क्या धारा 313 CrPC के तहत जरूरी सबूत आरोपी से पूछे बिना ट्रायल निष्पक्ष माना जा सकता है?

Himanshu Mishra

19 Jun 2025 11:44 AM

  • क्या धारा 313 CrPC के तहत जरूरी सबूत आरोपी से पूछे बिना ट्रायल निष्पक्ष माना जा सकता है?

    सुप्रीम कोर्ट के निर्णय राज कुमार @ सुमन बनाम राज्य (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली) (2023) में इस महत्वपूर्ण बात पर जोर दिया गया कि आपराधिक मामलों में निष्पक्ष ट्रायल (Fair Trial) सुनिश्चित करने के लिए कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर, 1973 (Criminal Procedure Code – CrPC) की धारा 313 का सही और पूरी तरह से पालन किया जाना अनिवार्य है।

    इस प्रावधान के ज़रिये आरोपी को यह अवसर मिलता है कि उसके खिलाफ जो भी सबूत लाए गए हैं, उन पर वह अपनी सफाई (Explanation) दे सके। कोर्ट ने कहा कि अगर किसी महत्वपूर्ण सबूत को आरोपी से पूछे बिना उस पर दोष सिद्ध किया गया, तो यह न केवल प्राकृतिक न्याय (Principles of Natural Justice) का उल्लंघन है, बल्कि इससे पूरा ट्रायल (Trial) ही प्रभावित हो सकता है।

    धारा 313 CrPC का उद्देश्य (Section 313 CrPC: Scope and Purpose)

    धारा 313 CrPC अदालत को यह शक्ति देती है कि वह ट्रायल के दौरान आरोपी से सीधे सवाल पूछ सके, ताकि आरोपी को यह मौका मिल सके कि वह अपने खिलाफ आए हर महत्वपूर्ण साक्ष्य (Incriminating Evidence) पर अपनी प्रतिक्रिया दे सके।

    यह प्रावधान ऑडी आल्टेरम पार्टम (Audi Alteram Partem) यानी "दूसरे पक्ष को भी सुना जाए" के सिद्धांत पर आधारित है, जो निष्पक्ष सुनवाई का मूलाधार है। कोर्ट ने दोहराया कि हर महत्वपूर्ण परिस्थिति (Material Circumstance) को आरोपी से अलग-अलग, स्पष्ट और विशेष रूप से पूछा जाना चाहिए।

    यदि सबूत आरोपी से नहीं पूछा गया, तो क्या परिणाम होंगे? (Consequences of Not Putting Incriminating Evidence)

    कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि यदि कोई महत्वपूर्ण साक्ष्य आरोपी से नहीं पूछा गया और उसी के आधार पर उसे दोषी ठहराया गया, तो यह गंभीर त्रुटि (Serious Irregularity) मानी जाएगी। अगर इससे आरोपी को नुकसान या अन्याय (Prejudice) हुआ हो, तो पूरी ट्रायल अवैध मानी जा सकती है। आरोपी को इस प्रक्रिया में यह अधिकार है कि उसे सभी आरोपों और साक्ष्यों की जानकारी दी जाए, ताकि वह खुद का बचाव (Defence) कर सके।

    तारा सिंह बनाम राज्य मामला (Tara Singh Case): निष्पक्ष पूछताछ की नींव

    तारा सिंह बनाम राज्य (1951) के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट की चार न्यायाधीशों की पीठ ने यह कहा था कि धारा 342 CrPC (जो अब धारा 313 है) का पालन केवल औपचारिकता नहीं है, बल्कि आरोपी के अधिकार का संरक्षण (Protection) है। अगर अभियोजन पक्ष (Prosecution) किसी तथ्य पर भरोसा करता है, तो उसे सीधे आरोपी से पूछा जाना चाहिए।

    शिवाजी साहेबराव बोबडे बनाम महाराष्ट्र राज्य (Shivaji Bobade Case): चुपचाप दोष सिद्ध नहीं किया जा सकता

    शिवाजी साहेबराव बोबडे बनाम महाराष्ट्र राज्य (1973) में कोर्ट ने यह दोहराया कि यदि कोई आरोप या साक्ष्य आरोपी से नहीं पूछा गया हो, तो उसे दोष सिद्ध करने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। अगर ऐसा साक्ष्य अहम था, तो ट्रायल कोर्ट को उसे आरोपी के समक्ष रखना चाहिए था। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो उच्च न्यायालय (Appellate Court) उस प्रक्रिया को फिर से शुरू करने का आदेश दे सकता है।

