भारत का संविधान (Constitution of India) भाग 5: भारत के संविधान के अंतर्गत लोक सेवाओं में अवसर की समानता

Shadab Salim

3 Feb 2021 4:47 AM GMT

  • भारत का संविधान (Constitution of India) भाग 5: भारत के संविधान के अंतर्गत लोक सेवाओं में अवसर की समानता

    पिछले आलेख में भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत विधि के समक्ष समान संरक्षण के संदर्भ में चर्चा की गई थी, इस आलेख में लोक सेवाओं में अवसर की समानता के अधिकार के संबंध में चर्चा की जा रही है जिसका उल्लेख भारत के संविधान के अनुच्छेद 16 के अंतर्गत किया गया है।

    लोक सेवाओं में अवसर की समानता (अनुच्छेद 16)

    लोक सेवाएं अर्थात सरकारी नौकरी। भारत के संविधान के अनुच्छेद 16 के अंतर्गत भारत क्षेत्र के अंतर्गत किसी भी नागरिक के बीच कोई भी सरकारी नौकरी अर्थात लोक सेवाओं में किसी प्रकार का ऐसा भेदभाव नहीं किया जाएगा जिसका आधार धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान, निवास इनमें से किसी भी कोई एक कारण में हो।

    किसी भी व्यक्ति से निवास के स्थान पर भी ऐसा भेदभाव नहीं किया जा सकता अर्थात कोई व्यक्ति यदि तमिलनाडु का रहने वाला है और उस व्यक्ति द्वारा उत्तर प्रदेश कि किसी सरकारी नौकरी की परीक्षा में भाग लिया जा रहा है तो इस प्रकार का भाग लिया जाना भारत के संविधान के अनुच्छेद 16 के अंतर्गत संविधानिक है उस व्यक्ति को यदि परीक्षा में भाग लेने से रोका जा रहा है तो भारत के संविधान के अनुच्छेद 16 का अतिक्रमण होगा।

    इसे मूल अधिकार में शामिल किया गया है तथा अवसर की समानताओं को संपूर्ण भारत के नागरिकों के लिए समान रूप से खोल दिया गया है।

    राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में नागरिकों के लिए अवसर की समानता भारत के संविधान का अनुच्छेद 16 निर्धारित कर रहा है। इस अनुच्छेद के खंड 2 के अनुसार राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के संबंध में केवल धर्म मूल वंश जाति लिंग उद्भव जन्म स्थान निवासी इनमें से किसी भी आधार पर कोई नागरिक अपात्र नहीं होगा और न उस में विभक्त किया जाएगा।

    इस प्रकार अनुच्छेद 16 के खंड 1 और खंड 2 में राज्य की नौकरियों में क्षमता का सामान यही नियम निहित किया गया है। राज्य के अधीन नियोजन या नियुक्ति के अवसर की समता के उक्त नियम के तीन अपवाद हैं जो खंड तीन खंड 4 और खंड 4 (1) और खंड 5 में उल्लेखित किए गए हैं। खंड 3 संसद कोई शक्ति प्रदान करता है कि वह विधि बनाकर सरकारी सेवाओं में नियुक्ति के लिए उस राज्य में निवास की अर्हता विहित कर सकती है।

    खंड 4 राज्यों को सरकारी सेवाओं में पिछड़े वर्गों के लिए पदों के आरक्षण करने की शक्ति प्रदान करता है। संविधान के 73वें संविधान संशोधन द्वारा जिसे 1995 में किया गया था इस अनुच्छेद के अंतर्गत एक खंड और जोड़ा गया जो 4(क) कहलाता है।

    अनुसूचित जाति एवं जनजाति के वर्गों के लिए सरकारी सेवाओं में पदोन्नति में आरक्षण करने की शक्ति प्रदान की गई है। संविधान के 81 वें संशोधन अधिनियम 2000 द्वारा जोड़ा गया।

    खंड 4(बी) उपबंधित करता है कि इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को उन रिक्तियों को अनुच्छेद 16(4) या खंड 4(1)(1) उपबंधों के अनुसार किसी वर्ष में भरे जाने के लिए आरक्षित है उन्हें अगले वर्ष या वर्षों में भी भरे जाने से नहीं रुकेगी और ऐसे वर्ग की रिक्तियों पर उस वर्ग की रिक्तियों के साथ जिसमें उन्हें भरा जाना है आरक्षण की 50% सीमा के निर्धारण के प्रयोजन के लिए नहीं विचार किया जाएगा।

