचाओ आंदोलन बनाम भारत संघ 2011 के मामले में उच्चतम न्यायालय में एक लोकहित वाद में सर्कस में बच्चों को बलपूर्वक निरूद्ध किए जाने जिसमें उन्हें अपने परिवार से मिलने नहीं दिया जाता था और अमानवीय स्थितियों के अधीन रहना पड़ता था जिनमें लैंगिक शारीरिक तथा भावनात्मक दुरुपयोग थे तथा अन्य आधारभूत मानवीय आवश्यकताएं जैसे कि भोजन पानी स्वच्छता सोने के समय से वंचित किया जाना तथा उच्च जोखिम के घटक इत्यादि थे।

    न्यायालय द्वारा इस संबंध में कुछ निर्देश जारी किए गए उसमें कहा गया के अनुच्छेद 21A के अधीन अपने मौलिक अधिकारों के लागू किए जाने के लिए केंद्र सरकार द्वारा उपयुक्त अधिसूचना अवश्य जारी की जाए जिसमें बच्चों को सर्कस में नियोजित किए जाने पर 2 मास के अंतर्गत प्रतिबंध लगाया जाए।

    प्रत्यर्थीगण सभी सर्कस पर एक साथ छापा मारकर बच्चों को स्वतंत्र कराएं तथा बचाएं गए बच्चों की देखरेख ग्रहों में 18 वर्ष की आयु प्राप्त होने तक रखा जाए। बचाए गए बच्चों के पुनर्वास के लिए उचित योजनाएं बनाएंगे तथा मानव संसाधन मंत्रालय के सचिव महिला एवं बाल विकास विभाग 10 सप्ताह के अंदर विस्तृत शपथ पत्र दाखिल करेंगे।

    ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार एआईआर 2014 उच्चतम न्यायालय 187 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज किए जाने के बाद अन्वेषण करना विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया है तथा यह संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुरूप है।

    न्यायालय ने इस तर्क को अस्वीकार कर दिया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज किए जाने के पहले प्रारंभिक अन्वेषण अवश्य किया जाना चाहिए तथा प्रावधानों को दुर्भावनायुक्त अभियोजन तथा प्रत्येक नागरिक को संविधान के अनुच्छेद 14,19,21 के अधीन प्राप्त अधिकारों के परिक्षेप में अवश्य पढ़ा जाना चाहिए तथा पुलिस अधिकारी का धारा 154 यह कर्तव्य है कि एक निर्दोष व्यक्ति किसी मामले में गलत नहीं फंसाया जाए।

    धारा 154 के अधीन यदि पुलिस थाने का टीआई अपराध संज्ञेय होने का संदेह रखता है तो पुलिस संज्ञेय अपराध की सूचना न मिलने पर भी अन्वेषण करने के लिए अग्रसर होने के लिए कर्तव्य से बाध्य है।

    विधि का आशय स्पष्ट है कि प्रत्येक संज्ञेय अपराध का विधि के अनुसार तत्परता से अन्वेषण किया जाए इसका कोई कारण नहीं है कि पुलिस का यह विवेकाधिकार हो कि संज्ञेय अपराध की सूचना प्राप्त होने पर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करें या न करें। धारा 154 की मात्र अपेक्षा यह है कि रिपोर्ट से संज्ञेय अपराध का होना अवश्य प्रकट हो और यह अन्वेषण यांत्रिकी को आरंभ करने के लिए पर्याप्त है।

    संशोधन के द्वारा धारा 154 में जोड़ी गई धारा तीन से विधायी आशय स्पष्ट रूप से सुनिश्चित है कि संज्ञेय अपराध से संबंधित किसी भी सूचना को कतई उपेक्षित न किया जाए या उस पर कार्यवाही न की जाए जिससे अभी कथित अपराधी अभियुक्त का अन्याय उचित संरक्षण होता है।

    अतः प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज किए जाने के बाद अभियोजन करना विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया है तथा अनुच्छेद 21 के अनुरूप है। प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने के बाद विधि के प्रावधानों के अनुसार अभियोजन किया जाता है तो संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन अभियुक्त का अधिकार संरक्षित रहता है।