    शमसुल हक बनाम असम राज्य (Samsul Haque Case): अधूरी पूछताछ एक गंभीर त्रुटि

    शमसुल हक बनाम असम राज्य (2019) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केवल औपचारिक या अस्पष्ट तरीके से सवाल पूछना पर्याप्त नहीं है। अगर धारा 313 CrPC के तहत पूछे गए सवाल अधूरे हैं या जरूरी तथ्यों को छोड़ दिया गया है, तो यह आरोपी के बचाव के अधिकार (Right to Defence) का उल्लंघन है।

    कोर्ट द्वारा दोहराए गए मुख्य सिद्धांत (Legal Principles Reiterated)

    राज कुमार @ सुमन केस में कोर्ट ने कुछ अहम सिद्धांतों को फिर से स्पष्ट किया। ट्रायल कोर्ट का यह कानूनी दायित्व है कि वह अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत हर महत्वपूर्ण तथ्य को आरोपी के समक्ष रखे। इस पूछताछ का उद्देश्य आरोपी को जवाब देने का अवसर देना है। यदि यह प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती, तो ऐसे सबूतों को नजरअंदाज किया जाना चाहिए। यदि यह त्रुटि आरोपी को नुकसान पहुंचाती है, तो पूरी ट्रायल अमान्य हो सकती है। कभी-कभी उच्च न्यायालय आरोपी से सवाल पूछकर इस त्रुटि को सुधार सकता है, लेकिन अगर बहुत समय बीत चुका हो, तो ट्रायल को दोबारा शुरू करना संभव नहीं होता।

    धारा 313(5) CrPC का महत्व (Importance of Section 313(5) CrPC)

    2009 में जोड़ा गया उपखंड 5 (Subsection 5) यह कहता है कि कोर्ट अभियोजन पक्ष और बचाव पक्ष के वकीलों की मदद से सवाल तैयार कर सकता है, ताकि कोई जरूरी बात छूट न जाए। खासकर जब केस में कई गवाह हों और काफी दस्तावेजी साक्ष्य हों, तब यह सहयोग प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और निष्पक्ष बनाता है। कोर्ट ने कहा कि सभी पक्षों को इस प्रक्रिया में सहयोग करना चाहिए।

    न्यायिक प्रशिक्षण संस्थानों की भूमिका (Role of Judicial Academies)

    कोर्ट ने चिंता जताई कि वर्षों से लगातार निर्णय दिए जाने के बावजूद, कई ट्रायल कोर्ट आज भी धारा 313 का समुचित पालन नहीं कर रहे। इसलिए कोर्ट ने यह निर्देश दिया कि इस निर्णय की प्रति नेशनल और स्टेट जुडिशियल एकेडमी (Judicial Academies) को भेजी जाए, ताकि न्यायिक अधिकारियों को प्रशिक्षण (Training) देकर इस प्रक्रिया की गंभीरता समझाई जा सके।

    इस विशेष मामले में कोर्ट ने देखा कि अपराध की घटना को लगभग 27 वर्ष बीत चुके हैं, और आरोपी पहले ही 10 वर्षों से अधिक जेल में रह चुका है। ऐसे में पुनः ट्रायल (Remand) देना अनुचित होता। चूंकि आरोपी को धारा 313 के तहत आवश्यक तथ्यों से अवगत नहीं कराया गया था, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने दोष सिद्धि को रद्द (Set Aside) कर दिया और आरोपी को रिहा करने का आदेश दिया।

    यह निर्णय इस बात को दोहराता है कि आपराधिक न्याय व्यवस्था में केवल दोषियों को सजा देना ही उद्देश्य नहीं है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना है कि पूरी प्रक्रिया निष्पक्ष, न्यायसंगत और कानून के अनुसार हो। धारा 313 केवल एक औपचारिकता नहीं, बल्कि आरोपी के लिए एक आवश्यक अधिकार है, जिससे उसे अपनी बात कहने का अवसर मिलता है। यदि इसे गंभीरता से नहीं लिया गया, तो पूरी न्यायिक प्रक्रिया कमजोर हो सकती है।

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