    ऐसे व्यक्तियों को एक प्रथम वर्ग माना जाएगा और उन्हें अगले वर्षों में भरा जाएगा भले ही वह 50% से बढ़ जाएं। खंड 5 ऐसी विधियों के लागू होने को अनुच्छेद 1 और 2 के प्रभाव से बचाता है जो किसी धार्मिक सांप्रदायिक संस्था के किसी पद पर नियुक्ति के लिए किसी व्यक्ति के लिए किसी विशिष्ट धर्म की जानकारी रखने की आस्था विहित करता है।

    राज्य अधीन नियोजन में अवसर की समानता के सामान्य नियम के तीन अपवाद है जो खंड 3, 4 ,5 में उल्लिखित है।

    भारत के संविधान के अनुच्छेद 16 का अध्ययन करते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए इस अनुच्छेद के अंतर्गत केवल राज्य के अधीन नौकरियों में अवसर की समानता का अधिकार प्रदान किया गया है गैर सरकारी नौकरियों में अधिकार प्रदान नहीं है। यह संविदा संबंधी सेवाओं के मामले में भी लागू नहीं होता है।

    उदाहरण के लिए इसके अचेतन बनाम केरल राज्य के मामले में प्रार्थी को सरकारी अस्पतालों में दूध आपूर्ति का ठेका सरकार ने दिया था किंतु बाद में रद्द कर दिया गया और दूसरे को दे दिया गया जो सरकार की सरकारी संस्था थी।

    न्यायालय ने इस मामले निर्णय दिया कि सरकार उत्तरदाई नहीं थी क्योंकि ठेकेदार को ठेका संविदा अधिनियम के अंतर्गत दिया गया था और वह कोई लोकसेवक नहीं था। किसी व्यक्ति को ठेका देना अनुच्छेद 16 के अंतर्गत नियोजन नहीं माना जा सकता प्राइवेट नौकरियों के संबंध में अनुच्छेद 16 लागू नहीं होता है।

    अनुच्छेद 16 राज्य को पूर्ण अधिकार देता है कि वह लोक सेवाओं के लिए आवश्यक योग्यताओं के मापदंडों को निर्धारित करें। राज्य द्वारा निर्धारित योग्यताओं में मानसिक योग्यता के अतिरिक्त शारीरिक पुष्टि अनुशासन नैतिक स्तर और जनहित आदि भी सम्मिलित है।

    जिन नौकरियों में तकनीकी ज्ञान आवश्यक है उनके लिए तकनीकी योग्यताएं निर्धारित की जा सकती हैं। अभ्यर्थियों के लिए पूर्व चरित्र आदि के बारे में भी विचार किया जा सकता है तथा उन में अनुशासन बनाए रखने के लिए आवश्यक नियम भी बनाए जा सकते हैं किंतु शर्त यह है कि चयन की कसौटी मनमाने ढंग की न हो निर्धारित मानदंड और पद नियुक्ति में युक्तियुक्त संबंध होना चाहिए।

    भारत के संविधान के अनुच्छेद 16 से संबंधित एयर इंडिया बनाम नरगिस मिर्जा के मामले में भारतीय विमान सेवा परिचारिकाओ अर्थात एयर होस्टेस को 35 वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने पर अथवा यदि वे प्रथम बार गर्भवती हो जाए तो उन्हें सेवानिवृत्ति करने का उपबंध था।

    उनका तर्क था कि उक्त सेवा शर्तें विभेदकारी थी क्योंकि वह पुरुषों पर लागू नहीं होती थी, अतः अनुच्छेद 14 15 16 का अतिक्रमण करने के कारण अवैध है।

    न्यायालय ने प्रथम गर्भधारण करने और प्रबंध निदेशक की इच्छा पर सेवानिवृत्ति की शर्त को अवैध घोषित कर दिया किंतु सेवा के 4 वर्ष के भीतर विवाह न करने के प्रावधान को इस आधार पर वैध घोषित किया है कि वह युक्तियुक्त था मनमाना नहीं था। यह एयर होस्टेस के हित में है क्योंकि इससे उनके स्वास्थ्य में सुधार होता है और परिवार नियोजन को भी बढ़ावा मिलता है।

    यदि कोई महिला 20 30 वर्ष की आयु में विवाह करती है तो अब पूर्ण परिपक्व होती है और उसके विवाह के सफल होने की अधिक आशा होती है किंतु प्रबंध निदेशक की इच्छा पर 35 वर्ष की आयु के पश्चात सेवा अवधि का बढ़ाया जाने वाला प्रावधान मनमाना विभेदकारी था क्योंकि पुरुष 45 वर्ष में सेवानिवृत्त होते थे जबकि महिला एयर हॉस्टेस पर 30 वर्ष की आयु के पश्चात सेवा में बने रहना प्रबंध निदेशक की इच्छा पर निर्भर करता था। इस मामले में भारत के उच्चतम न्यायालय ने विभेद को समाप्त किया।

