भारत का संविधान (Constitution of India) भाग 4: जानिए समता का अधिकार क्या है

Shadab Salim

2 Feb 2021 6:53 AM GMT

  • भारत का संविधान (Constitution of India) भाग 4: जानिए समता का अधिकार क्या है

    पिछले आलेख में भारत के संविधान के भाग-3 में उल्लेखित किए गए मूल अधिकारों के संदर्भ में चर्चा की गई थी इस आलेख में संपूर्ण रुप से यह बताया गया था कि मूल अधिकार क्या होते हैं और मूल अधिकार का प्रारूप क्या है। इस आलेख में मूल अधिकारों से संबंधित समता के अधिकार पर चर्चा की जा रही है।

    समता का अधिकार (अनुच्छेद 14)

    जब भी भारत के संविधान की बात होती है, जब भी व्यक्तियों के मूल अधिकारों की बात होती है तब समता का अधिकार सर्वाधिक प्रचलित होता है। प्रत्येक मामले में समता के अधिकार का विश्लेषण किया जाता है। भारत के संविधान के भाग 3 मूल अधिकारों के अंतर्गत समता के अधिकार को विशेष रुप से उल्लेखित किया गया है।

    इस आलेख में समता के अधिकार के संबंध में कुछ विशेष बातों को साधारण भाषा शैली में समझने का प्रयास किया जा रहा है तथा समता के अधिकार से संबंधित कुछ विशेष प्रकरणों को जो भारत के उच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय में गए हैं चर्चा में शामिल किया जा रहा है।

    भाग 3 के अंतर्गत भारत का संविधान अनुच्छेद 14 से लेकर अनुच्छेद 18 तक समता के अधिकार के संबंध में उल्लेख कर रहा है। अनुच्छेद 14 समता के अधिकार की एक साधारण परिभाषा दी गई है तथा एक परिकल्पना निर्धारित की गई है। अनुच्छेद 14 अत्यंत विशेष अनुच्छेद है जिसके अंतर्गत सभी व्यक्तियों से भारत के भू भाग पर जन्म जाति, मूलवंश, धर्म, लिंग के आधारों पर विभक्त करने को प्रतिषेध किया गया है।

    अनुच्छेद 15 इस बात का उल्लेख करता है कि किसी भी व्यक्ति से इनमे से किसी भी आधार पर कोई विभेद नहीं किया जाएगा। भारत राज्य द्वारा यदि इन आधारों पर व्यक्तियों के बीच किसी प्रकार का विभेद किया जाता है तो यह विभेद भारत के संविधान के अंतर्गत प्रतिषेध होगा।

    अनुच्छेद 16 सर्वजनिक नियोजन के मामलों में अवसर की समता की गारंटी प्रदान करता है। अनुच्छेद 16 के अंतर्गत इस बात पर बल दिया गया है कि राज्य द्वारा सार्वजनिक नियोजन के मामलों में धर्म मूल वंश जाति जन्म स्थान और लिंग के आधार पर किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा।

    अनुच्छेद 17 अस्पर्शता का उन्मूलन करता है। छुआछूत भारत की प्रमुख समस्या रही है छुआछूत से भारतीय सदियों तक व्यथित रहे हैं। मानव की गरिमा और प्रतिष्ठा को छुआछूत के आधार पर कलंकित किया जाता रहा था। जब भारत का संविधान बना जब भारत का निर्माण किया गया तो भारत के संविधान के अनुच्छेद 17 के अंतर्गत किसी भी प्रकार की अस्पृश्यता छुआछूत को प्रतिषिद्ध घोषित किया गया।

    अनुच्छेद 18 उपाधियों का अंत करता है। किसी समय भारत में विशेष लोगों को अनेक प्रकार की उपाधियां ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा दी जाती थी। जैसे कि सर की उपाधि। सर एक उपाधि होती थी जो ज्ञान के मामलों में विद्वानों को प्रदान की जाती थी।

    इस प्रकार की उपाधि व्यक्तियों के बीच भेदभाव को जन्म देती है तथा किसी भी प्रकार से किसी व्यक्ति को बड़ा तथा किसी व्यक्ति को निम्न घोषित करती है। इस उद्देश्य हेतु की इस प्रकार की उपाधियों को समाप्त किया जा सके अनुच्छेद 18 में प्रावधान किए गए।

