क्या केवल टेस्ट आईडेंटिफिकेशन परेड के आधार पर दोष सिद्ध हो सकता है : न्यायिक अवलोकन और निर्णय

Himanshu Mishra

9 Dec 2024 8:29 PM IST

  • क्या केवल टेस्ट आईडेंटिफिकेशन परेड के आधार पर दोष सिद्ध हो सकता है : न्यायिक अवलोकन और निर्णय

    उमेश चंद्र और अन्य बनाम उत्तराखंड राज्य के महत्वपूर्ण निर्णय में, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने अपराध मामलों में पहचान साक्ष्य (Identification Evidence) की विश्वसनीयता को लेकर गहराई से विचार किया।

    इस मामले ने यह स्पष्ट किया कि परीक्षण पहचान परेड (Test Identification Parade - TIP) को कब और कैसे स्वीकार्य माना जा सकता है, और क्या यह दोष सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हो सकता है।

    टेस्ट पहचान परेड (Test Identification Parade - TIP) की भूमिका

    भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Indian Evidence Act), 1872 की धारा 9 (Section 9) के तहत, परीक्षण पहचान परेड (TIP) का उपयोग उन मामलों में किया जाता है, जहां अपराधी की पहचान संदिग्ध हो।

    हालांकि, कोर्ट ने यह दोहराया कि TIP स्वयं में ठोस (Substantive) साक्ष्य नहीं है, बल्कि यह सहायक (Corroborative) साक्ष्य है। किसी भी व्यक्ति को दोषी ठहराने के लिए, TIP के परिणामों को अन्य ठोस साक्ष्यों, जैसे बरामदगी (Recovery), स्वतंत्र गवाह (Independent Witnesses) या अन्य पुख्ता तथ्यों के साथ जोड़ा जाना आवश्यक है।

    इस निर्णय में यह स्पष्ट किया गया कि जांच के दौरान TIP केवल एक दिशा देने का कार्य करती है, लेकिन यदि इसे त्रुटिरहित (Flawless) तरीके से नहीं किया गया हो या अन्य साक्ष्य इसके समर्थन में न हो, तो यह दोष सिद्ध करने का आधार नहीं बन सकती।

    कोर्ट द्वारा संबोधित मुख्य मुद्दे (Key Issues Addressed by the Court)

    1. TIP की वैधता (Validity of TIP)

    सुप्रीम कोर्ट ने जांच की कि क्या मामले में TIP कानूनी मानकों (Legal Standards) के अनुसार की गई थी। कोर्ट ने पाया कि अभियोजन पक्ष (Prosecution) इसे साबित करने में विफल रहा, क्योंकि TIP कराने वाले मजिस्ट्रेट (Magistrate) को गवाह के रूप में पेश नहीं किया गया। इसके अलावा, बार-बार TIP आयोजित करने से इसकी विश्वसनीयता (Credibility) और कम हो गई।

    2. सहायक साक्ष्य (Corroborative Evidence)

    TIP के साथ सहायक साक्ष्य (Supporting Evidence) की अनुपस्थिति इस मामले की सबसे बड़ी कमजोरी थी। अभियोजन पक्ष न तो मूल बरामदगी ज्ञापन (Original Seizure Memo) पेश कर सका, और न ही अपराधियों और अपराध को जोड़ने वाले ठोस सबूत। यह कमी पहचान साक्ष्य को दोष सिद्ध करने के लिए अपर्याप्त बनाती है।

    3. किशोर गवाह और बार-बार पहचान (Juvenile Witness and Repeated Identification)

    कोर्ट ने इस बात पर भी सवाल उठाया कि एक किशोर गवाह (Juvenile Witness) ने अपराधियों को TIP के तीसरे या चौथे दौर में पहचाना। साथ ही, अन्य प्रमुख गवाहों द्वारा अपराधियों की पहचान न करना भी मामले को कमजोर करता है।

    4. पिछले फैसलों के साथ संगति (Consistency with Precedents)

    कोर्ट ने इक़बाल और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (Iqbal and Another v. State of Uttar Pradesh, 2015) का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि TIP के सहायक साक्ष्य के बिना दोष सिद्धि टिकाऊ नहीं हो सकती।

    न्यायिक अवलोकन और निर्णय के प्रभाव (Judicial Observations and Implications)

    सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में जांच में की गई चूक और प्रक्रिया में हुई खामियों को गंभीरता से लिया। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया:

    • TIP की वैधता को साबित करना अभियोजन पक्ष की जिम्मेदारी है।

    • मजिस्ट्रेट जैसे संबंधित गवाहों को पेश करने में विफलता या महत्वपूर्ण दस्तावेज़ न पेश करना, अभियोजन के पक्ष को कमजोर करता है।

    • केवल अनुमानित (Speculative) या अविश्वसनीय (Unreliable) साक्ष्यों पर आधारित न्याय प्रक्रिया अस्वीकार्य है।

    विधि प्रवर्तकों और अभियोजन पक्ष के लिए सबक (Lessons for Law Enforcement and Prosecution)

    इस निर्णय ने जांचकर्ताओं और अभियोजन पक्ष को यह चेतावनी दी कि:

    • TIP को सख्ती से कानूनी प्रक्रिया के अनुसार और सावधानीपूर्वक संचालित किया जाना चाहिए।

    • जांच एजेंसी को TIP के साथ अन्य ठोस साक्ष्य प्रस्तुत करना आवश्यक है।

    • प्रक्रिया में चूक या निराधार दावों पर निर्भरता से दोषी व्यक्ति भी छूट सकता है।

    उमेश चंद्र और अन्य बनाम उत्तराखंड राज्य में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आपराधिक न्यायशास्त्र (Criminal Jurisprudence) के मूल सिद्धांतों, जैसे निर्दोषता की धारणा (Presumption of Innocence) और उचित संदेह से परे सबूत (Proof Beyond Reasonable Doubt) की आवश्यकता, को दोहराता है।

    इस मामले में जांच में हुई प्रक्रियागत गलतियों और ठोस साक्ष्य की कमी के आधार पर दोष सिद्धि को खारिज कर दिया गया। यह निर्णय न केवल व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि न्यायिक प्रणाली की विश्वसनीयता (Credibility) को भी सुदृढ़ करता है।

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