    के एच सीराज बनाम केरल उच्च न्यायालय एआईआर 2006 उच्चतम न्यायालय 2339 के एक प्रकरण में केरल उच्च न्यायालय द्वारा मुंसिफ मजिस्ट्रेट के चुनाव के लिए केरल जुडिशल सेवा नियम 7 के अधीन विहित प्रक्रिया की विधि मान्यता को चुनौती दी।

    नियम सात के अंतर्गत इसके लिए लिखित परीक्षा और मौखिक परीक्षा की प्रक्रिया विकसित की गई थी। उच्च न्यायालय ने मौखिक परीक्षा के लिए न्यूनतम अंक दिए नियम के अंतर्गत अभ्यार्थी को मौखिक परीक्षा में न्यूनतम 30 अंक प्राप्त करना आवश्यक था।

    परिवादी लिखित परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया था किंतु मौखिक परीक्षा में न्यूनतम अंक पाने के कारण उसका चयन नहीं किया गया। उसे मौखिक परीक्षा में 30 में से 14 अंक मिले थे।

    उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय द्वारा परीक्षा के लिए न्यूनतम अंक प्राप्त करने का नियम उच्च न्यायालय की शक्ति के अंतर्गत था और माननीय न्यायालय ने मौखिक परीक्षा के महत्व को दर्शाते हुए कहा कि मौखिक परीक्षा अभ्यर्थी के किसी विशेष पद के लिए उपयुक्तता के आकलन करने का सबसे उत्तम तरीका है जबकि लिखित परीक्षा अभ्यार्थी के शिक्षण ज्ञान को दर्शाता है।

    मौखिक परीक्षा उसके संपूर्ण बौद्धिक ज्ञान और व्यक्तिगत गुणों को प्रकट करता है जैसे तत्परता, उपाय, कुशलता, विश्वसनीयता, विचार-विमर्श की क्षमता निर्णय लेने की क्षमता, नेतृत्व का गुण जो किसी न्यायिक अधिकारी के लिए आवश्यक है।

    अतः उच्च न्यायालय द्वारा साक्षात्कार के लिए न्यूनतम अंक की अनिवार्यता मुंसिफ मजिस्ट्रेट के लिए मान्य है साक्षात्कार उच्च न्यायालय के पांच अनुभवी न्यायाधीशों द्वारा लिया जाता है।

    रणधीर सिंह बनाम भारत राज्य 1982 के एक प्रकरण में समान कार्य के लिए समान वेतन का सिद्धांत प्रतिपादित हुआ। इस मामले में अभिनिर्धारित किया गया है कि संविधान के अधीन समान कार्य के लिए समान वेतन का सिद्धांत एक मूल अधिकार नहीं है किंतु अनुच्छेद 14, 16 के अधीन यह निश्चय ही एक संविधानिक लक्ष्य जिसकी प्राप्ति संविधानिक उपचारों द्वारा की जा सकती है।

    रणधीर सिंह के मामले में दिए गए विनिश्चय का अनेक मामलों में लागू किया गया और एक प्रकार से एक मूल अधिकार बन गया। समान कार्य के लिए समान वेतन का सिद्धांत आकस्मिक रूप से नियुक्त दैनिक भोगी कर्मचारियों पर लागू होता है किंतु समान कार्य के लिए समान वेतन का सिद्धांत सभी मामलों में समान रूप से लागू नहीं किया जा सकता। एक ही ऑर्डर की सेवाओं में दो प्रकार के वेतनमान हो सकते हैं यदि कार्य की प्रकृति और उत्तरदायित्व में भिन्नता है।

    प्रभा अत्रे बनाम उत्तर प्रदेश राज्य का प्रकरण त्यागपत्र से संबंधित है। एआईआर 2003 उच्चतम न्यायालय 534 का यह प्रकरण है। इस मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि किसी व्यक्ति द्वारा सेवा से त्यागपत्र तभी माना जाएगा जब त्यागपत्र आश्यक हो और उसे इसी आशय से दिया गया हो।

    इस मामले में अपीलार्थी कमला नेहरू मेमोरियल हॉस्पिटल इलाहाबाद में एक एनएसथेटिस्ट के पद पर कार्यरत थी।