    अनुच्छेद 14

    जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया गया है भारत के संविधान का अनुच्छेद 14 अत्यंत विशेष अनुच्छेद है जिसके अंतर्गत समता के अधिकार का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। इस अनुच्छेद के अंतर्गत अनेक मामले भारत के उच्चतम न्यायालय में पहुंचे हैं जिनकी कोई संख्या निर्धारित नहीं की जा सकती। राज्य किसी भी विधि के माध्यम से व्यक्तियों के मध्य उनके जन्म स्थान मूल वंश जाति धर्म लिंग के आधार पर किसी प्रकार का कोई विभेद नहीं करेगा।

    अनुच्छेद 14 प्रोफेसर डायसी के अनुसार विधि शासन की स्थापना के लिए अत्यंत आवश्यक है। भारत के संविधान में अनुच्छेद 14 को ब्रिटिश संविधान से लिया गया है ब्रिटिश संविधान में अनुच्छेद 14 को विधि शासन की स्थापना के उद्देश्य से उल्लेखित किया गया है।

    अनुच्छेद 14 के अंतर्गत कुछ विचार अमेरिकी संविधान से भी लिए गए हैं दोनों विचारों को मिलाकर भारतीय संविधान के अंतर्गत अनुच्छेद 14 को स्थापित किया गया तथा संविधान की उद्देशिका में जिस समानता का उल्लेख किया गया था जिस समानता की परिकल्पना की गई थी उस समानता को अनुच्छेद में भी स्थान दिया गया।

    स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल बामन अनवर अली सरकार एआईआर 1952 उच्चतम न्यायालय 75 के प्रकरण में कहा गया है कि विधि का समान संरक्षण विधि के समक्ष समता का ही उप सिद्धांत है क्योंकि उन परिस्थितियों की कल्पना करना कठिन है जब विधि के समान संरक्षण अधिकार को विधि के समक्ष समता के अधिकार को कायम रखा जा सकता।

    विधि के समक्ष समता का तात्पर्य व्यक्तियों के बीच पूरी तरीके से समानता नहीं है, व्यावहारिक रूप से संभव भी नहीं है। इसका तात्पर्य केवल यह है कि जन्म मूल वंश आदि के आधार पर व्यक्तियों के बीच विशेष अधिकार को प्रदान करने और कर्तव्यों के अधीन कोई विभेद नहीं किया जाएगा। व्यक्ति देश की साधारण विधि के अधीन होगा।

    एक ब्रिटिश विद्वान डॉ जेनिंग्स ने कहा है कि विधि के समक्ष समता का तात्पर्य यह है कि समान परिस्थिति वाले व्यक्तियों के बीच सामान विधि होनी चाहिए और समान रूप से लागू की जानी चाहिए तथा एक तरह के व्यक्तियों के साथ एक तरह का व्यवहार किया जाना चाहिए।

    समान कार्य के लिए किसी पर मुकदमा दायर करने या किसी के द्वारा मुकदमा दायर किए जाने अथवा किसी पर अभियोजन चलाने यह किसी के द्वारा अभियोजित किए जाने का अधिकार पूर्ण आयु के सभी व्यक्तियों को समान रूप से दिया जाना चाहिए और यह बिना किसी धर्म मूल वंश संपत्ति और सामाजिक स्तरीय राजनीतिक भेदभाव के होना चाहिए।

    इस बात से समझा जा सकता है कि विधि के समक्ष समता धर्म मूल वंश जाति लिंग आधार पर ही हो सकती है। वैधानिक रूप से तो सब लोग समान है। विधि के मामले में किसी भी व्यक्ति से इन आधारों पर कोई भी विवेद नहीं होता है परंतु व्यवहारिक रूप से यह भी सत्य है कि सभी लोग समान नहीं है क्योंकि एक राष्ट्रपति और एक साधारण व्यक्ति में अंतर होता है परंतु इस प्रकार की असमानता जन्म मूल वंश जाति धर्म लिंग के आधार पर नहीं है।

    किसी भी व्यक्ति को राष्ट्रपति होने से धर्म जाति लिंग मूल वंश के आधार पर नहीं रोका जा सकता इस बात की गारंटी भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत दी गई है।

    भारत के संविधान के अंतर्गत उल्लेखित किए गए समानता के अधिकार के अंतर्गत किसी व्यक्ति को उस बात के लिए दंडित किया जा सकता है जिसे भारत में अपराध बनाया गया है अन्यथा किसी प्रकार से उसे दंडित नहीं किया जा सकता।

