क्या पुलिस प्रमुख मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना दोबारा जांच का आदेश दे सकता है?
Himanshu Mishra
11 Jun 2025 12:25 PM

सुप्रीम कोर्ट ने पीठाम्बरन बनाम राज्य केरल एवं अन्य मामले में 3 मई 2023 को एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जिसमें दो मुख्य कानूनी प्रश्नों का उत्तर दिया गया। पहला, क्या जिला पुलिस प्रमुख (District Police Chief) को भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 173(8) के तहत मजिस्ट्रेट (Magistrate) की अनुमति के बिना दोबारा जांच (Further Investigation) का आदेश देने का अधिकार है? दूसरा, हाई कोर्ट द्वारा धारा 482 CrPC (Code of Criminal Procedure) के तहत अपनी अंतर्निहित शक्ति (Inherent Powers) का प्रयोग किन परिस्थितियों में किया जा सकता है?
इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि दोबारा जांच या री-इन्वेस्टिगेशन (Reinvestigation) केवल न्यायालय के आदेश से ही हो सकती है, और पुलिस अधिकारी इसके लिए स्वतंत्र नहीं है। इस लेख में हम इन कानूनी सिद्धांतों को सरल हिंदी में समझने का प्रयास करेंगे।
धारा 173(8) CrPC के तहत पुलिस की सीमित शक्ति (Limited Power under Section 173(8) CrPC)
धारा 173(8) CrPC यह कहती है कि किसी अपराध की पहली रिपोर्ट (Final Report) मजिस्ट्रेट को सौंपने के बाद, यदि पुलिस को कोई नया साक्ष्य (Evidence) मिलता है तो वह दोबारा जांच कर सकती है और एक अतिरिक्त रिपोर्ट (Supplementary Report) दाखिल कर सकती है। परंतु, सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि इस प्रकार की जांच केवल तभी वैध होती है जब मजिस्ट्रेट या उच्च न्यायालय से पहले अनुमति ली गई हो।
इस केस में जिला पुलिस प्रमुख द्वारा बिना किसी मजिस्ट्रेट की अनुमति के दोबारा जांच का आदेश दिया गया और उसके आधार पर दूसरी रिपोर्ट (FR-II) दाखिल की गई। कोर्ट ने इसे गैरकानूनी बताया क्योंकि इससे पहले मजिस्ट्रेट से कोई अनुमति नहीं ली गई थी। पहली रिपोर्ट (FR-I) पहले ही यह कह चुकी थी कि कोई ठोस साक्ष्य नहीं है और मामला झूठा प्रतीत होता है। इसलिए दोबारा जांच की आवश्यकता और प्रक्रिया दोनों अवैध थी।
दोबारा जांच और री-इन्वेस्टिगेशन में अंतर (Difference between Further Investigation and Reinvestigation)
सुप्रीम कोर्ट ने Vinay Tyagi v. Irshad Ali (2013) में यह स्पष्ट किया था कि 'Further Investigation' और 'Reinvestigation' में कानूनी अंतर है।
Further Investigation (दोबारा जांच) का अर्थ है उसी मामले में नए साक्ष्य के आधार पर पहले की जांच को आगे बढ़ाना। यह एक पूरक जांच होती है, जिसका उद्देश्य अदालत के सामने नए तथ्यों को लाना होता है।
वहीं, Reinvestigation (पुनः जांच या नई जांच) तब होती है जब पुरानी जांच में कोई भारी त्रुटि, पक्षपात या धोखाधड़ी पाई जाए। इस प्रकार की जांच केवल उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट के आदेश से हो सकती है।
Peethambaran केस में पुलिस प्रमुख ने बिना न्यायालय के आदेश के पुनः जांच करवाई, जो कि कानून के विरुद्ध है। इसलिए यह 'Further Investigation' न होकर 'Reinvestigation' मानी गई, जो अवैध थी।
धारा 482 CrPC के तहत न्यायालय की शक्ति (Judicial Power under Section 482 CrPC)
CrPC की धारा 482 के तहत हाई कोर्ट को यह शक्ति दी गई है कि वह ऐसे मामलों में हस्तक्षेप कर सके, जहां न्याय का हनन (Miscarriage of Justice) हो रहा हो या न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग (Abuse of Process) हो रहा हो।
इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने State of Haryana v. Bhajan Lal (1992) और Neeharika Infrastructure v. State of Maharashtra (2021) जैसे फैसलों का हवाला दिया, जिनमें यह बताया गया कि किन परिस्थितियों में हाई कोर्ट को मामले को रद्द (Quash) कर देना चाहिए। यदि प्राथमिकी (FIR) में किए गए आरोप प्रथम दृष्टया (Prima Facie) किसी अपराध की श्रेणी में नहीं आते, या वे पूरी तरह झूठे प्रतीत होते हैं, तो कोर्ट को हस्तक्षेप करना चाहिए।
Peethambaran मामले में पहली जांच में ही यह स्पष्ट हो गया था कि कोई ठोस साक्ष्य नहीं है। मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना दोबारा जांच की गई, जिससे प्रक्रिया का दुरुपयोग हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाई कोर्ट को अपने अधिकारों का प्रयोग करके मामले को वहीं समाप्त कर देना चाहिए था।
धारा 420 IPC के तत्वों की व्याख्या (Interpretation of Ingredients under Section 420 IPC)
धारा 420 IPC 'Cheating' (धोखाधड़ी) से संबंधित है।
सुप्रीम कोर्ट ने Vijay Kumar Ghai v. State of West Bengal (2022) में यह तय किया कि इस धारा के अंतर्गत अपराध सिद्ध करने के लिए चार तत्वों का होना आवश्यक है:
पहला, आरोपित व्यक्ति द्वारा झूठा वादा या गलत तथ्य प्रस्तुत किया गया हो।
दूसरा, उसने यह वादा या तथ्य जानबूझकर गलत बताया हो।
तीसरा, उसका इरादा शुरू से ही धोखा देने का हो।
चौथा, उस झूठे वादे के कारण सामने वाला व्यक्ति अपनी संपत्ति या धन किसी को दे दे।
Peethambaran केस में सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि इन चार में से केवल एक तत्व ही आंशिक रूप से मौजूद है – कि लोगों ने धन दिया क्योंकि उन्हें नौकरी का वादा किया गया था। लेकिन कोई दस्तावेज़ी साक्ष्य या यह प्रमाण नहीं मिला कि वादा जानबूझकर झूठा था। इसलिए यह मामला धारा 420 के तहत अपराध की श्रेणी में नहीं आता।
मजिस्ट्रेट की भूमिका और न्यायिक नियंत्रण (Role of Magistrate and Judicial Oversight)
सुप्रीम कोर्ट ने यह दोहराया कि जांच प्रक्रिया पर न्यायालय का नियंत्रण (Judicial Oversight) आवश्यक है। Minu Kumari v. State of Bihar (2006) और Hemant Dhasmana v. CBI (2001) जैसे फैसलों में स्पष्ट किया गया है कि जब कोई Final Report कोर्ट के सामने रखी जाती है, तब मजिस्ट्रेट तीन विकल्पों में से कोई एक चुन सकता है:
पहला, रिपोर्ट स्वीकार कर आगे बढ़े।
दूसरा, रिपोर्ट खारिज कर दे और मामला समाप्त करे।
तीसरा, पुलिस को दोबारा जांच (Further Investigation) का आदेश दे CrPC की धारा 156(3) के तहत।
Peethambaran केस में मजिस्ट्रेट से कोई आदेश नहीं लिया गया, जिससे यह सिद्ध होता है कि पूरी प्रक्रिया न्यायिक प्रक्रिया की अवहेलना थी।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला यह स्पष्ट करता है कि आपराधिक जांच (Criminal Investigation) केवल कानून के अनुसार ही की जानी चाहिए। पुलिस अधिकारी, चाहे वे कितने भी उच्च पद पर हों, मजिस्ट्रेट या उच्च न्यायालय की अनुमति के बिना न तो दोबारा जांच कर सकते हैं और न ही पुनः जांच का आदेश दे सकते हैं।
यह निर्णय न्यायपालिका की स्वतंत्रता, जांच की निष्पक्षता, और अभियुक्तों के मौलिक अधिकारों की रक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। कोर्ट ने न सिर्फ गलत प्रक्रिया को रोका, बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि निष्पक्ष जांच और न्याय की प्राप्ति के लिए कानूनी प्रक्रिया का पालन करना अनिवार्य है।
यह निर्णय निचली अदालतों, पुलिस अधिकारियों और अभियोजन पक्ष के लिए मार्गदर्शक है कि न्याय के सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं होना चाहिए और जांच प्रक्रिया पर न्यायालय का नियंत्रण आवश्यक है।