क्या सरकार किसी कानून को पिछली तारीख से लागू करके लोगों को सजा दे सकती है?
Himanshu Mishra
20 Feb 2025 11:40 AM

सुप्रीम कोर्ट ने Union of India v. Ganpati Dealcom Pvt. Ltd. मामले में एक महत्वपूर्ण संवैधानिक (Constitutional) प्रश्न पर फैसला दिया, जिसमें यह तय किया गया कि क्या Prohibition of Benami Property Transactions Act, 1988 (1988 अधिनियम) और Benami Transactions (Prohibition) Amendment Act, 2016 (2016 अधिनियम) के तहत अपराधों (Criminal Provisions) को पिछली तारीख से लागू किया जा सकता है।
इस फैसले में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(1) (Article 20(1)) की व्याख्या की गई, जो किसी भी अपराध (Offense) के लिए कानून को पिछली तारीख से लागू करने पर रोक लगाता है। अदालत को यह भी तय करना था कि क्या 1988 और 2016 अधिनियमों के तहत संपत्ति की जब्ती (Confiscation) को दंडात्मक (Punitive) माना जाना चाहिए या इसे नागरिक (Civil) प्रक्रिया माना जा सकता है।
यह मामला इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि यह सरकार द्वारा लागू किए गए उन प्रावधानों (Provisions) को चुनौती दे रहा था जो लोगों को उन कानूनों के तहत सजा देने की अनुमति देते थे जो उनके द्वारा किए गए कार्यों के समय अस्तित्व में नहीं थे। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में यह स्पष्ट किया कि कानून को न्यायसंगत (Fair) और न्यायोचित (Just) तरीके से लागू किया जाना चाहिए, न कि मनमाने (Arbitrary) ढंग से।
पूर्वव्यापी (Retrospectivity) सिद्धांत और अनुच्छेद 20(1) (Article 20(1))
इस मामले में अदालत के सामने सबसे महत्वपूर्ण संवैधानिक (Constitutional) प्रश्न यह था कि क्या अपराधों को परिभाषित करने वाले प्रावधानों (Provisions) को अनुच्छेद 20(1) (Article 20(1)) के तहत पिछली तारीख से लागू किया जा सकता है।
अनुच्छेद 20(1) यह कहता है कि किसी व्यक्ति को केवल उसी कानून के तहत दोषी ठहराया जा सकता है, जो उस समय प्रभावी था जब वह कार्य किया गया था। इसका अर्थ यह है कि अगर किसी कानून में कोई नया अपराध जोड़ा जाता है या किसी अपराध की सजा बढ़ा दी जाती है, तो उसे पिछली तारीख से लागू नहीं किया जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट ने T. Barai v. Henry Ah Hoe (1983) मामले का हवाला दिया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया था कि किसी भी कानून को पूर्वव्यापी (Retrospective) रूप से अपराध घोषित नहीं किया जा सकता और यदि कोई नया कानून पहले से किए गए कार्यों के लिए कठोर सजा (Punishment) निर्धारित करता है, तो वह असंवैधानिक (Unconstitutional) होगा।
इसी आधार पर, अदालत ने यह निर्णय दिया कि 1988 अधिनियम की धारा 3(2) (Section 3(2)) असंवैधानिक है, क्योंकि यह पिछली तारीख से अपराध घोषित करता है। अदालत ने यह भी पाया कि 1988 अधिनियम की धारा 5 (Section 5), जो बेनामी संपत्ति (Benami Property) की जब्ती (Confiscation) की अनुमति देती है, स्पष्ट रूप से मनमानी (Manifestly Arbitrary) है और इसलिए संवैधानिक (Constitutional) रूप से वैध नहीं हो सकती।
न्यायिक पुनर्विचार (Judicial Review) और स्पष्ट मनमानी (Doctrine of Manifest Arbitrariness)