    इस प्रकार से विधि के समक्ष समता सरकार की मनमानी शक्ति पर अंकुश लगाती है उसे रोकती है तथा विधि की सर्वोच्चता को आत्मसात करती है। विधि के समक्ष समता का तात्पर्य है सभी वर्ग सामान्य विधि के अधीन है और उन्हें सामान्य न्यायालय द्वारा लागू किया जाता है।

    इसका तात्पर्य है कि कोई भी व्यक्ति विधि से ऊपर नहीं है। इसका एक अपवाद सम्राट है जो कभी गलती नहीं करता है इंग्लैंड में प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह साधारण नागरिक हो या अधिकारी सभी एक विधि को मानने के लिए बाध्य है। सरकारी कर्मचारियों के लिए अलग न्यायालय नहीं है।

    इसी प्रकार भारत में भी किसी सरकारी कर्मचारी के लिए कोई पृथक न्यायालय नहीं होता है। संविधान सामान्य सिद्धांत का परिणाम है। शक्तियों के अधिकार का स्त्रोत संविधान नहीं वरन न्यायालय द्वारा नियमों के अंदर वचन और उनके प्रवर्तन पर आधारित है।

    प्रथम दो तत्व भारत में लागू होते हैं किंतु तीसरा तत्व नहीं लागू होता क्योंकि भारत में व्यक्तियों के अधिकारों का स्त्रोत संविधान है विधि के सामान संरक्षण का अधिकार अमेरिकन संविधान के 14वे संशोधन द्वारा दिए गए अधिकार के समान ही है।

    इसका अर्थ है समान परिस्थिति वाले व्यक्तियों को समान विधियों के अधीन रखना तथा समान रूप से लागू करना चाहे विशेष अधिकार हो। यह दायित्व हो इस पदावली का निर्देश है कि समान परिस्थिति वाले व्यक्तियों में कोई भी विभेद नहीं करना चाहिए और उन पर एक ही विधि लागू करनी चाहिए अर्थात यदि विधान की विषय वस्तु समान है तो विधि भी एक ही तरह की होनी चाहिए। इस प्रकार नियम यह है कि सामानों के साथ सामान विधि लागू करना चाहिए न कि असमानों के साथ सामान विधि लागू करना चाहिए।

    विश्व में प्रचलित नैसर्गिक न्याय का सिद्धांत भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत निहित है क्योंकि नैसर्गिक न्याय के अनुसार व्यक्तियों के बीच समानता होना चाहिए तथा उन्हें समान रूप से संरक्षण प्राप्त होना चाहिए विधि के समक्ष समानता का अर्थ यही है।

    भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत विधि के समक्ष समानता का सिद्धांत लागू करते हुए इस प्रकार का संरक्षण व्यक्तियों को दिया गया है अर्थात यहां पर नागरिकों और आम नागरिक के बीच किसी प्रकार का कोई विभेद नहीं है।

    अनुच्छेद 14 में नागरिक शब्द के स्थान पर व्यक्ति शब्द का प्रयोग किया है। यह अनुच्छेद भारत के भू भाग में रहने वाले सभी व्यक्तियों को चाहे वह भारत का नागरिक हो यह विदेशी हो विधि के समक्ष समता का अधिकार प्रदान करता है।

    भारत में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति चाहे भारतीय नागरिक हो अथवा नहीं समान विधि के अधीन होगा और उसे विधि के समक्ष समान संरक्षण प्रदान किया जाएगा। जबकि अनुच्छेद 15, 16, 17 ,18 के उपबंधों का लाभ केवल नागरिकों को ही प्राप्त होता है परंतु अनुच्छेद 14 के अंतर्गत लाभ सभी व्यक्तियों को प्राप्त होता है।

    विधि के समक्ष समान संरक्षण सभी व्यक्तियों के लिए एक जैसा है क्योंकि नैसर्गिक न्याय का सिद्धांत इस बात की इजाजत नहीं देता कि नागरिकों तथा गैर नागरिकों के बीच इस मामले में किसी प्रकार का विभेद किया जाए। विधि के समक्ष समता का अधिकार सभी व्यक्तियों को बिना किसी मूल वंश रंगभेद और राष्ट्रीयता के भेदभाव के प्रदान किया गया है।

    अमीरुन्निसा बनाम महबूब एआईआर 1953 उच्चतम न्यायालय के मामले में निर्धारित किया गया है कि विधान मंडल को मनुष्यों के पारस्परिक संबंधों से उत्पन्न विभिन्न समस्याओं को हल करना पड़ता है। पुलिस प्रयोजन के लिए आवश्यक है कि उसे विस्तृत शक्ति प्रदान की जाए जिससे वस्तुओं का वर्गीकरण किया जाए।

