क्या दूसरी शादी के बाद माँ अपने बच्चे का उपनाम बदल सकती है? एक कानूनी विश्लेषण
Himanshu Mishra
14 Feb 2025 1:56 PM

सुप्रीम कोर्ट ने अकेला ललिता बनाम श्री कोंडा हनुमंथा राव (2022) मामले में एक महत्वपूर्ण कानूनी प्रश्न पर फैसला दिया, जिसमें यह तय किया गया कि क्या एक माँ अपने बच्चे का उपनाम (Surname) बदल सकती है जब वह अपने पहले पति की मृत्यु के बाद दोबारा शादी कर लेती है।
इस फैसले में कोर्ट ने स्पष्ट किया कि माँ, जो कि अपने बच्चे की एकमात्र प्राकृतिक संरक्षक (Natural Guardian) होती है, को यह अधिकार है कि वह अपने बच्चे का उपनाम निर्धारित कर सके और यदि आवश्यक हो, तो उसे अपने दूसरे पति को गोद (Adoption) भी दे सके।
सुप्रीम कोर्ट ने आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें बच्चे का उपनाम उसके जैविक पिता (Biological Father) के नाम पर रखने और उसके दस्तावेज़ों (Documents) में सौतेले पिता (Stepfather) का नाम अनिवार्य रूप से जोड़ने का निर्देश दिया गया था।
अभिभावकता और गोद लेने से जुड़े कानूनी प्रावधान (Legal Provisions on Guardianship and Adoption)
इस मामले में प्रमुख रूप से हिंदू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 (Hindu Adoption and Maintenance Act, 1956) की धारा 6, 9(3) और 12 पर विचार किया गया।
धारा 6 यह स्पष्ट करती है कि माता-पिता दोनों ही बच्चे के प्राकृतिक संरक्षक होते हैं, लेकिन पिता की मृत्यु के बाद माँ स्वाभाविक रूप से इस भूमिका में आ जाती है। यह सिद्धांत गीता हरिहरन बनाम रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (1999) (Githa Hariharan v. Reserve Bank of India, 1999) के फैसले में भी स्थापित किया गया था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि माता को अभिभावक के रूप में बराबरी का अधिकार प्राप्त है।
धारा 9(3) यह अधिकार देती है कि यदि पिता की मृत्यु हो गई हो, तो माँ अपने बच्चे को गोद दे सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रावधान का हवाला देते हुए कहा कि जब एक माँ को यह कानूनी अधिकार प्राप्त है कि वह अपने बच्चे को गोद दे सके, तो वह बच्चे का उपनाम तय करने के लिए भी स्वतंत्र होनी चाहिए।
इसके अलावा, धारा 12 यह स्पष्ट करती है कि एक बार गोद लेने की प्रक्रिया पूरी हो जाने के बाद, बच्चे के जैविक परिवार (Biological Family) से सभी संबंध समाप्त हो जाते हैं और वह अपने नए परिवार (Adoptive Family) का पूर्ण सदस्य बन जाता है।
उपनाम और सामाजिक पहचान की भूमिका (The Role of Surname in Identity and Social Integration)
सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि उपनाम (Surname) केवल पारिवारिक नाम नहीं होता, बल्कि यह किसी व्यक्ति की पहचान (Identity) का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। एक बच्चा अपने उपनाम से अपने परिवार से जुड़ा महसूस करता है, और यह उसकी सामाजिक स्थिति को भी प्रभावित करता है।
कोर्ट ने इस बात को अस्वीकार कर दिया कि सौतेले पिता (Stepfather) का नाम दस्तावेज़ों में अनिवार्य रूप से जोड़ा जाना चाहिए। अदालत ने कहा कि ऐसा करना बच्चे के सामाजिक जीवन में अनावश्यक जटिलताएँ पैदा कर सकता है और उसे मानसिक रूप से प्रभावित कर सकता है।
कोर्ट का मानना था कि कानूनी आदेश (Judicial Orders) व्यक्तिगत जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं कर सकते, विशेष रूप से तब जब वे किसी नाबालिग (Minor) के कल्याण को प्रभावित करते हों।
न्यायिक सीमाएँ और न्यायालय की शक्ति (Judicial Overreach and Limits of Court Authority)
सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने अपने अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction) से बाहर जाकर बच्चे का उपनाम बदलने का निर्देश दिया, जबकि याचिकाकर्ताओं (Petitioners) ने इस संबंध में कोई विशेष राहत (Relief) नहीं मांगी थी। कोर्ट ने ट्रोजन एंड कंपनी लिमिटेड बनाम नागप्पा चेट्टियार (1953) (Messrs. Trojan & Co. Ltd. v. Rm.N.N. Nagappa Chettiar, 1953) और भरत अमरलाल कोठारी बनाम दोसुखान समदखान सिंधी (2010) (Bharat Amratlal Kothari v. Dosukhan Samadkhan Sindhi, 2010) मामलों का उल्लेख करते हुए कहा कि न्यायालय उन राहतों को स्वीकृत नहीं कर सकता जो याचिका (Pleading) में मांगी ही नहीं गई हों।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह केवल उन्हीं मुद्दों पर निर्णय दे जो याचिका में उठाए गए हों। यदि न्यायालय अपनी सीमा से बाहर जाकर ऐसे आदेश देता है जो किसी पक्ष को बिना किसी पूर्व सूचना के प्रभावित करते हैं, तो यह न्यायिक प्रक्रिया के मूल सिद्धांतों (Principles of Justice) के विरुद्ध होगा।
अदालत ने यह भी दोहराया कि बच्चों से संबंधित मामलों में प्राथमिकता हमेशा उनके सर्वोत्तम हितों (Best Interests of the Child) को दी जानी चाहिए, न कि पारिवारिक परंपराओं को।
गोद लेने की प्रक्रिया और उपनाम परिवर्तन के कानूनी प्रभाव (Adoption and the Legal Implications of Surname Change)
कोर्ट ने गोद लेने (Adoption) की कानूनी प्रक्रिया पर भी विस्तार से चर्चा की। पारंपरिक हिंदू कानूनों में गोद लेने का मुख्य उद्देश्य परिवार की वंश परंपरा (Lineage) को बनाए रखना और धार्मिक अनुष्ठानों (Religious Rites) को सुनिश्चित करना था।
लेकिन आधुनिक कानूनी दृष्टिकोण (Modern Legal Perspective) के अनुसार, गोद लेने का प्राथमिक उद्देश्य एक बच्चे को स्थायी पारिवारिक वातावरण (Stable Family Environment) प्रदान करना होता है।
सुप्रीम कोर्ट ने धर्म और नैतिकता के विश्वकोश (Encyclopedia of Religion and Ethics) का हवाला देते हुए कहा कि गोद लेने की प्रक्रिया बच्चे की कानूनी पहचान (Legal Identity) को बदल देती है।
एक बार जब बच्चा गोद ले लिया जाता है, तो वह अपने जैविक परिवार से पूरी तरह अलग माना जाता है और उसे गोद लेने वाले परिवार का पूर्ण सदस्य माना जाता है। अदालत ने यह भी कहा कि एक गोद लिए गए बच्चे को उसके जैविक उपनाम से जोड़ना तर्कहीन (Illogical) होगा, जब कानून पहले ही यह तय कर चुका है कि वह नया परिवार ही उसका वास्तविक कानूनी परिवार होगा।
भारतीय कानून में परिवार की बदलती अवधारणा (The Evolving Concept of Family in Indian Law)
इस फैसले से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय न्यायपालिका (Indian Judiciary) अब परिवार की आधुनिक अवधारणा (Modern Concept of Family) को अपनाने की दिशा में बढ़ रही है। पहले के कानूनी ढांचे (Legal Framework) में पारिवारिक परंपराओं, वंश परंपरा और उत्तराधिकार (Inheritance) को अधिक महत्व दिया जाता था, लेकिन अब बदलते सामाजिक परिवेश (Changing Social Environment) को ध्यान में रखते हुए न्यायिक दृष्टिकोण भी बदल रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि बच्चे के मानसिक और भावनात्मक कल्याण (Emotional Well-being) को परिवार के पारंपरिक नियमों से अधिक प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
एक माँ की दोबारा शादी और उसके बच्चे की नए परिवार में स्वीकार्यता को बाधा के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि इसे एक कानूनी और सामाजिक वास्तविकता (Legal and Social Reality) के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला अकेला ललिता बनाम श्री कोंडा हनुमंथा राव भारतीय परिवार कानून (Indian Family Law) के विकास में एक महत्वपूर्ण कदम है। इस फैसले ने स्पष्ट किया कि एक माँ, जो कि अपने बच्चे की एकमात्र प्राकृतिक संरक्षक (Natural Guardian) है, को अपने बच्चे के भविष्य से जुड़े महत्वपूर्ण निर्णय लेने का पूरा अधिकार है।
इस फैसले से यह भी स्पष्ट होता है कि न्यायालय उन मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता जहां किसी पक्ष द्वारा कोई विशेष राहत नहीं मांगी गई हो। यह निर्णय आने वाले वर्षों में परिवार, अभिभावकता और गोद लेने से संबंधित मामलों में एक महत्वपूर्ण मिसाल (Precedent) के रूप में काम करेगा और यह सुनिश्चित करेगा कि बच्चों के कानूनी अधिकार और उनकी पहचान का संरक्षण (Protection of Legal Rights and Identity) बना रहे।