क्या सख्त जमानत कानून संविधान के अधिकारों, खासकर जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संतुलित हो सकते हैं?

Himanshu Mishra

21 Nov 2024 5:39 PM IST

  • क्या सख्त जमानत कानून संविधान के अधिकारों, खासकर जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संतुलित हो सकते हैं?

    सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह तय किया कि विशेष कानूनों जैसे अनलॉफुल एक्टिविटीज (प्रिवेंशन) एक्ट, 1967 (Unlawful Activities (Prevention) Act, UAPA) के सख्त जमानत प्रावधान और संविधान के भाग III के तहत दिए गए मौलिक अधिकारों, खासकर जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Right to Liberty) के बीच संतुलन कैसे स्थापित किया जाए।

    कोर्ट ने UAPA की धारा 43-D(5) का विश्लेषण किया, जो गंभीर अपराधों के आरोपी को तब तक जमानत देने से रोकता है जब तक कोर्ट यह सुनिश्चित न कर ले कि आरोपी प्राथमिक दृष्टि से (Prima Facie) दोषी नहीं है। फैसले ने यह भी रेखांकित किया कि बिना सुनवाई लंबे समय तक जेल में रखना, संविधान के तहत दिए गए अधिकारों का उल्लंघन हो सकता है।

    कानूनी ढांचा (Legal Framework)

    इस मामले में धारा 43-D(5) के प्रावधानों को प्रमुखता से समझा गया। यह धारा जमानत को लगभग असंभव बना देती है, जब तक कोर्ट को यह विश्वास न हो जाए कि आरोपी के खिलाफ आरोप प्रमाणिक नहीं हैं। इस सख्त प्रावधान का उद्देश्य गंभीर अपराधों जैसे आतंकवाद (Terrorism) को रोकना है।

    हालांकि, कोर्ट ने इस प्रावधान की तुलना संविधान के अनुच्छेद 21 (Article 21) से की, जो जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है। कोर्ट ने जोर देकर कहा कि बिना निष्पक्ष और समय पर सुनवाई के किसी व्यक्ति को लंबे समय तक जेल में नहीं रखा जा सकता। यह संतुलन स्थापित करना इस मामले का मुख्य बिंदु था।

    प्रमुख मुद्दे (Key Issues Addressed)

    1. UAPA की धारा 43-D(5) की सख्ती (Stringency of Section 43-D(5) of UAPA)

    यह धारा विशेष रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था को खतरे में डालने वाले अपराधों में जमानत को सीमित करती है। इसमें कोर्ट को जमानत देने से पहले साक्ष्यों का प्राथमिक मूल्यांकन (Prima Facie Assessment) करना होता है।

    कोर्ट ने यह स्वीकार किया कि ऐसे प्रावधान गंभीर खतरों को रोकने के लिए आवश्यक हैं, लेकिन जब लंबे समय तक सुनवाई में देरी होती है, तो यह आरोपी की स्वतंत्रता के लिए अनुचित बोझ बन सकता है।

    2. लंबे समय तक कैद और शीघ्र सुनवाई का अधिकार (Prolonged Incarceration and Right to Speedy Trial)

    कोर्ट ने संविधान में दिए गए शीघ्र सुनवाई के अधिकार (Right to Speedy Trial) पर जोर दिया। यह देखा गया कि जब तक अभियुक्तों के खिलाफ मुकदमे में पर्याप्त प्रगति न हो, उन्हें जेल में रखना अनुचित है।

    कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि UAPA जैसे सख्त प्रावधानों की व्याख्या भी संविधान के अधिकारों के साथ सामंजस्य (Harmony) में होनी चाहिए। केवल आरोप तय करना या औपचारिक सुनवाई शुरू करना, लंबे समय तक कैद को सही नहीं ठहरा सकता।

    3. अन्य सख्त कानूनों से तुलना (Comparative Analysis with Other Stringent Laws)

    फैसले में UAPA की धारा 43-D(5) की तुलना नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट, 1985 (Narcotic Drugs and Psychotropic Substances Act, NDPS) की धारा 37 से की गई। NDPS में जमानत के लिए यह आवश्यक है कि कोर्ट को यकीन हो कि आरोपी दोषी नहीं है और वह जमानत पर रहते हुए कोई अपराध नहीं करेगा।

    कोर्ट ने नोट किया कि UAPA के प्रावधान NDPS की तुलना में कम सख्त हैं। UAPA में जमानत का निर्णय मुख्य रूप से न्यायिक विवेक (Judicial Discretion) पर निर्भर है, जबकि NDPS में पहले से ही शर्तें तय की गई हैं।

    फैसले में महत्वपूर्ण दृष्टिकोण (Judicial Approach in the Case)

    कोर्ट ने उच्च न्यायालय द्वारा जमानत दिए जाने के फैसले को बरकरार रखा, यह देखते हुए कि आरोपी को पांच साल से अधिक समय तक हिरासत में रखा गया और सुनवाई पूरी होने की संभावना निकट भविष्य में नहीं थी।

    इसके अलावा, अदालत ने देखा कि अभियोजन पक्ष ने 276 गवाहों की सूची प्रस्तुत की थी, लेकिन इनकी जांच के लिए कोई ठोस समय सीमा नहीं थी। ऐसी स्थिति में, आगे की कैद को बिना सुनवाई सजा के समान माना जाता, जो प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) के सिद्धांतों का उल्लंघन होता।

    प्रमुख निष्कर्ष (Key Takeaways)

    सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के माध्यम से कई महत्वपूर्ण बातें स्पष्ट कीं:

    • UAPA जैसे सख्त कानूनों के प्रावधान अदालत की जिम्मेदारी को समाप्त नहीं करते कि वे मौलिक अधिकारों की रक्षा करें।

    • बिना सुनवाई लंबे समय तक कैद रखना अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है और इसके लिए न्यायिक हस्तक्षेप (Judicial Intervention) आवश्यक है।

    • न्यायपालिका को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसे कानूनों का दुरुपयोग न हो, ताकि किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकार प्रभावित न हों।

    इस फैसले के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि संविधान द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रता की रक्षा के लिए वह जिम्मेदार है।

    अदालत ने यह दिखाया कि कैसे सख्त कानूनों के बीच संतुलन स्थापित किया जा सकता है, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए आवश्यक हैं, लेकिन न्याय और निष्पक्षता (Justice and Fairness) के बुनियादी सिद्धांतों को प्रभावित नहीं करते। यह फैसला राष्ट्रीय सुरक्षा और व्यक्तिगत अधिकारों के बीच संतुलन बनाने में एक महत्वपूर्ण मिसाल (Precedent) के रूप में कार्य करेगा।

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