क्या धारा 357 दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के अंतर्गत दिया जाने वाला मुआवज़ा आरोपी को जेल की सज़ा से मुक्ति दिलाने का साधन माना जा सकता है?

Himanshu Mishra

22 Aug 2025 5:47 PM IST

  • क्या धारा 357 दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के अंतर्गत दिया जाने वाला मुआवज़ा आरोपी को जेल की सज़ा से मुक्ति दिलाने का साधन माना जा सकता है?

    प्रस्तावना (Introduction)

    सुप्रीम कोर्ट ने Rajendra Bhagwanji Umraniya v. State of Gujarat (2024) में एक अहम सवाल पर विचार किया कि क्या अदालतें आपराधिक मामलों में कैद की सज़ा को इस शर्त पर घटा या माफ कर सकती हैं कि आरोपी पीड़ित (Victim) को मुआवज़ा (Compensation) अदा कर दे।

    यह मामला मुख्य रूप से Section 357 of the Code of Criminal Procedure, 1973 (CrPC) की व्याख्या (Interpretation) से जुड़ा था, जिसमें अदालत को पीड़ित को मुआवज़ा देने की शक्ति (Power) दी गई है। अदालत ने सज़ा और मुआवज़े के बीच संबंध, पीड़ित विज्ञान (Victimology), और पहले दिए गए फैसलों (Precedents) का विश्लेषण करते हुए स्पष्ट किया कि क्या पैसे के बदले जेल की सज़ा को बदला जा सकता है।

    धारा 357 सीआरपीसी (Section 357 CrPC) और उसका उद्देश्य (Purpose)

    धारा 357 CrPC अदालत को यह अधिकार देती है कि वह आरोपी पर लगाए गए जुर्माने (Fine) का कुछ हिस्सा या अलग से मुआवज़ा (Compensation) पीड़ित को दिला सके। इसका मकसद अपराध से प्रभावित हुए व्यक्ति या उसके परिवार को कुछ राहत पहुंचाना है।

    इस धारा की खास बात यह है कि Sub-section (3) अदालत को यह शक्ति देता है कि वह मुआवज़ा तब भी दिला सके जब सज़ा में कोई जुर्माना शामिल न हो। इसका अर्थ यह है कि मुआवज़ा स्वतंत्र (Independent) उपाय है, जो केवल पीड़ित के लिए है और सज़ा की मात्रा या प्रकार से जुड़ा नहीं है।

    प्रारंभिक दृष्टिकोण: मारु राम बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (Maru Ram v. Union of India)

    Maru Ram v. Union of India (1981) में जस्टिस वी. आर. कृष्णा अय्यर ने कहा था कि अपराधी को केवल दंडित (Punish) करना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि अपराध से हुए नुकसान की भरपाई (Reparation) भी जरूरी है। उन्होंने बताया कि जेल की सज़ा पीड़ित के घाव नहीं भरती, इसलिए मुआवज़ा जैसे प्रावधान (Provisions) ज़रूरी हैं।

    हालाँकि, इस फैसले ने यह कभी नहीं कहा कि मुआवज़ा कैद की सज़ा की जगह ले सकता है। दोनों का उद्देश्य अलग है—सज़ा का उद्देश्य निवारण (Deterrence) और प्रतिशोध (Retribution) है, जबकि मुआवज़े का उद्देश्य पुनर्स्थापन (Restitution) है।

    पीड़ित के अधिकारों को मज़बूत करना: हरी सिंह बनाम सुखबीर सिंह (Hari Singh v. Sukhbir Singh)

    Hari Singh v. Sukhbir Singh (1988) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मुआवज़ा देने की शक्ति केवल सहायक (Ancillary) नहीं बल्कि सज़ा के अतिरिक्त (In addition) है। इसका उद्देश्य यह है कि पीड़ित को यह भरोसा दिलाया जाए कि वह आपराधिक न्याय प्रणाली (Criminal Justice System) में भुलाया नहीं गया है।

    अदालत ने कहा कि मुआवज़ा अपराध के प्रति सकारात्मक (Constructive) दृष्टिकोण है और यह अपराधी व पीड़ित के बीच सामंजस्य (Reconciliation) की संभावना पैदा करता है। लेकिन यहाँ भी यह स्पष्ट था कि मुआवज़ा कभी भी कैद की सज़ा का विकल्प (Substitute) नहीं हो सकता।

    हाईकोर्ट (High Court) की भूल

    इस मामले में गुजरात हाईकोर्ट (High Court) ने दो दोषियों की सज़ा पाँच साल से घटाकर चार साल कर दी। लेकिन इसके साथ ही यह भी कहा कि यदि आरोपी पाँच लाख रुपये का मुआवज़ा जमा कर दें तो उन्हें चार साल की सज़ा भी भुगतनी नहीं होगी।