इस मामले में, अदालत ने स्पष्ट मनमानी (Manifest Arbitrariness) के सिद्धांत की भी जांच की, जिसे Shayara Bano v. Union of India (2017) मामले में स्थापित किया गया था। यह सिद्धांत कहता है कि यदि कोई कानून अनुचित (Unreasonable), अनुपातहीन (Disproportionate) या तर्कहीन (Irrational) है, तो उसे संविधान के अनुच्छेद 14 (Article 14) के तहत रद्द किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि 1988 अधिनियम संविधान की आवश्यकताओं को पूरा नहीं करता क्योंकि इसमें स्पष्ट कानूनी मानक (Clear Legal Standard) नहीं हैं। यह तय करने के लिए कि कोई संपत्ति बेनामी है या नहीं, कानून में कोई निश्चित मापदंड (Criteria) नहीं था। इसके अलावा, यह अधिनियम बिना किसी उचित प्रक्रिया (Due Process) के कठोर सजा लागू करने की अनुमति देता था, जिससे निर्दोष लोगों को भी सजा मिल सकती थी।
कोर्ट ने यह भी देखा कि 1988 अधिनियम को सरकार द्वारा 28 वर्षों तक लागू नहीं किया गया था। इस लंबे अंतराल के बाद, इसे पिछली तारीख से लागू करने का प्रयास करना अनुचित और अन्यायपूर्ण होगा। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि जब कोई सरकार स्वयं किसी कानून को लागू करने में सक्षम नहीं रही, तो उसे पिछली तारीख से नागरिकों पर थोपा नहीं जा सकता।
आपराधिक कानून में अपराधबोध (Mens Rea) और कठोर दायित्व (Strict Liability)
इस मामले में अदालत को यह तय करना था कि क्या बेनामी लेनदेन (Benami Transactions) के अपराध में "मेंस रेआ" (Mens Rea) अर्थात अपराधबोध (Guilty Mind) आवश्यक है।
सुप्रीम कोर्ट ने Nathulal v. State of Madhya Pradesh (1966) मामले का हवाला दिया, जिसमें यह निर्णय दिया गया था कि जब तक कोई कानून स्पष्ट रूप से "मेंस रेआ" को बाहर नहीं करता, तब तक इसे अपराध की अनिवार्य शर्त माना जाएगा।
कोर्ट ने पाया कि 1988 अधिनियम में किसी भी प्रकार के अपराधबोध (Mens Rea) की आवश्यकता नहीं थी, जिससे यह एक कठोर दायित्व (Strict Liability) अपराध बन गया। इस वजह से, कोई भी व्यक्ति सिर्फ इसलिए दोषी ठहराया जा सकता था क्योंकि उसने किसी अन्य व्यक्ति के लिए संपत्ति खरीदी थी, भले ही उसका कोई गलत इरादा (Intent) न रहा हो।
2016 के संशोधन (Amendment) में धारा 53 जोड़ी गई, जिसमें स्पष्ट रूप से यह प्रावधान किया गया कि बेनामी लेनदेन का अपराध सिद्ध करने के लिए अपराधबोध (Mens Rea) आवश्यक होगा। इससे यह साबित हुआ कि 1988 अधिनियम में अपराधबोध को शामिल न करना एक गलती थी और इसलिए, अदालत ने इसे असंवैधानिक घोषित किया।
क्या संपत्ति की जब्ती (Confiscation) नागरिक (Civil) दंड है या दंडात्मक (Punitive) सजा?
अदालत के सामने एक और महत्वपूर्ण सवाल यह था कि क्या 1988 अधिनियम के तहत संपत्ति की जब्ती एक नागरिक दंड (Civil Forfeiture) है या एक दंडात्मक सजा (Punitive Punishment)?
सरकार ने यह तर्क दिया कि संपत्ति की जब्ती सिर्फ एक नागरिक प्रक्रिया (Civil Procedure) है और इसलिए इसे अनुच्छेद 20(1) (Article 20(1)) के तहत प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को खारिज कर दिया और कहा कि 1988 अधिनियम के तहत जब्ती (Confiscation) वास्तव में एक दंडात्मक (Punitive) प्रक्रिया है।
अदालत ने यह स्पष्ट किया कि जब्ती सिर्फ एक निवारक उपाय (Preventive Measure) नहीं था, बल्कि यह अपराध के लिए एक सजा के रूप में इस्तेमाल किया गया था। इसलिए, इसे पूर्वव्यापी (Retrospective) रूप से लागू करना असंवैधानिक होगा।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने भारतीय संविधान में पूर्वव्यापी दंड (Retrospective Punishment) पर प्रतिबंध को और मजबूत किया। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि 1988 अधिनियम की दंडात्मक धाराएं असंवैधानिक हैं और इन्हें पिछली तारीख से लागू नहीं किया जा सकता।
यह निर्णय नागरिकों को सरकार की मनमानी कार्यवाही से बचाने और यह सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण है कि अपराधों के लिए दी जाने वाली सजा संविधान के अनुरूप और न्यायसंगत हो।