    भारत के संविधान के अंतर्गत अनुच्छेद 21 से संबंधित सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन का भी एक महत्वपूर्ण मामला है। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने सुनील बत्रा के निर्णय का अनुसरण करते हुए यह कहा है कि जेल में उन कैदियों को जिन के मामले विचाराधीन है सिद्धदोष कैदियों के साथ रखना अनुच्छेद 19 और 21 का अतिक्रमण करता है।

    विचाराधीन कैदी तब तक निर्दोष होते हैं जब तक उनका अपराध सिद्ध नहीं कर दिया जाता है, उनके साथ अमानवीय व्यवहार करना जिसे एकांतवास में रखना आवश्यक वस्तुओं से वंचित रखना या सुदूर जेल में भेज देना ताकि उसके मित्र संबंधी परिवार के लोग न मिल सके अनुच्छेद 21 में प्रदत्त प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करना है।

    इस मामले में पिटीशनर तिहाड़ जेल में आजीवन कारावास का दंड भुगत रहा था। उसने जेल में उसके साथ किए गए अमानवीय और बर्बर व्यवहार के विरुद्ध सुरक्षा के लिए न्यायालय से प्रार्थना की एक वार्डन ने इसलिए उसे मारा पीटा क्योंकि उसने उसे पैसा नहीं दिया।

    सुनील बत्रा जो एक दोषसिद्ध अपराधी था को यह घटना का पता चला तो उसने न्यायालय को एक पत्र द्वारा इसकी सूचना दी। न्यायालय ने पत्र को बंदी प्रत्यक्षीकरण लेख के रूप में स्वीकार करके जेल अधिकारियों को निम्नलिखित निर्देश दिए।

    न्यायालय ने कहा कि- कैदी के साथ किया गया बर्ताव अवैध था और उसके साथ बिना उचित प्रक्रिया की कोई ऐसा बर्ताव नहीं किया जा सकता, इसके शरीर के साथ कोई अमानवीय बर्ताव नहीं किया जाएगा जिलाधीश, सेशन जज, उच्च न्यायालय, उच्चतम न्यायालय द्वारा नियुक्त अधिवक्ता गण समय-समय पर जेल में जाएंगे कैदियों से उनकी शिकायतें सुनेंगे और संबंधित न्यायालय को अपनी रिपोर्ट प्रेषित करें।

    एक जेल में शिकायत पेटी रखी जाएगी जिसे जिलाधीश द्वारा समय-समय पर खोला जाएगा। जिलाधीश 1 सप्ताह में एक बार जेल का दौरा करेंगे शिकायतें सुनेंगे तथा उचित कार्यवाही करेंगे। एकांतवास कठोर श्रम झूठे आरोप सुविधाएं और विशेष अधिकारों से इनकार करना अन्य जेल कैदियों को हस्तांतरित करने वालों के अनुमोदन से ही दिए जा सकते हैं।

    हुस्नारा खातून बनाम बिहार राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि शीघ्र विचार और निशुल्क विधिक सहायता के अधिकार अनुच्छेद 21 के अंतर्गत शामिल हैं और यह प्राण दैहिक स्वतंत्रता का हिस्सा है।

    भारतीय संविधान में शीघ्रता विचारण के मूल अधिकार का कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है पर निसंदेह रूप से अनुच्छेद 21 में यह अधिकार है। जैसा कि इसका निर्वाचन मेनका गांधी के मामले में किया गया है कोई भी प्रक्रिया जो युक्तियुक्त शीघ्र परीक्षण को सुनिश्चित नहीं करती है उसे युक्तियुक्त उचित नहीं कहा जा सकता, इसलिए न्यायालय ने बिहार राज्य के विभिन्न जेलों में बंद सिद्धदोष व्यक्तियों को जो कई वर्षों से विचारण की प्रतीक्षा कर रहे थे तुरंत रिहा करने का आदेश दिया।

    इससे उनके अनुच्छेद 21 में निहित शीघ्र विचारण के अधिकार का उल्लंघन हुआ था। हुस्नआरा खातून के मामले में न्यायालय ने निर्णय को दोहराया कि अभियुक्त को अपने मामलों के शीघ्र विचारण का अधिकार है।