    इस प्रकार यह स्पष्ट करता है किंतु विधान के प्रयोजनों के लिए अनुमति देता है किंतु शर्त यह है कि वर्गीकरण समानता के आधार पर होना चाहिए तथा इस प्रकार का वर्गीकरण कोई भी मनमाना वह भ्रमक नहीं होना चाहिए। वर्गीकरण युक्तियुक्त रूप से होना चाहिए।

    अनुच्छेद 14 वर्ग विधान का निषेध करता है किंतु वर्गीकरण की अनुमति देता है पर ऐसा वर्गीकरण युक्तियुक्त होना चाहिए मनमाना नहीं। अन्यथा वह असंवैधानिक होगा।

    यह सच है कि प्रत्येक वर्गीकरण कुछ मात्रा में असमानता उत्पन्न करता है लेकिन केवल असमानता पैदा करना मात्र ही पर्याप्त नहीं है उत्पन्न हुई असमानता युक्तियुक्त होना चाहिए। यदि कोई विधि किसी विशेष वर्ग के सभी सदस्यों के साथ समान व्यवहार करती है तो उस पर यह आपत्ति नहीं की जा सकती जी वह अन्य व्यक्तियों पर लागू नहीं होती और इसलिए व्यक्ति विशेष को समानता के संरक्षण से वंचित करती है।

    यदि एक वर्ग के सभी व्यक्तियों में कोई भेद नहीं किया गया है तो ऐसी विधि संविधानिक होगी। इस प्रकार अनुच्छेद 14 राज्य द्वारा व्यक्तियों तथा वस्तुओं में वर्गीकरण की शक्ति पर केवल एक ही निर्बंधन लगाता है और वह यह कि वर्गीकरण आयुक्त मनमाना नहीं होना चाहिए।

    एच पी रॉयप्पा बनाम तमिलनाडु राज्य 1974 के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने समानता की पारस्परिक धारणा को जो युक्तियुक्त वर्गीकरण के सिद्धांत पर आधारित है मानने से इनकार कर दिया और एक नया दृष्टिकोण अपनाया।

    इस मामले में न्यायाधीश श्री भगवती ने बहुमत का निर्णय सुनाते हुए कहा कि समता एक गतिशील धारणा है जिसके अनेक रूप आयाम है और इसे परंपरागत और सिद्धांतवाद की सीमाओं से नहीं बांधा जा सकता है।

    अनुच्छेद 14 राज्य की कार्यवाही में मनमानेपन को वर्जित करता है, वह समान व्यवहार की अपेक्षा करता है। युक्तियुक्तता का सिद्धांत समता के सिद्धांत का एक आवश्यक तत्व है और यह अनुच्छेद 14 में सर्वदा विद्यमान रहता है।

    वस्तुतः समानता और मनमानापन एक दूसरे के शत्रु है जहां कोई कार्य मनमाना किया जाएगा वहां असमानता अवश्य होगी, अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण होगा।

    उच्चतम न्यायालय ने 2001 में दिए अपने एक निर्णय में यह अभी निर्धारित किया कि अनुच्छेद 14 युक्तियुक्त वर्गीकरण का प्रतिषेध नहीं करता है वरन इसकी अनुमति देता है किंतु वर्गीकरण के युक्तियुक्त होने के लिए उसे उपर्युक्त विहित दो कसौटियों के अनुसार ही किया जा सकता है।

    बीएस नकारा बनाम भारत संघ एआईआर 1983 उच्चतम न्यायालय 130 के मामले में सेंट्रल सर्विसेज पेंशन रूल 1972 को इस आधार पर अविधिमान्य घोषित किया गया कि उसके द्वारा एक निश्चित तिथि के पूर्व सेवानिवृत्त होने वाले पेंशनभोगी और उसके पश्चात सेवानिवृत्त होने वाले पेंशन भोगियों में किया गया वर्गीकरण आयुक्तियुक और मनमाना है।

    न्यायाधिपति श्री देसाई ने अनुच्छेद 14 में निहित समता के सिद्धांत और उसके निर्धारण की कसौटी को दोहराते हुए कहा कि अनुच्छेद 14 वर्ग विधान का प्रतिषेध करता है युक्तियुक्त वर्गीकरण को नहीं बशर्ते कि वर्गीकरण उक्त तथ्यों के आधार पर किया गया हो।

