क्या NDPS कानून के तहत लगाई गई जमानत की शर्तें मौलिक अधिकारों को सीमित कर सकती हैं?
Himanshu Mishra
26 Aug 2025 4:59 PM IST

प्रस्तावना
सुप्रीम कोर्ट का हाल का निर्णय Frank Vitus बनाम Narcotics Control Bureau (2024) भारतीय आपराधिक न्यायशास्त्र के लिए एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। यह निर्णय केवल एक विदेशी नागरिक के मामले तक सीमित नहीं था बल्कि इसने व्यापक प्रश्न उठाए कि क्या जमानत देते समय अदालतें ऐसी शर्तें लगा सकती हैं जो व्यक्ति के मौलिक अधिकारों पर असंगत रोक लगाती हों।
खासकर अदालत ने दो शर्तों का परीक्षण किया – एक, आरोपी को अपनी स्थिति बताने के लिए गूगल मैप पर PIN गिराने की बाध्यता और दूसरी, आरोपी के देश की एम्बेसी या हाई कमीशन से यह प्रमाणपत्र लाने की आवश्यकता कि वह देश छोड़कर नहीं जाएगा।
यह फ़ैसला केवल तकनीकी या प्रक्रियात्मक नहीं बल्कि संवैधानिक महत्व का है क्योंकि इसने अनुच्छेद 21 में निहित जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार तथा निजता के अधिकार को सीधे प्रभावित करने वाले प्रश्नों पर विचार किया। अदालत ने यह भी देखा कि एनडीपीएस (NDPS) कानून के तहत पहले से ही कठोर शर्तें लागू हैं, फिर भी जमानत के बाद लगाई जाने वाली अतिरिक्त शर्तें कितनी दूर तक जा सकती हैं।
जमानत का वैधानिक ढाँचा: CrPC और NDPS कानून
जमानत से जुड़ा सामान्य प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Code of Criminal Procedure – CrPC) में है। धारा 439 उच्च न्यायालय और सेशन न्यायालय को यह शक्ति देती है कि वे गैर-जमानती अपराधों में आरोपी को जमानत दे सकें। धारा 437(3) यह बताती है कि जब कोई आरोपी गंभीर अपराध में जमानत पर छोड़ा जाता है तो अदालत कुछ शर्तें लगा सकती है।
इन शर्तों में अदालत यह सुनिश्चित करती है कि आरोपी नियमित रूप से पेश होगा, समान प्रकृति का अपराध दोबारा नहीं करेगा और गवाहों या सबूतों से छेड़छाड़ नहीं करेगा। इसके अतिरिक्त अदालत “हित न्याय का” अर्थात न्याय की निष्पक्षता और सुचारु प्रशासन के लिए अन्य शर्तें भी लगा सकती है।
लेकिन मादक पदार्थ और मनोत्तेजक पदार्थ अधिनियम, 1985 (NDPS Act) एक विशेष और कठोर कानून है। इसकी धारा 37 यह घोषित करती है कि इसके अंतर्गत आने वाले अपराध संज्ञेय (Cognizable) और गैर-जमानती (Non-bailable) होंगे। इसके अतिरिक्त, जमानत तभी दी जा सकती है जब दो शर्तें पूरी हों। पहली, अभियोजक को आपत्ति जताने का अवसर दिया जाए। दूसरी, अदालत को यह विश्वास हो कि आरोपी दोषी नहीं है और वह जमानत पर रहते हुए अपराध नहीं करेगा। इसका अर्थ है कि सामान्य आपराधिक मामलों की तुलना में NDPS मामलों में जमानत पाना कहीं अधिक कठिन है और अदालत को जमानत देने से पहले कड़े मानदंड पूरे करने पड़ते हैं।
“हित न्याय का” वाक्यांश और उसकी सीमा
धारा 437(3) में प्रयुक्त “हित न्याय का” (Interest of Justice) शब्द अदालतों को अतिरिक्त शर्तें लगाने की शक्ति देता है। लेकिन इस वाक्यांश का अर्थ असीमित या मनमाना नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कुनाल कुमार तिवारी बनाम बिहार राज्य (2018) 16 SCC 74 में यह स्पष्ट किया कि इस शब्द का उद्देश्य केवल “न्याय के सुचारु प्रशासन” या “ट्रायल प्रक्रिया को आगे बढ़ाने” तक सीमित है। अदालत ने कहा कि इसका विस्तृत और असीमित अर्थ नहीं निकाला जा सकता क्योंकि इससे आरोपी पर अव्यावहारिक और कठोर बोझ डाला जाएगा।