    उसे इस कारण निलंबित कर दिया गया था क्योंकि वह किसी को सूचित किए बिना अस्पताल से चली गई थी जब एक इमरजेंसी वार्ड में भर्ती एक मरीज को एनेस्थीसिया देने की आवश्यकता थी।

    अपीलार्थी ने अपनी भूल स्वीकार कर ली और पत्र द्वारा उदार दृष्टिकोण अपनाने के लिए आवेदन किया और यह भी लिखा कि यदि उदार दृष्टिकोण नहीं अपनाया जाता तो उसके लिए त्यागपत्र देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा।

    इस पत्र को अधिकारियों ने त्यागपत्र मान लिया और यही नहीं इसके पश्चात उसके विरुद्ध डोमेस्टिक जांच का आदेश भी जारी कर दिया गया। इसके पश्चात प्रस्तुत याचिका फाइल की गई।

    न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त पत्र से त्यागपत्र देने का कोई आशय नहीं निकलता है क्योंकि उस पत्र में त्यागपत्र देने का कोई भी ऐसा आशय ही नहीं था। यह निराशा में त्यागपत्र देने का प्रस्ताव मात्र था ऐसे पत्र को त्यागपत्र मानना अनुचित था और उसका निलंबन से हटाया जाना अवैध था।

    रामकुमार कश्यप बनाम भारत संघ एआईआर 2010 उच्चतम न्यायालय 115 के मामले में हरियाणा के चेयरमैन और 8 सदस्यों को राज्यपाल के आदेश द्वारा निलंबित कर दिया गया था। इस संबंध में राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 370 (1) के अधीन एक संदर्भ उच्चतम न्यायालय को भेजा गया था।

    प्रत्याशियों ने एक फाइल करके न्यायालय से निवेदन किया कि उनके मामलों को उच्चतम न्यायालय को संदर्भित नहीं किया जाए क्योंकि उनको सुनवाई का अवसर नहीं प्रदान किया गया था जो नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन था।

    उच्चतम न्यायालय ने निर्णय लिया कि लोक सेवा आयोग के सदस्य संविधान द्वारा सदस्य हैं और उनके मामले में सेवा विधि लागू नहीं की जा सकती है। सेवा विधि केवल सरकारी कर्मचारियों को लागू होती है।

    न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल द्वारा जारी किया गया आदेश जिससे सदस्यों में विश्वास निष्पक्षता और ईमानदारी से कार्य करने की भावना बनाए रखें।

    दशरथ रामा राव बनाम आंध्र प्रदेश के मामले में मद्रास वंशानुक्रम का ग्राम पद अधिनियम 1895 की विधिमान्यता को चुनौती दी गई थी। इस अधिनियम की धारा 6 के अनुसार ग्राम मुंसिफ के पद के लिए इस पद के अंतिम धारक के परिवार के लोगों में से ही चुनाव करना आवश्यक था।

    उच्चतम न्यायालय ने इस धारा को अवैध घोषित कर दिया क्योंकि यह केवल वंश क्रम के आधार पर भेदभाव करती है।

    अनुच्छेद 16(2) द्वारा वर्जित है। न्यायालय ने कहा कि अधिनियम के अनुसार ग्राम मुंसिफ का पद राज्य के अधीन एक पद है क्योंकि इस पद पर नियुक्ति जिलाधीश द्वारा की जाती है और वेतन या भत्ते राज्य द्वारा दिए जाते हैं।

    इस पद पर नियुक्ति केवल वंशक्रम के आधार पर नहीं की जा सकती।

    भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(3) को 16(2) का एक अपवाद है। इस अनुच्छेद के खंड 2 में दो में निवास स्थान के आधार पर असमानता को वर्जित किया गया है किंतु सरकार कुछ सेवाओं में केवल राज्य के निवासियों के लिए आरक्षित पद कर सकती है बशर्ते कि इसके लिए उचित कारण हो। यह अनुच्छेद संसद को यह शक्ति प्रदान करता है कि वह विधि बनाकर उस सीमा को निर्धारित करें जहां की राज्य को उक्त नियम का पालन करने की छूट है।

    यदि किसी पद के लिए निवास स्थान की योग्यता के लिए कोई उचित कारण नहीं है तो उसके लिए ऐसी अर्हता को निहित करना अनुच्छेद 16( 3 ) का अतिक्रमण होगा। राज्य द्वारा इस अधिकार के दुरुपयोग को रोकने के लिए खंड 3 को संविधान में समाविष्ट किया गया है। इसी कारण यह शक्ति केवल संसद को प्रदान की गई है।

