क्या UAPA मामलों में मंजूरी में देरी के कारण चार्जशीट को अमान्य मानकर डिफॉल्ट दी जा सकती है?

Himanshu Mishra

10 May 2025 5:07 PM IST

  • क्या UAPA मामलों में मंजूरी में देरी के कारण चार्जशीट को अमान्य मानकर डिफॉल्ट दी जा सकती है?

    सुप्रीम कोर्ट ने जजबीर सिंह उर्फ जसबीर सिंह बनाम राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) के मामले में यह अहम सवाल सुलझाया कि क्या Unlawful Activities (Prevention) Act, 1967 (UAPA) के तहत मुकदमा दर्ज होने पर यदि सरकार से अभियोजन की मंजूरी (Sanction) समय पर नहीं मिलती, तो क्या चार्जशीट अधूरी मानी जाएगी और आरोपी को डिफॉल्ट बेल (Default Bail) का हक मिलेगा?

    कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि जांच एजेंसी निर्धारित समय में चार्जशीट दाखिल कर देती है, तो मंजूरी बाद में आने से आरोपी को डिफॉल्ट बेल नहीं मिल सकती।

    धारा 167(2), दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) और डिफॉल्ट बेल (Section 167(2) CrPC and Default Bail)

    CrPC की धारा 167(2) कहती है कि अगर किसी आरोपी के खिलाफ तय समय सीमा में चार्जशीट दाखिल नहीं होती, तो उसे जमानत का अधिकार (Right to Bail) मिल जाता है। सामान्य अपराधों में यह समय 60 या 90 दिन होता है, लेकिन UAPA जैसे मामलों में यह सीमा UAPA की धारा 43D(2) के तहत 180 दिन तक बढ़ सकती है।

    इस प्रावधान का मकसद यह है कि किसी व्यक्ति को अनिश्चितकाल तक जेल में नहीं रखा जा सकता जब तक कि उसके खिलाफ जांच पूरी न हो जाए।

    UAPA की धारा 45 और अभियोजन की मंजूरी (Section 45 UAPA and Requirement of Sanction)

    UAPA की धारा 45(1) के अनुसार, कोर्ट तब तक कुछ विशेष अपराधों पर संज्ञान (Cognizance) नहीं ले सकती जब तक कि सरकार से अभियोजन की पूर्व मंजूरी (Sanction) न मिली हो। लेकिन यह मंजूरी जांच के लिए नहीं बल्कि मुकदमे की प्रक्रिया शुरू करने के लिए आवश्यक है।

    धारा 45(2) में यह भी कहा गया है कि मंजूरी एक स्वतंत्र समीक्षा प्राधिकरण (Independent Review Authority) द्वारा सबूत की समीक्षा के बाद दी जानी चाहिए। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि यदि मंजूरी समय पर न मिले, तो भी चार्जशीट को अधूरी नहीं माना जा सकता, जब तक कि वह समय पर दाखिल की गई हो।

    क्या डिफॉल्ट बेल के लिए चार्जशीट के साथ संज्ञान जरूरी है? (Is Cognizance Required for Default Bail?)

    एक बड़ा सवाल यह था कि क्या डिफॉल्ट बेल से बचने के लिए केवल चार्जशीट दाखिल करना काफी है या कोर्ट द्वारा उस पर संज्ञान (Cognizance) लेना भी जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केवल चार्जशीट का समय पर दाखिल होना ही काफी है। अगर संज्ञान में देरी होती है, तो भी यह नहीं माना जा सकता कि जांच अधूरी है।

    इस संबंध में कोर्ट ने Suresh Kumar Bhikamchand Jain और Serious Fraud Investigation Office v. Rahul Modi जैसे फैसलों का हवाला दिया, जिनमें यह कहा गया कि यदि समय सीमा के भीतर चार्जशीट दाखिल हो गई है, तो डिफॉल्ट बेल का अधिकार खत्म हो जाता है।

    NIA अधिनियम के तहत विशेष न्यायालयों की भूमिका (Role of Special Courts under NIA Act)

    NIA अधिनियम की धारा 16 के अनुसार, विशेष न्यायालय (Special Court) को UAPA मामलों में मूल अधिकार प्राप्त होता है। इसका मतलब है कि ये न्यायालय सीधे संज्ञान ले सकते हैं और उन्हें मजिस्ट्रेट द्वारा केस सौंपने की आवश्यकता नहीं होती।