    इससे यह स्थिति बनी कि पैसे देकर जेल की सज़ा से बचा जा सकता है। हाईकोर्ट ने Ankush Shivaji Gaikwad v. State of Maharashtra (2013) का सहारा लिया, जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने पीड़ित को मुआवज़ा देने पर ज़ोर दिया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि हाईकोर्ट ने उस फैसले की गलत व्याख्या की और उसे सीमा से अधिक बढ़ाया।

    सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण (Supreme Court's Analysis)

    सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि मुआवज़ा और सज़ा दो अलग-अलग चीजें हैं। मुआवज़ा पीड़ित-केंद्रित (Victim-centric) है और पुनर्स्थापन (Restitution) का साधन है, जबकि सज़ा दंडात्मक (Punitive) और निवारक (Deterrent) है।

    अदालत ने कहा कि यदि मुआवज़े को सज़ा के स्थान पर मान लिया जाए तो यह अमीर अपराधियों को "पैसे देकर न्याय खरीदने" का अवसर देगा और गरीब अपराधी जेल में रहेंगे। यह समानता (Equality) के सिद्धांत और आपराधिक न्याय प्रणाली की मूल भावना के खिलाफ होगा।

    पीड़ित विज्ञान (Victimology) और उसकी सीमाएँ

    अदालत ने माना कि आधुनिक आपराधिक न्यायशास्त्र (Criminal Jurisprudence) में पीड़ित विज्ञान (Victimology) का महत्व बहुत अधिक है। पीड़ित अक्सर न्याय प्रणाली में भुला दिए जाते हैं और मुआवज़ा उन्हें राहत देता है।

    लेकिन अदालत ने यह भी कहा कि पीड़ित विज्ञान की सीमा है। यह सज़ा को प्रभावित नहीं कर सकता। मुआवज़ा केवल पीड़ित को राहत देने का साधन है, न कि आरोपी को दंड से मुक्त करने का तरीका।

    सुप्रीम कोर्ट की मुख्य टिप्पणियाँ (Key Observations)

    सुप्रीम कोर्ट ने कई महत्वपूर्ण बातें स्पष्ट कीं:

    1. धारा 357 CrPC पूरी तरह से पीड़ित के लिए है और इसका सज़ा से कोई संबंध नहीं।

    2. मुआवज़ा कभी भी कैद की सज़ा घटाने या माफ करने का आधार नहीं हो सकता।

    3. आरोपी की भुगतान क्षमता (Capacity to pay) देखी जा सकती है, लेकिन यह सज़ा तय नहीं कर सकती।

    4. यदि मुआवज़े को सज़ा घटाने का आधार बनाया गया, तो यह आपराधिक न्याय प्रणाली पर विनाशकारी (Catastrophic) प्रभाव डालेगा।

    वर्तमान मामले में संतुलित न्याय (Balancing Justice)

    हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने माना कि हाईकोर्ट ने गलती की थी, लेकिन उसने यह भी देखा कि घटना को 12 साल बीत चुके हैं और आरोपी पहले ही पाँच लाख रुपये जमा कर चुके हैं।

    इसलिए अदालत ने उन्हें जेल भेजने के बजाय यह आदेश दिया कि वे और 10 लाख रुपये जमा करें। इस तरह कुल 15 लाख रुपये पीड़ित को दिए जाएँगे। इस निर्णय ने कानून के सिद्धांत को बनाए रखते हुए पीड़ित को पर्याप्त राहत भी दी।

    Rajendra Bhagwanji Umraniya v. State of Gujarat (2024) में सुप्रीम कोर्ट ने दोबारा स्पष्ट किया कि मुआवज़ा (Compensation) और सज़ा (Sentencing) स्वतंत्र उपाय हैं। धारा 357 CrPC केवल पीड़ित की मदद के लिए है, लेकिन यह कभी भी दंड (Punishment) को कम या समाप्त करने का आधार नहीं बन सकता।

    यह निर्णय पुराने फैसलों जैसे Maru Ram, Hari Singh, और Ankush Shivaji Gaikwad पर आधारित है लेकिन साथ ही उनके गलत प्रयोग को भी सुधरता है। अदालत ने साफ कर दिया कि न्याय को पैसे से नहीं खरीदा जा सकता।

    यह फैसला दिखाता है कि न्याय केवल पीड़ित के लिए ही नहीं बल्कि समाज के लिए भी होना चाहिए। सज़ा और मुआवज़ा दोनों की भूमिका अलग-अलग है और उन्हें मिलाना न्याय प्रणाली के मूल सिद्धांतों को कमजोर कर देगा।

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