इसी तरह मुनीश भसीन बनाम दिल्ली राज्य (2009) 4 SCC 45 में भी यह दोहराया गया कि अदालतें जमानत देते समय “फ्रीकिश” या “अजीबोगरीब” शर्तें नहीं लगा सकतीं। अदालत का विवेक यद्यपि व्यापक है, लेकिन वह प्रासंगिक तथ्यों और न्यायसंगत उद्देश्यों तक ही सीमित रहना चाहिए। इस दृष्टि से “हित न्याय का” वाक्यांश आरोपी की स्वतंत्रता को नियंत्रित करने का खुला निमंत्रण नहीं है, बल्कि इसका प्रयोग संतुलित और तर्कसंगत रूप से होना चाहिए।
अनुच्छेद 21 और जमानत की संवैधानिक सीमा
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से तभी वंचित किया जा सकता है जब कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया का पालन किया गया हो। इस अधिकार की व्यापक व्याख्या समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट ने की है। चल्ला रामकृष्ण रेड्डी मामला (2000) 5 SCC 712 में अदालत ने कहा कि जेल में बंद कैदी भी अपने मूलभूत अधिकारों से वंचित नहीं होते। वह इंसान बने रहते हैं और उन्हें अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त रहता है।
Frank Vitus निर्णय में भी यही विचार आगे बढ़ाया गया। अदालत ने कहा कि जब तक आरोपी दोषी सिद्ध नहीं होता, उसे निर्दोष मानने का सिद्धांत लागू होता है। इसलिए उसकी स्वतंत्रता को केवल उतनी ही सीमा तक नियंत्रित किया जा सकता है जितनी सीमा में न्यायिक प्रक्रिया को सुरक्षित रखना आवश्यक हो। अदालतों को जमानत देते समय संयम दिखाना चाहिए और अत्यधिक या असंभव शर्तें नहीं लगानी चाहिए। यदि शर्तें इतनी बोझिल हों कि आरोपी जमानत पर बाहर आ ही न सके, तो यह जमानत के मूल उद्देश्य के विपरीत होगा।
निजता का अधिकार और गूगल मैप PIN की शर्त
इस मामले में सबसे चर्चित प्रश्न यह था कि क्या आरोपी को गूगल मैप पर PIN गिराने और पुलिस को अपनी स्थिति बताने की शर्त लगाई जा सकती है। यह शर्त वास्तव में आरोपी की निरंतर निगरानी (Constant Surveillance) की दिशा में एक कदम थी। सुप्रीम कोर्ट ने तकनीकी पहलुओं को समझने के लिए गूगल एलएलसी से स्पष्टीकरण माँगा।
गूगल ने स्पष्ट किया कि PIN गिराना केवल किसी स्थायी स्थान को चिन्हित करना है और इससे वास्तविक समय की निगरानी नहीं हो सकती। फिर भी अदालत ने यह रेखांकित किया कि अगर तकनीक के माध्यम से आरोपी की हर गतिविधि पर नज़र रखी जाए तो यह निजता के अधिकार का उल्लंघन होगा।
निजता का अधिकार अनुच्छेद 21 का हिस्सा है, जैसा कि के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017) में नौ जजों की संविधान पीठ ने घोषित किया। अदालत ने कहा था कि निजता व्यक्ति की गरिमा और स्वतंत्रता का मूल तत्व है। Frank Vitus निर्णय में इसी विचार को लागू करते हुए कहा गया कि आरोपी को तकनीकी माध्यम से हर समय ट्रैक करने की शर्त उसे एक प्रकार की “आभासी जेल” (Virtual Confinement) में डाल देती है। ऐसा करना जमानत की अवधारणा के विपरीत है क्योंकि जमानत का उद्देश्य आरोपी को सीमित शर्तों के साथ स्वतंत्रता प्रदान करना है, न कि उसे दूसरी तरह की कैद में रखना।
एम्बेसी से प्रमाणपत्र की शर्त और उसकी वैधता
दूसरी महत्वपूर्ण शर्त यह थी कि आरोपी को नाइजीरियाई हाई कमीशन से प्रमाणपत्र लाना होगा जिसमें यह आश्वासन दिया जाए कि वह भारत नहीं छोड़ेगा। यह शर्त सुप्रीम कोर्ट के Supreme Court Legal Aid Committee बनाम भारत संघ (1994) 6 SCC 731* के फ़ैसले से ली गई थी। उस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने लंबे समय से जेल में बंद विदेशी आरोपियों के लिए कुछ विशेष दिशानिर्देश दिए थे।
