जब न्यायालय मामले को धारा 384 के तहत निपटाने योग्य नहीं समझता – धारा 385, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023
Himanshu Mishra
12 March 2025 1:32 PM

न्यायालय की अवमानना (Contempt of Court) एक गंभीर अपराध (Serious Offence) है जो न्याय प्रक्रिया (Judicial Process) को बाधित करता है और न्यायपालिका (Judiciary) के अधिकार को चुनौती देता है।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023) की धारा 384 एक त्वरित प्रक्रिया (Summary Procedure) प्रदान करती है जिसके तहत यदि न्यायालय की उपस्थिति में कोई अवमानना होती है, तो न्यायालय तुरंत कार्रवाई कर सकता है।
लेकिन कुछ ऐसे मामले होते हैं जहाँ न्यायालय यह महसूस करता है कि केवल जुर्माना (Fine) लगाकर या साधारण सजा देकर मामले का निपटारा (Disposal) नहीं किया जा सकता। ऐसे मामलों के लिए धारा 385 लागू होती है।
धारा 385 का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि यदि न्यायालय को लगता है कि अपराध (Offence) गंभीर है और इसके लिए कठोर दंड (Stricter Punishment) की आवश्यकता है, तो मामला एक मजिस्ट्रेट (Magistrate) के पास भेजा जाए ताकि उचित सुनवाई (Proper Trial) के बाद दंड दिया जाए।
धारा 385 (Section 385) का उद्देश्य और इसकी आवश्यकता (Necessity)
धारा 385 तब लागू होती है जब न्यायालय यह मानता है कि आरोपी (Accused) को केवल जुर्माने से दंडित (Punish) करना पर्याप्त नहीं है या जुर्माना 200 रुपये से अधिक होना चाहिए। इसके अलावा, यदि न्यायालय को किसी अन्य कारण से यह लगता है कि मामला धारा 384 के तहत नहीं सुलझाया जाना चाहिए, तो वह इसे मजिस्ट्रेट को सौंप सकता है।
इस प्रक्रिया में न्यायालय को निम्नलिखित कदम उठाने होते हैं –
1. अपराध के तथ्य (Facts of the Offence) को दर्ज करना।
2. आरोपी का बयान (Statement of the Accused) लेना।
3. मामला उस क्षेत्राधिकार (Jurisdiction) वाले मजिस्ट्रेट के पास भेजना, जो इस अपराध की सुनवाई कर सकता है।
4. यह सुनिश्चित करना कि आरोपी मजिस्ट्रेट के सामने पेश हो, जिसके लिए न्यायालय जमानत (Security) की मांग कर सकता है। यदि आरोपी जमानत नहीं दे पाता, तो उसे हिरासत (Custody) में लेकर मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा।
धारा 384 (Section 384) और धारा 385 (Section 385) में अंतर (Difference)
धारा 384 न्यायालय को यह अधिकार (Authority) देती है कि यदि कोई व्यक्ति न्यायालय की अवमानना करता है, तो उसे तत्काल दंडित किया जा सकता है। इसमें अधिकतम ₹1000 का जुर्माना और जुर्माना न चुकाने की स्थिति में अधिकतम एक माह की साधारण कैद (Simple Imprisonment) का प्रावधान है।
धारा 385 तब लागू होती है जब न्यायालय को लगता है कि अपराध ज्यादा गंभीर है और इसे संक्षिप्त प्रक्रिया (Summary Procedure) के तहत नहीं निपटाया जाना चाहिए।
यदि न्यायालय यह मानता है कि आरोपी को बिना किसी जुर्माने के सीधे जेल भेजा जाना चाहिए या ₹200 से अधिक का जुर्माना आवश्यक है, तो वह इसे मजिस्ट्रेट को सौंप देता है ताकि उचित कानूनी प्रक्रिया (Proper Legal Process) का पालन किया जा सके।
