Hindu Marriage Act में शून्य विवाह की शर्त
Shadab Salim
19 July 2025 11:08 PM IST

हिंदू मैरिज एक्ट 1955 की धारा 11 के अनुसार यह वह तीन शर्ते हैं जो किसी भी विवाह को शून्य घोषित कर देती है। यदि इन तीनों या फिर इनमे से किसी एक शर्त का उल्लंघन कर दिया गया है और विवाह संपन्न किया गया है तो ऐसा विवाह प्रारंभ से ही संपन्न नहीं माना जाएगा। इस विवाह को शून्य घोषित करवाने हेतु विवाह का कोई भी पक्षकार कोर्ट के समक्ष आवेदन प्रस्तुत कर सकता है।
पहले शादीशुदा होते हुए दूसरा विवाह संपन्न करना
यह किसी भी हिंदू विवाह को शून्य घोषित करने हेतु इस अधिनियम की धारा 11 के अनुसार पहली शर्त है। सन 1955 के पूर्व हिंदू विधि पुरुषों के लिए बहु विवाह को मान्यता प्रदान करती थी लेकिन हिंदू विवाह अधिनियम के प्रवर्तनीय हो जाने पर यदि प्रथम विवाह अस्तित्वशील है तो विधवा या विधुर और तलाकशुदा पक्षकारों के अतिरिक्त कोई भी हिंदू दूसरा विवाह या पुनर्विवाह नहीं कर सकता है।
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 उसमें उल्लेखित शर्तों के उल्लंघन के परिणाम को स्पष्ट नहीं करती हैं लेकिन धारा 11 इस संदर्भ में स्पष्ट करती हैं। एक व्यक्ति के पति या पत्नी के जीवनकाल के दौरान दूसरा विवाह प्रारंभ से ही शून्य होता है।
प्रथम विवाह के विद्यमान रहते हुए पुनर्विवाह करना भारतीय दंड संहिता की धारा 495 और 496 के अधीन दंडनीय अपराध भी होता है।
संतोष कुमार बनाम सुरजीत सिंह एआईआर 1990 के प्रकरण में कहा गया है कि यदि पहली पत्नी के रहते हुए दूसरी पत्नी से विवाह किया गया तो वह विवाह शून्य होगा और यह भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंडनीय अपराध भी होगा।
यदि प्रथम पत्नी पति को दूसरा विवाह करने के लिए सहमति देती है तो भी द्वित्तीय विवाह वैध नहीं होगा क्योंकि प्रथम विवाह की विधिमान्यता में द्वितीय विवाह किया गया है और किसी विवाह के विद्यमान रहते हुए दूसरा विवाह किया जाना दंडनीय अपराध भी है और हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 11 के अनुसार शून्य है।
अजय चंद्राकर बनाम श्रीमती उषा बाई 2000 (2) एम पी एल जे 112 में यह निर्णीत किया गया है कि धारा 11 में प्रावधान है कि धारा 5 के खंड 1 के उल्लंघन में किया गया विवाह शून्य होगा तथा विवाह के व्यथित पक्षकार द्वारा याचिका प्रस्तुत किए जाने पर अकृता की डिक्री दी जा सकती है।
श्यामलाल बनाम सुगना देवी 1998 जेएलजे 345 के मामले में यह कहा गया है कि अपीलार्थी के साथ जब मृतक सत्यनारायण का विवाह हुआ था तो मृतक की पूर्व पत्नी उत्तरवादी क्रम संख्या 1 जीवित थी इसलिए विवाह धारा 5(1) के उल्लंघन में होने से शून्य हैं। ऐसा विवाह प्रारंभ से शून्य होता है। इसे शून्य घोषित करने की आवश्यकता नहीं है।
Prohibited relationship-
प्राचीन हिंदू विधि के साथ ही आधुनिक हिंदू विधि के अधीन हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में हिंदू विवाह को एक संस्कार बनाए रखने के सारे प्रयास किए गए हैं। अधिनियम की धारा 5 के अंतर्गत हिंदू विवाह के संपन्न किए जाने के संदर्भ में कुछ शर्तों का उल्लेख किया गया है यदि इन शर्तों का उल्लंघन किया जाता है तो अधिनियम की धारा 11 के अनुसार वह विवाह शून्य होगा।
प्रतिषिद्ध नातेदारी का हिंदू विवाह के संदर्भ में कड़ाई से पालन किया गया है तथा यह प्रयास किए गए हैं कि कोई भी हिंदू विवाह प्रतिषिद्ध नातेदारी के भीतर संपन्न नहीं हो प्रतिषिद्ध नातेदारी के संदर्भ में लेखक द्वारा विस्तारपूर्वक लेख हिंदू विधि सीरीज के अंतर्गत लाइव लॉ वेबसाइट पर लिखा जा चुका है।