    अनुच्छेद 16 (3) के अधीन प्राप्त शक्ति के प्रयोग में संसद में पब्लिक एंप्लॉयमेंट रिक्वायरमेंट रेजिडेंस 1957 पारित किया। उक्त अधिनियम यह उपबंधित करता है कि कोई भी व्यक्ति लोक सेवाओं में नियुक्ति के लिए इस आधार पर अयोग्य नहीं होगा कि वह किसी विशेष राज्य का निवासी नहीं है किंतु अधिनियम हिमाचल प्रदेश मणिपुर त्रिपुरा तेलंगाना आदि में लागू नहीं होगा अर्थात इन क्षेत्रों में निवास स्थान सरकारी सेवाओं पर नियुक्ति के लिए एक आवश्यक अर्हता हो सकती है।

    यह प्रावधान प्रारंभ में केवल 5 वर्ष की अवधि के लिए था लेकिन सन 1969 में इस अधिनियम में संशोधन करके अवधि को बढ़ाकर 1974 तक कर दिया। ऐसी छूट देने का मुख्य कारण इन क्षेत्रों का पिछड़ापन है।

    अशोक कुमार ठाकुर बनाम बिहार राज्य 1995 के एक मामले में उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेश और बिहार राज्य सरकारों द्वारा पिछड़े वर्गों में से संपन्न वर्गों को निकालने के लिए आर्थिक कसोटी को इस आधार पर अवैध घोषित कर दिया क्योंकि वह अनुच्छेद 16 (4) और अनुच्छेद 14 तथा मंडल आयोग के मामले में वित्त विधि का उल्लंघन करता है।

    मंडल आयोग के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट रूप से अभिनिर्धारित किया है कि एक पिछड़े वर्ग का व्यक्ति यदि आईएएस और आईपीएस या अन्य किसी अखिल भारतीय सेवा में चुन लिया जाता है तो उनके पुत्र पुत्रियों को पिछड़े वर्ग के कोटे में सरकारी नौकरी पाने का हक नहीं होगा।

    केंद्र सरकार 1993 को ऑफिशियल मेमोरेंडम द्वारा पिछड़े वर्गों में से संपन्न लोगों को निकालने के लिए निम्नलिखित कसौटी विहित की है। केंद्र सरकार राज्य सरकार या उपक्रम यह संस्था जो उसके द्वारा पूर्ण या आंशिक रूप से वित्त पोषित है के ऐसे कर्मचारियों के पुत्र या पुत्री को सीधे वर्ग एक सेवा में भर्ती हो जाते हैं।

    उत्तर प्रदेश और बिहार सरकारों ने पिछड़े वर्गों में संपन्न वर्गों को निकालने के लिए केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक कसौटी में कुछ अतिरिक्त बातें भी जोड़ दी थी जो इस प्रकार है-

    केंद्र और राज्य सरकार या उपक्रम में संस्था जो पूर्ण या आंशिक रूप से सरकार द्वारा वित्त पोषित है के ऐसे कर्मचारियों को पुत्र पुत्रियों को जो सीधे वर्ग 1 की सेवा में भर्ती हो जाते हैं।

    जिसकी वेतन से प्राप्त आय ₹10000 से अधिक है।

    जिसकी पत्नी या पति कम से कम स्नातक हो।

    जिसके पति या पत्नी का शहर में कोई घर हो।

    जिस के माता और पिता भी सीधे वर्ग 1 की सेवाओं में भर्ती हुए हो।

    उच्चतम न्यायालय ने यह भी निर्धारित किया कि उक्त संस्थाओं द्वारा अतिरिक्त आर्थिक कसौटी या पिछड़े वर्ग में संपन्न वर्गों को निकालने के लिए जोड़ी गई हैं यह मनमानी है और मंडल आयोग के मामले में भी गतिविधि को अतिक्रमण करती है।

    उक्त त्रुटियों का उद्देश्य से कोई संबंध नहीं है जिसकी प्राप्ति के लिए उन्हें जोड़ा गया। यह स्वीकार करना कठिन है कि भारत में जहां प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय ₹7000 है एक व्यक्ति जो आईएस किया कि या अन्य पेशे में है जिसकी आय प्रतिवर्ष ₹1000000 से कम है वह सामाजिक रूप से पिछड़ा है।

    उच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि बिहार और उत्तर प्रदेश की सरकार के लिए केंद्र सरकार द्वारा 8 सितंबर 1993 को जारी कसौटी का पालन करेंगे।

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