    मानव समाज का गठन आसमान व्यक्तियों से होता है पूरे कल्याणकारी राज्य सामाजिक आर्थिक रूप से कम भाग्यशाली लोगों की दशा सुधारने का प्रयास करता है जिसके लिए उसे विशेष विधि बनानी होती है जो उन पर लागू हो उनकी दशा सुधार है इसके लिए ही न्यायालय ने वर्गीकरण के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है ताकि उन कानूनों को विधिमान्य रखा जा सके किंतु राज्य को ऐसा करते समय उक्त दोनों कसौटियों का पालन करना चाहिए जिन के अभाव में वर्गीकरण अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण करेगा और अवैध घोषित कर दिया जाएगा।

    प्रदीप टंडन बनाम भारत संघ 1984 के एक मामले में अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि कुछ राज्यों द्वारा राज्य में केवल अधिवास या निवास स्थान के आधार पर योग्यता पर विचार किए बिना एमबीबीएस और एमएस तथा एमडी पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए सभी स्थानों का आरक्षण किया जाना अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण है और संवैधानिक है।

    रंगनाथ मिश्र और अपनी ओर से न्यायाधीश श्री भगवती ने बहुमत का निर्णय सुनाते हुए कहा कि उपर्युक्त पाठ्यक्रम में प्रवेश योग्यता के आधार पर किया जाना चाहिए न कि केवल विशेष राज्यों में निवास अथवा विशेष संस्था के छात्र होने के आधार पर।

    उच्च शिक्षा में प्रवेश के लिए किसी योजना का उद्देश्य योग्यतम व्यक्तियों का चुनाव करना होना चाहिए योग्यता केवल निवासियों अधिवास के आधार पर निर्धारित नहीं की जा सकती है इसके लिए अनेक बातों पर ध्यान देना चाहिए।

    योग्यता में उत्तम प्रज्ञा के साथ-साथ तेज दिमाग मूल विषयों का ज्ञान कठिन परिश्रम करने की अनंत शक्ति और सामाजिक प्रतिबद्धता और निर्धन व्यक्तियों के लिए त्याग की भावना आदि बातें शामिल होती है।

    योग्यता के नियम का अनादर केवल दो आधारों पर ही औचित्यपूर्ण हो सकता है। पहला आधार है राज्य की विशेष आवश्यकता अर्थात जिन्हें मेडिकल शिक्षा दी जाए वे राज्य में रहे और वहां के लोगों की सेवा करें राज्य का पिछड़ापन भी इसका प्रमुख कारण है जिसे दूसरा कारण माना जा सकता है अर्थात दूसरा आधार कहा जा सकता है।

    किंतु इस मामले में भी एमबीबीएस में आरक्षण 70% से अधिक नहीं किया जा सकता है और एमएस तथा एमडी में तो निवास के आधार पर प्रवेश के लिए आरक्षण बिल्कुल नहीं किया जा सकता है। संस्थागत प्राथमिकता के आधार पर एमबीबीएस पर अधिकतम प्रवेश 50% तक किया जाता है किंतु इस सीमा पर समय-समय पर पुनर्विचार करना चाहिए।

    स्नातकोत्तर चिकित्सा पाठ्यक्रमों में एमएस एमडी संस्थागत प्राथमिकता के आधार पर प्रवेश के लिए कोई आरक्षण नहीं होना चाहिए तथा प्रवेश केवल योग्यता के आधार पर संपूर्ण भारत को एक इकाई मानकर किया जाना चाहिए।

    उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय है और इस निर्णय का संपूर्ण भारत में स्वागत भी किया गया है। न्यायालय ने पूरे देश के मेडिकल कॉलेज प्रवेश के लिए पालन की जाने वाली विधि को स्पष्ट कर दिया था।

    निश्चय ही यह निर्णय उच्च शिक्षा के क्षेत्र में राष्ट्रीय एकता को मजबूत करता है जो हमारे संविधान का एक उद्देश्य है वह तथा जिसकी परिकल्पना भारत के संविधान की प्रस्तावना में भी की गई है।

    इंडियन काउंसिल आफ लीगल एड एंड एडवाइस बनाम बार काउंसिल ऑफ इंडिया 1995 उच्चतम न्यायालय 732 के मामले में भारत के बार काउंसिल द्वारा बनाए गए नियम 9 की विधिमान्यता को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि वह मनमाना और विभेदकारी है और अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण करने के कारण अवैध है।

    नियमों द्वारा यह उपबंधित किया गया था कि 45 वर्ष की आयु से अधिक व्यक्तियों को अधिवक्ता के रूप में उनका नाम दर्ज नहीं किया जाएगा। यह कहा गया कि इससे पेशे में गुणात्मक सुधार आएगा।