    Bikramjit Singh v. State of Punjab मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया था कि UAPA के सभी मामले विशेष अदालतों में ही चलेंगे। इसलिए यदि प्रारंभिक रूप से चार्जशीट मजिस्ट्रेट के समक्ष दाखिल की गई हो, तो भी उसे शून्य (Null) नहीं माना जाएगा।

    उदाहरण के माध्यम से समझना (Understanding Through Illustrations)

    मान लीजिए कोई व्यक्ति UAPA के तहत 1 जनवरी को गिरफ्तार हुआ। जांच एजेंसी 180वें दिन यानी 30 जून को चार्जशीट दाखिल कर देती है लेकिन मंजूरी नहीं मिलती। आरोपी 1 जुलाई को डिफॉल्ट बेल की मांग करता है। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, यह बेल नहीं दी जा सकती क्योंकि चार्जशीट समय पर दाखिल हो चुकी थी।

    अब एक दूसरी स्थिति में मान लीजिए 180वें दिन तक चार्जशीट दाखिल नहीं हुई और आरोपी ने 181वें दिन डिफॉल्ट बेल मांगी। इस स्थिति में उसे बेल मिलनी चाहिए, भले ही बाद में चार्जशीट आ जाए। यह बात Sanjay Dutt v. State (1994) और M. Ravindran v. Intelligence Officer जैसे मामलों में भी स्पष्ट की गई है।

    पूरक चार्जशीट और मंजूरी आदेश (Supplementary Chargesheet and Sanction Order)

    कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि प्रारंभिक चार्जशीट में मंजूरी नहीं हो तो भी वह वैध मानी जाएगी और पूरक चार्जशीट (Supplementary Chargesheet) में बाद में मंजूरी जोड़ी जा सकती है।

    CBI v. R.S. Pai जैसे फैसलों में कहा गया है कि चार्जशीट के बाद भी अतिरिक्त दस्तावेज़ अदालत में प्रस्तुत किए जा सकते हैं। इसलिए प्रारंभिक चार्जशीट में मंजूरी न होना डिफॉल्ट बेल का आधार नहीं बनता।

    UAPA नियम 2008 और प्रक्रिया की व्याख्या (UAPA Rules 2008 and Procedural Compliance)

    UAPA के तहत 2008 में बनाए गए नियमों में यह बताया गया है कि सरकार को कितने समय में मंजूरी देनी चाहिए। लेकिन कोर्ट ने कहा कि ये प्रक्रिया संबंधी नियम हैं और यदि इनमें थोड़ी देर हो जाए तो भी CrPC की धारा 167(2) पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

    इसका अर्थ यह है कि जब तक जांच एजेंसी समय पर चार्जशीट दाखिल कर देती है, तब तक मंजूरी की प्रक्रिया में देरी का असर आरोपी के बेल अधिकार पर नहीं पड़ता।

    अन्य महत्वपूर्ण फैसलों का उल्लेख (Other Relevant Judgments)

    इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कई पुराने फैसलों का उल्लेख किया जैसे:

    Fakhrey Alam v. State of U.P. (2021) — आतंकवाद से जुड़े मामलों में प्रक्रिया के पालन पर जोर।

    Abdul Azeez P.V. v. NIA (2014) — NIA की कानूनी शक्ति को स्पष्ट किया गया।

    Madar Sheikh v. State of West Bengal — अगर आरोपी समय पर डिफॉल्ट बेल की मांग नहीं करता, तो उसका अधिकार समाप्त हो जाता है।

    Sayed Mohd. Ahmad Kazmi v. State (2012) — बेल की मांग समय पर की जाए तो ही उसका लाभ मिलता है।

    Judgebir Singh v. NIA का यह फैसला स्पष्ट करता है कि UAPA जैसे मामलों में अगर जांच एजेंसी निर्धारित 180 दिनों के भीतर चार्जशीट दाखिल कर देती है, तो उसके साथ मंजूरी न होने के बावजूद डिफॉल्ट बेल का अधिकार समाप्त हो जाता है। मंजूरी न मिलना केवल ट्रायल की प्रक्रिया को प्रभावित करता है, न कि जांच की पूर्णता को।

    यह निर्णय जांच एजेंसियों को समय पर चार्जशीट दाखिल करने के लिए प्रेरित करता है और साथ ही अदालतों को यह मार्गदर्शन देता है कि आरोपी के संवैधानिक अधिकारों (Constitutional Rights) और राष्ट्रीय सुरक्षा (National Security) के बीच संतुलन कैसे बनाए रखा जाए।

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