अधिनियम की धारा 11 शून्य विवाह के संदर्भ में उल्लेख कर रही है। इस धारा के अनुसार तीन व प्रमुख शर्ते हैं जिन का उल्लंघन करने पर कोई भी हिंदू विवाह प्रारंभ से ही शून्य होता है। उन शर्तो में दूसरी शर्त विवाह के पक्षकारों का आपस में प्रतिषिद्ध नातेदारी का होना है।
दोनों में से प्रत्येक को शासित करने वाली रूढ़ि और प्रथा उन दोनों के बीच विवाह की अनुमति नहीं देती है तो ऐसा विवाह शून्य होगा अर्थात यदि किसी जाति में प्रतिषिद्ध नातेदारी में विवाह रूढ़ि और प्रथा के अधीन हो सकता है तो फिर विवाह इस धारा के अधीन शून्य नहीं होगा।
मीनाक्षी सुंदरम बनाम नम्बलवार एआईआर 1970 मद्रास 402 के प्रकरण में यह कहा गया है की किसी भी हिंदू विवाह को प्रतिषिद्ध नातेदारियों के आधार पर शून्य घोषित किया जा सकता है, यदि विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार अपने समाज के भीतर चलने वाली उन रूढ़ि और प्रथाओं को सिद्ध नहीं कर पाता है जिनके अधीन प्रतिषिद्ध नातेदारियों के भीतर विवाह किए जाने की मान्यता प्राप्त हो।
Sapinda relationship-
संस्कार माने गए हिंदू विवाह के अधीन विवाह के पक्षकार यदि आपस में सपिंड नहीं है तो ही हिंदू विवाह संपन्न होता है।
सपिंडा रिलेशनशिप क्या होती है लेखक द्वारा इस संदर्भ में सारगर्भित उल्लेख पूर्व के आलेख में किया जा चुका है।
हिंदू विवाह के अधीन विवाह के पक्षकारों में सपिंड नातेदारी का विशेष ध्यान रखा जाता है तथा यह ध्यान देने का प्रयास किया गया है कि विवाह के पक्षकार एक दूसरे से सपिंड नहीं हो। वर्तमान अधिनियम के अंतर्गत पिता की ओर से 5 पीढ़ियां तथा माता की ओर से तीन पीढ़ियां सपिंड नातेदारी के भीतर होती है।
यदि कोई विवाह इन नातेदारी के भीतर किया गया है तो ऐसा विवाह हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 11 के उपखंड 3 के अधीन शून्य होगा तथा प्रारंभ से ही इस विवाह को कोई विधिमान्यता प्राप्त नहीं होगी।
महिंद्र कौर बनाम मेजर सिंह एआईआर 1972 पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट 186 के प्रकरण में कहा गया है कि धारा 5 की इन शर्तों के अलावा इस धारा की किसी अन्य शर्त के उल्लंघन होने पर विवाह शून्य नहीं होता है इसलिए धारा 11 के अधीन विवाह को शून्य होने से बचाने हेतु सपिंड नातेदारी का विशेष ध्यान रखना होता है। यह प्रावधान हिंदू विवाह के संस्कार के स्वरूप को बचाए रखने हेतु आधुनिक हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अधीन किया गया है।
कलावंती बनाम देवी राम एआईआर 1961 के प्रकरण में हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट में विनिश्चित किया गया है कि धारा 5(3) की शर्तों का उल्लंघन होने पर विवाह शून्य नहीं हो जाता है इसके विपरीत श्रीमती कृष्णा देवी बनाम श्रीमती गुलशन देवी एआईआर 1962 पंजाब-हरियाणा 305 में इस निर्णय को उलट दिया गया और माना गया की धारा 5 वर्णित निम्न तीन में किसी भी शर्त के पूरी ना होने पर विवाह प्रारंभ से ही शून्य है।
करणवीर बनाम मीनाक्षी कुमारी 1990 हिंदू ला 49 हरियाणा पंजाब के प्रकरण में विनिश्चित किया गया है कि विवाह को इस आधार पर शून्य घोषित नहीं किया जा सकता की पत्नी हरिजन जाति की है यदि पति हरिजन जाति का है तो भी विवाह शून्य नहीं होगा। विवाह की शून्यता इस आधार पर भी घोषित नहीं की जा सकती के पक्षकार साथ साथ नहीं रह सकते।