लेकिन Frank Vitus मामले में अदालत ने स्पष्ट किया कि 1994 के निर्देश “वन टाइम” थे, यानी केवल उस समय लंबित मामलों के लिए। उन्हें हर मामले में अनिवार्य रूप से लागू नहीं किया जा सकता। अदालत ने यह भी कहा कि ऐसा प्रमाणपत्र लाना आरोपी के नियंत्रण में नहीं है क्योंकि एम्बेसी चाहे तो मना कर सकती है या देर कर सकती है।
यदि किसी शर्त का पालन करना आरोपी के लिए असंभव हो तो उसे उस आधार पर जमानत से वंचित करना अन्यायपूर्ण होगा। इसीलिए अदालत ने कहा कि इस शर्त को हटाया जाना चाहिए और उसकी जगह अधिक व्यावहारिक विकल्प अपनाए जा सकते हैं, जैसे पासपोर्ट जमा कराना और नियमित रूप से पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट करना।
तोफ़ान सिंह निर्णय और NDPS मामलों में इसका प्रभाव
तोफ़ान सिंह बनाम तमिलनाडु राज्य (2021) 4 SCC 1 में सुप्रीम कोर्ट ने NDPS कानून की धारा 67 के तहत दर्ज आरोपी के कबूलनामों को अस्वीकार्य (Inadmissible) ठहराया था। अदालत ने कहा था कि जाँच अधिकारियों के समक्ष दिए गए बयान स्वीकारोक्ति नहीं माने जा सकते और उन्हें अभियोजन के लिए सबूत के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
Frank Vitus मामले में भी आरोपी के खिलाफ मुख्य सबूत धारा 67 के अंतर्गत दर्ज बयानों पर आधारित था। इसलिए अदालत ने कहा कि जब प्रमुख साक्ष्य ही स्वीकार्य नहीं हैं तो आरोपी को जमानत देने से इनकार करने का कोई औचित्य नहीं बचता। इस प्रकार तोफ़ान सिंह का निर्णय Frank Vitus केस में आरोपी के अधिकारों की रक्षा का महत्वपूर्ण आधार बना।
सुप्रीम कोर्ट ने कौन-से मूल प्रश्न स्पष्ट किए
इस पूरे निर्णय का सार यह है कि अदालत ने दो बुनियादी सवालों का समाधान किया। पहला, क्या तकनीकी साधनों के माध्यम से आरोपी की हर गतिविधि पर निगरानी रखने की शर्त लगाई जा सकती है? अदालत ने कहा कि नहीं, क्योंकि यह अनुच्छेद 21 में निहित निजता और स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है। दूसरा, क्या विदेशी आरोपी को अपनी एम्बेसी से प्रमाणपत्र लाना अनिवार्य किया जा सकता है? अदालत ने कहा कि नहीं, क्योंकि यह उसके नियंत्रण से बाहर है और असंभव शर्तें लगाने से जमानत का उद्देश्य ही नष्ट हो जाएगा।
Frank Vitus बनामn Narcotics Control Bureau का निर्णय भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह हमें याद दिलाता है कि जमानत केवल एक तकनीकी औपचारिकता नहीं बल्कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा का साधन है। NDPS कानून निश्चित रूप से सख़्त है और इसमें जमानत पाना आसान नहीं है। लेकिन जब अदालत जमानत देती है तो उसकी शर्तें यथार्थवादी, तर्कसंगत और न्यायसंगत होनी चाहिए। शर्तें ऐसी नहीं हो सकतीं जो आरोपी को “जमानत के नाम पर कैद” में डाल दें या उसे असंभव बोझ से दबा दें।
इस फैसले ने दो महत्वपूर्ण सिद्धांतों को पुष्ट किया—पहला, निजता और स्वतंत्रता का अधिकार हर आरोपी के पास रहता है और अदालतें केवल उतनी ही सीमा तक उसे नियंत्रित कर सकती हैं जितना आवश्यक है। दूसरा, अदालतें व्यावहारिक और निष्पक्ष शर्तें ही लगा सकती हैं, असंभव या मनमानी शर्तें लगाने का उन्हें अधिकार नहीं है।
इस प्रकार, यह फैसला न केवल NDPS मामलों में बल्कि पूरे आपराधिक न्यायशास्त्र में एक मार्गदर्शक सिद्धांत प्रस्तुत करता है कि मौलिक अधिकारों से ऊपर कोई शर्त नहीं हो सकती और न्याय के हित में भी न्याय के मूलभूत सिद्धांतों की रक्षा करना अनिवार्य है।