    उच्चतम न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि उक्त नियम विभेदकारी मनमाना और अयुक्तियुक्त है और अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है तथा अवैध है।

    अधिवक्ता अधिनियम 1961 की धारा 49 के अधीन बार काउंसिल को उन शर्तों को विहित करने के लिए नियम बनाने की शक्ति प्राप्त है जिसके अनुसार वह विधि व्यवसाय की प्रैक्टिस करने वाले अधिवक्ताओं पर लागू होती है उन व्यक्तियों पर नहीं जो अधिवक्ता के रूप में नाम दर्ज कराना चाहते हैं।

    धारा 49 बार काउंसिल को उन श्रेणी के व्यक्तियों को शासित करने की शक्ति प्रदान करती है जिन्हें अधिवक्ता के रूप में नाम दर्ज कराने का अधिकार है। यह नहीं कहा जा सकता कि 45 वर्ष की आयु से ऊपर के लोग एक वर्ग हैं जिन्हें विधि व्यवसायी कहा जा सकता है। ऐसा वर्गीकरण अवैध है।

    भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बनाम भारत कुमार 1998 उच्चतम न्यायालय के प्रकरण में कहा गया है कि राजनीतिक पार्टियों द्वारा किसी भी प्रकार से बंद का आयोजन करना अवैध है। राजनीतिक दलों द्वारा बंद का आयोजन करना असंवैधानिक होने के प्रमुख कारण है।

    न्यायालय ने निर्णय दिया कि केरल उच्च न्यायालय द्वारा बंद और हड़ताल में किया गया भेद सही है उसमें हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है। उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में बंद और हड़ताल में भेद नागरिकों के मूल अधिकारों पर पड़ने वाले प्रभाव के आधार पर किया था।

    उच्च न्यायालय के अनुसार बंद से नागरिकों के मूल अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और उसका प्रयोग करने से वंचित कर दिए जाते हैं जबकि हड़ताल का प्रभाव नहीं पड़ता है। प्रस्तुत में केरल चेंबर ऑफ कॉमर्स के दो नागरिकों ने उच्च न्यायालय अनुच्छेद 226 के अधीन फाइल की प्रार्थना की राजनीतिक दलों द्वारा बंद के आह्वान को अवैध घोषित कर दे।

    इससे अनुच्छेद 21 अधिकारों का में दिए गए मूल अधिकारों का उल्लंघन होता है।

    कम्युनिस्ट पार्टी ने कहा कि बंद का आह्वान करना अनुच्छेद 19(1) के अधीन राजनीतिक दल का मूल अधिकार है। केरल उच्च न्यायालय ने अभिधारित किया कि बंद के आह्वान में नागरिकों को अभिव्यक्त या विवक्षित रूप से धमकी दी जाती है कि वे अपनी गतिविधियों या काम धंधों को न चलाएं।

    यदि शारीरिक हिंसा न भी हो तो भी नागरिकों में मनोवैज्ञानिक भय तो पैदा ही हो जाता है जिसके कारण वे अपने मूल अधिकारों का प्रयोग करने से वंचित हो जाते हैं। बंद के आह्वान में नागरिकों को धमकी निहित रहती है और उसके न मानने पर उनके शरीर को यह संपत्ति को क्षति पहुंचाई जाती है जहां एक नागरिक को बलपूर्वक काम पर जाने से या कारोबार ऐसा करने से रोका जाता है वही दूसरे व्यक्तियों द्वारा उसके मूल अधिकारों का उल्लंघन होता है।

    यह निर्णय लिया गया कि अपितु इसको रोकने के लिए कोई कानून नहीं बनाया गया है। अनुच्छेद 226 के अधीन नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करने की शक्ति प्राप्त है अनुच्छेद 19(1)(क) में दिए गए भाषण व्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत किसी भी राजनीतिक दल को बंद का आह्वान करने का अधिकार प्राप्त नहीं है।

    भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत विधि के समक्ष समता और समान संरक्षण में अनेक बातें समय-समय पर भारत का उच्चतम न्यायालय जोड़ता रहा है। जब भी कोई ऐसा प्रकरण उच्चतम न्यायालय के समक्ष आता है जिसमें व्यक्तियों के मध्य मूल वंश जाति धर्म लिंग के आधार पर कोई विभेद किया जाता है तो अनुच्छेद 14 के अंतर्गत इस प्रकार के विभेद को उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिबंधित घोषित कर दिया जाता है।

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