धारा 357 सीआरपीसी: जानिए क्या है अदालत द्वारा प्रतिकर (Compensation) का आदेश देने सम्बन्धी प्रावधान?

SPARSH UPADHYAY

15 July 2020 8:23 AM GMT

  • धारा 357 सीआरपीसी: जानिए क्या है अदालत द्वारा प्रतिकर (Compensation) का आदेश देने सम्बन्धी प्रावधान?

    एक आपराधिक अदालत का यह कर्त्तव्य है कि वह दोषियों को सजा दे, वहीँ एक सिविल कोर्ट का यह कर्त्तव्य है कि वह दोषकर्ता द्वारा किसी पक्ष को हुए नुकसान या क्षति के लिए हर्जाना वसूले। हालाँकि कई बार कुछ आपराधिक मामलों में आपराधिक और सिविल, दोनों अदालतों के इस कार्य को एक साथ करने की आवश्यकता होती है, जिससे मामले में समुचित प्रकार से न्याय किया जा सके।

    दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 357 इसी बात को ध्यान में रखते हुए संहिता में मौजूद है। यह धारा आपराधिक अदालत को यह शक्ति प्रदान करती है कि वह पीड़ित व्यक्ति को प्रतिकर (Compensation) देने एवं अभियोजन के व्ययों को देने का आदेश दे सके।

    दूसरे शब्दों में, कुछ मामले ऐसे होते हैं जिनमे धारा 357 Cr.P.C. पीड़ित को मुआवजा देने के लिए न्यायालय को शक्ति प्रदान करता है। न्यायसंगत और उचित प्रतिकर देने का आदेश देते समय न्यायालय को इस तरह के भुगतान के लिए अभियुक्तों की क्षमता के साथ-साथ प्रासंगिक कारक जैसे कि चिकित्सा व्यय, कमाई का नुकसान, दर्द और पीड़ा आदि पर विचार करना चाहिए।

    मौजूदा लेख में हम इसी धारा के विषय में संक्षेप में बात करेंगे। जानते हैं कि इस धारा का उद्देश्य क्या है और आखिर धारा 357 की उपधारा (1) एवं (3) में मुख्य अंतर क्या है।

    धारा 357 का उद्देश्य क्या है?

    जहाँ अभियुक्त को सजा देना आपराधिक न्याय व्यवस्था का एक पहलू है, वहीँ पीड़ित के लिए मुआवजे का निर्धारण एक दूसरा पहलू। कई बार इस संबंध में सबूत नहीं मिलते हैं। ऐसी स्थिति में कुछ अनुमान लगाना अपरिहार्य है।

    प्रतिकर, दंड प्रक्रिया संहिता की 1973 धारा 357 और 357-ए दोनों के अंतर्गत देय है, जहाँ धारा 357 के अंतर्गत अभियुक्तों की वित्तीय योग्यता को ध्यान में रखना पड़ता है, वहीँ धारा 357-A के तहत जो मुआवजा राज्य के कोष से निकलता है, उसे उचित मुआवजे की आवश्यकता के आधार पर लागू किया जाना चाहिए - मनोहर सिंह बनाम राजस्थान राज्य और अन्य: (2015) 3 एससीसी 449।

    धारा 357 की उप-धारा (1), अभियुक्तों पर लगाए गए जुर्माने की सजा (sentence of fine) में से अपराध के पीड़ितों को मुआवजा देने की शक्ति प्रदान करती है। वहीँ, धारा 357 की उपधारा (3), अदालत को सजा के फैसले को पारित करते समय पीड़ितों को मुआवजा देने का अधिकार देता है।

    अभियुक्तों को सजा देने के अलावा, अदालत आरोपियों की कार्रवाई से पीड़ित को हुई क्षति के चलते प्रतिकर के माध्यम से कुछ राशि का भुगतान करने का अभियुक्त को आदेश दे सकती है।

    हरी किशन एवं अन्य बनाम सुखबीर सिंह एवं अन्य 1988 AIR 2127 के मामले में यह कहा गया था कि यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि मुआवजा देने की अदालतों की यह शक्ति, अन्य सजाओं की सहायक नहीं है, बल्कि इसके अतिरिक्त है। इस शक्ति का उपयोग करने का उद्देश्य, पीड़ित को फिर से यह आश्वस्त करना है कि आपराधिक न्याय प्रणाली में उसे भुलाया नहीं जा रहा है।

    धारा 357 (1) एवं 357 (3) के मध्य अंतर

    जहाँ तक धारा 357 (1) का सवाल है तो उस मामले में जब कोई न्यायालय जुर्माने का दण्डादेश देता है या कोई ऐसा दण्डादेश (जिसके अन्तर्गत मृत्यु दण्डादेश भी है) देता है जिसका भाग 'जुर्माना' भी है, तब निर्णय देते समय वह न्यायालय यह आदेश दे सकता है कि वसूल किए गए सब जुर्माने या उसके किसी भाग का उपयोजन में से पीड़ित को राशि प्राप्त हो।

    इसके अंतर्गत, प्रतिकर केवल तभी दिया जा सकता है जहाँ अभियुक्त को जुर्माने (fine) की सजा दी गयी है या ऐसी कोई सजा दी गयी है जिसका एक हिस्सा जुर्माना (fine) है। और इसी जुर्माने में से प्रतिकर दिए जाने का आदेश दिया जा सकता है।