    हुस्नारा खातून के मामले में प्रतिपादित सिद्धांतों को पुष्ट करते हुए निर्णय दिया कि निशुल्क विधिक सेवा युक्तियुक्त प्रक्रिया का आवश्यक तत्व है जिसे निर्दोष व्यक्तियों को देना राज्य का कर्तव्य है। ऐसी प्रक्रिया निर्दोष व्यक्तियों को निशुल्क विधिक सहायता नहीं प्रदान करती है उसे अनुच्छेद 21 के अनुसार युक्तियुक्त उचित और न्यायसंगत कहीं भी नहीं माना जा सकता।

    हरदीप सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य एआईआर 2012 उच्चतम न्यायालय 1751 के मामले में अभियुक्त को छल के आरोप के लिए 10 वर्षों से अधिक समय तक विस्तृत होने वाले विचारण में दोषमुक्त किया गया था।

    एकल न्यायाधीश द्वारा रिट खारिज किए जाने के विरुद्ध खंडपीठ में अभिनिर्धारित किया गया कि 5 वर्षों तक विचारण कार्यवाही में विलंब अभियोजन द्वारा समय पर विचारण न्यायालय के समक्ष साक्ष्यों का पेश न करने परीक्षण न करने के लिए कदम न उठाए जाने के कारण हुआ। याची को पुलिस द्वारा हथकड़ी लगाई गई थी जिसका कोई औचित्य नहीं था।

    अभियुक्त का विचारण पूरा होने में 5 वर्ष का समय लग गया था किंतु अभियुक्त की स्वतंत्रता के साथ कोई समझौता नहीं किया गया था क्योंकि अभियुक्त जमानत पर था कारागार में नहीं। पूर्ण विचार करने के बाद यह कहा किया गया की अपीलार्थी विशाल धनराशि के लिए हकदार नहीं था किंतु उसे ₹70000 का नुकसान के दावे के किसी हानि के लिए किया गया।

    उच्चतम न्यायालय ने अभियुक्त को जो कि जबलपुर का कलेक्टर था सरकार की स्वीकृति के बिना कारागार भेजने की प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया किंतु इसमें उचित समझते हुए प्रतिकार बढ़ाकर ₹200000 कर दिया।

    एमके आचार्य बनाम सीएमडी वेस्ट बंगाल स्टेट डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी लिमिटेड के मामले में कोलकाता उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि बिजली पाने का अधिकार अनुच्छेद 21 के अंतर्गत दैहिक स्वतंत्रता में आता है क्योंकि आधुनिक युग में बिना बिजली के जीवित रहना संभव नहीं है।

    चमेली सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि आश्रय पाने का अधिकार अनुच्छेद 21 के अंतर्गत मूल अधिकार है और राज्य का यह कर्तव्य है कि वह दलितों और आदिवासियों के लिए निवास सुविधा प्रदान करें।

    आश्रय का अधिकार का तात्पर्य केवल यही नहीं है कि किसी व्यक्ति के लिए सर पर छत हो बल्कि उसमें वे सभी सुविधाएं भी हो जो किसी गरिमामय जीवन व्यतीत करने के लिए आवश्यक होती है।

    न्यायमूर्तिगण ने कहा कि किसी मनुष्य को आश्रय देने का तात्पर्य यह नहीं है कि केवल उसके प्राणों की रक्षा की जाए, यह घर है जहां उसे शारीरिक मानसिक बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास का अवसर मिलता है, अधिकार का अर्थ केवल सर के ऊपर छत से नहीं है बल्कि जिसमें वह सभी सुविधाएं उपलब्ध हो उसे मनुष्य के रूप में विकसित होने में सहायक हो, अधिकार से है। जिसमें रहने का पर्याप्त स्थान हो,साफ सुथरा परिवेश और सुंदर बनावट हो, शुद्ध वायु और पानी हो, बिजली सफाई व्यवस्था और अन्य नागरिक सुविधाएं जैसे सड़क आदि होता कि वह अपने दैनिक जीवन के काम धंधे को स्थान तक पहुंच सके।

    राज्य का यह कर्तव्य है कि वह अपने आर्थिक स्त्रोतों को देखते हुए सभी नागरिकों को ऐसे आश्रय प्रदान करने का प्रयास करें। दलित और आदिवासियों को देश की मुख्यधारा में लाने के लिए राज्य का यह संवैधानिक कर्तव्य है कि वह आवास सुविधाएं प्रदान करें।

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