क्या UAPA के तहत ज़मानत इस आधार पर दी जा सकती है कि आरोपी का आतंकवादी कृत्य से कोई सीधा संबंध नहीं है?

Himanshu Mishra

20 Jun 2025 11:20 AM

  • क्या UAPA के तहत ज़मानत इस आधार पर दी जा सकती है कि आरोपी का आतंकवादी कृत्य से कोई सीधा संबंध नहीं है?

    प्रस्तावना (Introduction): आतंकवाद निरोधक कानून और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संतुलन

    सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए महत्वपूर्ण निर्णय वर्नन बनाम महाराष्ट्र राज्य (2023) में यह स्पष्ट किया गया कि अगर किसी व्यक्ति के खिलाफ कोई प्रत्यक्ष प्रमाण (Direct Evidence) नहीं है जिससे यह साबित हो कि उसने आतंकवादी गतिविधियों (Terrorist Acts) में भाग लिया है, तो अनलॉफ़ुल एक्टिविटीज़ (प्रिवेंशन) एक्ट, 1967 (Unlawful Activities Prevention Act – UAPA) के तहत उसकी ज़मानत (Bail) से इनकार नहीं किया जा सकता।

    कोर्ट ने इस मामले में UAPA की धारा 15, 16, 17, 18, 18B, 20, 38, 39 और 40 की व्याख्या करते हुए यह देखा कि अभियोजन पक्ष द्वारा पेश किए गए प्रमाण सीधे नहीं थे और उनमें उच्च स्तर की कानूनी विश्वसनीयता (Probative Value) नहीं थी।

    UAPA के तहत ज़मानत पर रोक की कानूनी व्यवस्था (Bail Restriction Framework under UAPA)

    UAPA की धारा 43D(5) यह कहती है कि अगर किसी व्यक्ति पर अध्याय IV और VI के अंतर्गत अपराध का आरोप है, तो उसे तब तक ज़मानत नहीं दी जा सकती जब तक अदालत को यह न लगे कि उसके खिलाफ लगाए गए आरोप प्रथम दृष्टया सत्य (Prima Facie True) नहीं हैं।

    हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने यह भी दोहराया कि धारा 21 के तहत आरोपी का व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) का अधिकार हमेशा सुरक्षित रहता है और अगर मुकदमे में देरी हो रही हो या सबूत बहुत कमज़ोर हों, तो कोर्ट ज़मानत दे सकती है। यह सिद्धांत Union of India v. K.A. Najeeb (2021) में भी स्थापित किया गया था।

    प्रथम दृष्टया सत्य का अर्थ (Prima Facie True: Meaning and Test)

    कोर्ट ने NIA बनाम ज़हूर अहमद शाह वटाली (2019) केस का हवाला देते हुए कहा कि ज़मानत के चरण पर अदालत को अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत सामग्री को सतही रूप से स्वीकार करना होता है। लेकिन यह केवल नाममात्र की स्वीकृति नहीं हो सकती अगर सामग्री कमजोर हो या उसमें आरोप सिद्ध करने की शक्ति नहीं हो, तो आरोपी को ज़मानत दी जा सकती है। इस केस में अधिकांश दस्तावेज़ तीसरे पक्ष द्वारा लिखे गए पत्र थे जो न तो आरोपियों से बरामद हुए थे और न ही उनके द्वारा लिखे गए थे।

    आतंकवादी कृत्य से सीधा संबंध नहीं (No Direct Link to a Terrorist Act)

    UAPA की धारा 15 के अनुसार, कोई भी कृत्य तभी आतंकवादी कृत्य (Terrorist Act) माना जाएगा जब उसका उद्देश्य लोगों में आतंक फैलाना या भारत की एकता और संप्रभुता को खतरा पहुंचाना हो। धारा 16 और 17 क्रमशः आतंकवादी कृत्य करने और उसके लिए फंड जुटाने को दंडनीय बनाती हैं।