    एक और बात जिसका ध्यान रखा जाना चाहिए वह यह है कि प्रतिकर की राशि किसी भी हालत में जुर्माने की उपरी सीमा से अधिक नहीं हो सकती है, यह सीमा क्या होगी वह किसी अपराध के लिए तय जुर्माने पर निर्भर करेगा और उस अपराध को ट्राई करने वाली अदालत की उस शक्ति पर निर्भर करेगा कि वह किस हद तक जुर्माना लगा सकती है।

    हालाँकि, जब बात धारा 357 की उपधारा (3) की हो तो ऐसी कोई सीमा लागू नहीं होती है। लेकिन उपधारा (3) के लिए इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जब न्यायालय ऐसा दण्ड अधिरोपित करता है जिसका भाग जुर्माना 'नहीं' है, तब न्यायालय निर्णय पारित करते समय, अभियुक्त व्यक्ति को यह आदेश दे सकता है कि उस कार्य के कारण जिसके लिए उसे ऐसा दण्डादेश दिया गया है, जिस व्यक्ति को कोई हानि या क्षति उठानी पड़ी है, उसे वह प्रतिकर के रूप में इतनी रकम दे जितनी आदेश में विनिर्दिष्ट है।

    दूसरे शब्दों में, धारा 357 की उपधारा (3) के अंतर्गत प्रतिकर देने का आदेश केवल तभी दिया जा सकता है जहाँ जुर्माने की सजा (Sentence of Fine) नहीं दी गयी है [जैसे धारा 357 की उपधारा (1) में दी जाती है]। यानी अदालत द्वारा ऐसी सजा सुनाई गयी है जिसका भाग जुर्माना (fine) नहीं है, केवल तभी 357 की उपधारा (3) के अंतर्गत प्रतिकर पर कोई सीमा नहीं होगी।

    सरवन सिंह बनाम पंजाब राज्य 1978 AIR 1525 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया था कि इस उपधारा (3) का उद्देश्य, उन व्यक्तियों को प्रतिकर प्रदान करना है, जो सजा सुनाए गए व्यक्ति से प्रतिकर वसूलने के हकदार हैं, जहाँ जुर्माना (Fine) अदालत द्वारा सुनाई सजा का हिस्सा नहीं बनता है।

    धारा 357 की उपधारा (1) के भाग

    जैसा कि हमने जाना धारा 357, प्रतिकर (Compensation) देने के आदेश सम्बन्धी प्रावधान है। इसकी उपधारा (1) के अंतर्गत, जब कोई न्यायालय जुर्माने (fine) का दण्डादेश देता है या कोई ऐसा दण्डादेश (जिसके अन्तर्गत मृत्यु दण्डादेश भी है) देता है जिसका भाग जुर्माना भी है, तब निर्णय देते समय वह न्यायालय यह आदेश दे सकता है कि वसूल किए गए सब जुर्माने या उसके किसी भाग का उपयोजन--

    (क) अभियोजन में उचित रूप से उपगत व्ययों को चुकाने में किया जाए।

    (ख) किसी व्यक्ति को उस अपराध द्वारा हुई किसी हानि या क्षति का प्रतिकर देने में किया जाए, यदि न्यायालय की राय में ऐसे व्यक्ति द्वारा प्रतिकर सिविल न्यायालय में वसूल किया जा सकता है;

    पलानिअप्पा गोउंदर बनाम तमिल नाडु राज्य (1977) 2 SCC 634 के मामले में धारा 357 की उपधारा (1) के खंड (ख) की व्याख्या करते हुए कहा गया था कि इस खंड के अंतर्गत, उस व्यक्ति को प्रतिकर दिया जा सकता है, जिसे किये गए अपराध के चलते उसे या उसकी संपत्ति को कोई क्षति या हानि हुई है और जब वह प्रतिकर ऐसे व्यक्ति द्वारा सिविल कोर्ट में वसूल किया जा सकता है।

    (ग) उस दशा में, जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु कारित करने के, या ऐसे अपराध के किए जाने का दुष्प्रेरण करने के लिए दोषसिद्ध किया जाता है, उन व्यक्तियों को, जो ऐसी मृत्यु से अपने को हुई हानि के लिए दण्डादिष्ट व्यक्ति से नुकसानी वसूल करने के लिए घातक दुर्घटना अधिनियम, 1855 (1855 का 13) के अधीन हकदार है, प्रतिकर देने में किया जाए।

    (घ) जब कोई व्यक्ति, किसी अपराध के लिए, जिसके अन्तर्गत चोरी, आपराधिक दुर्विनियोग, आपराधिक न्यासभंग या छल भी है, या चुराई हुई संपत्ति को उस दशा में जब वह यह जानता है या उसको यह विश्वास करने का कारण है कि वह चुराई हुई है बेईमानी से प्राप्त करने या रखे रखने के लिए या उसके व्ययन में स्वेच्छया सहायता करने के लिए, दोषसिद्ध किया जाए, तब ऐसी संपत्ति के सद्भावपूर्ण क्रेता को, ऐसी संपत्ति उसके हकदार व्यक्ति के कब्जे में लौटा दी जाने की दशा में उसकी हानि के लिए, प्रतिकर देने में किया जाए।

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