    लेकिन कोर्ट ने पाया कि न तो वर्नन गोंसाल्विस और न ही अरुण फरेरा ने ऐसा कोई काम किया जिससे यह साबित हो कि उन्होंने किसी आतंकवादी कृत्य को अंजाम दिया या उसमें मदद की।

    केवल वामपंथी साहित्य (Left-Wing Literature) रखने या शैक्षणिक सेमिनार में भाग लेने से यह साबित नहीं होता कि कोई व्यक्ति आतंकवाद फैला रहा है।

    सदस्यता और संगठन से जुड़ाव का मूल्यांकन (On Membership and Association)

    धारा 20, 38 और 39 के तहत किसी आतंकवादी संगठन की सदस्यता, उससे जुड़ाव या समर्थन को अपराध माना गया है। लेकिन कोर्ट ने अरूप भुइयां बनाम असम राज्य (2023) मामले में दी गई व्याख्या का अनुसरण करते हुए कहा कि जब तक कोई व्यक्ति उस संगठन की गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग नहीं लेता, तब तक केवल "सदस्य" होना पर्याप्त नहीं है।

    इस केस में अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि इंडियन एसोसिएशन ऑफ पीपल्स लॉयर्स (IAPL) एक फ्रंटल संगठन (Frontal Organisation) है, लेकिन कोर्ट ने कहा कि केवल IAPL से जुड़ाव या वकालत में सक्रिय रहना आतंकवाद के समर्थन का प्रमाण नहीं माना जा सकता।

    कमजोर साक्ष्य और न्याय का सिद्धांत (Weak Evidence and Principle of Justice)

    कोर्ट ने यह पाया कि अभियोजन पक्ष द्वारा दिए गए अधिकांश साक्ष्य दूसरों द्वारा लिखे गए पत्रों पर आधारित थे, जो न तो आरोपियों द्वारा लिखे गए थे और न ही उनसे जब्त किए गए। इनमें से कई उल्लेख परोक्ष (Indirect) और सुने-सुनाए (Hearsay) प्रकार के थे। कोर्ट ने डॉ. आनंद तेलतुंबड़े बनाम एनआईए (2022) का हवाला दिया, जिसमें ऐसे ही साक्ष्य को नाकाफी माना गया था और आरोपी को ज़मानत दी गई थी।

    देरी और स्वतंत्रता का संतुलन (Delay and the Right to Liberty)

    कोर्ट ने यह माना कि आरोपी लगभग पाँच वर्षों से हिरासत में थे और अब तक मुकदमे में कोई ठोस प्रगति नहीं हुई थी। सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि केवल गंभीर आरोप लगना ही किसी को अनिश्चितकालीन हिरासत में रखने का आधार नहीं हो सकता, विशेषकर तब जब प्रमाण पर्याप्त नहीं हैं। यह संविधान के अनुच्छेद 21 (Article 21) के तहत व्यक्ति के स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन होगा।

    वर्नन बनाम महाराष्ट्र राज्य के इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भले ही UAPA जैसे कानून राष्ट्रीय सुरक्षा (National Security) के लिए जरूरी हैं, लेकिन उनकी आड़ में व्यक्ति की स्वतंत्रता (Liberty) को अनिश्चित काल तक नहीं छीना जा सकता।

    अदालतों का यह दायित्व है कि वे अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों की गुणवत्ता (Quality of Evidence) की निष्पक्ष समीक्षा करें और केवल आरोपों की गंभीरता (Seriousness of Allegation) के आधार पर ज़मानत से इनकार न करें।

    यह फैसला यह याद दिलाता है कि भारत का संविधान व्यक्ति की स्वतंत्रता का रक्षक है और विशेष कानूनों के अंदर भी न्याय की आत्मा जीवित रहनी चाहिए। UAPA के तहत भी ज़मानत दी जा सकती है, बशर्ते कि कोई प्रत्यक्ष प्रमाण न हो और मुकदमे में देरी हो रही हो। न्याय और सुरक्षा दोनों के बीच संतुलन ही लोकतांत्रिक व्यवस्था की असली पहचान है।

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