इस अंतर का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि छोटे अपराधों (Minor Offences) का निपटारा त्वरित रूप से किया जाए और गंभीर अपराधों (Serious Offences) की पूरी सुनवाई (Full Trial) हो।
न्यायालय द्वारा मामले को मजिस्ट्रेट को भेजने की प्रक्रिया (Procedure to Refer the Case to Magistrate)
जब न्यायालय यह तय करता है कि मामला धारा 385 के तहत मजिस्ट्रेट के पास भेजा जाना चाहिए, तो इसे कुछ महत्वपूर्ण चरणों में पूरा किया जाता है।
सबसे पहले, न्यायालय अपराध की परिस्थितियों (Circumstances of the Offence) को लिखित रूप में दर्ज करता है। इसमें बताया जाता है कि अपराध कब और कैसे हुआ, न्यायालय में कौन-कौन उपस्थित था, और किस प्रकार की अवमानना की गई।
इसके बाद, न्यायालय आरोपी का बयान लेता है ताकि उसे अपने बचाव (Defense) का अवसर मिले। यदि आरोपी के पास कोई ठोस स्पष्टीकरण (Explanation) हो, तो उसे न्यायालय के रिकॉर्ड (Court Record) में दर्ज किया जाता है।
इसके बाद, न्यायालय मामले को उस मजिस्ट्रेट को भेजता है जिसके पास इस अपराध पर निर्णय लेने का अधिकार (Jurisdiction) होता है।
अंत में, यह सुनिश्चित करने के लिए कि आरोपी मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश हो, न्यायालय जमानत की शर्तें (Bail Conditions) निर्धारित कर सकता है। यदि आरोपी जमानत नहीं देता, तो उसे हिरासत में लेकर मजिस्ट्रेट के पास भेजा जाता है।
मजिस्ट्रेट की भूमिका (Role of Magistrate) धारा 385 के अंतर्गत
जब कोई मामला धारा 385 के तहत मजिस्ट्रेट के पास भेजा जाता है, तो मजिस्ट्रेट इसे उसी तरह से सुनवाई के लिए आगे बढ़ाता है जैसे किसी पुलिस रिपोर्ट (Police Report) पर आधारित मामला होता है।
इस प्रक्रिया में –
1. मजिस्ट्रेट अपराध की गंभीरता (Severity of the Offence) की जांच करता है।
2. आरोपी को सुनवाई (Hearing) के दौरान अपना बचाव करने का पूरा अवसर मिलता है।
3. यदि आवश्यक हो, तो गवाहों (Witnesses) को बुलाया जाता है और सबूत (Evidence) प्रस्तुत किए जाते हैं।
4. उचित प्रक्रिया पूरी करने के बाद, मजिस्ट्रेट अपराध की गंभीरता के अनुसार दंड (Punishment) निर्धारित करता है।
अगर अपराध बहुत गंभीर है, तो मजिस्ट्रेट आरोपी को अधिक कठोर सजा (Stricter Punishment) दे सकता है, जो कि धारा 384 के तहत संभव नहीं होता।
उदाहरण (Illustrations) धारा 385 के अंतर्गत
उदाहरण 1
एक व्यक्ति न्यायालय में सुनवाई के दौरान जज पर हमला (Attack) कर देता है। यह एक गंभीर अपराध है, और न्यायालय इसे धारा 384 के तहत निपटाने योग्य नहीं मानता। इसलिए, न्यायालय आरोपी को हिरासत में लेकर मजिस्ट्रेट के पास भेजता है, जहाँ उसके खिलाफ पूरी सुनवाई होती है और उसे सख्त सजा दी जाती है।
उदाहरण 2
एक गवाह (Witness) न्यायालय में जानबूझकर झूठी गवाही (False Testimony) देता है ताकि आरोपी को बचाया जा सके। जज को यह एहसास होता है कि यह अपराध बहुत गंभीर है और केवल ₹1000 का जुर्माना लगाकर इसे नहीं सुलझाया जा सकता। इसलिए, मामला मजिस्ट्रेट को भेजा जाता है, जो उचित सुनवाई के बाद सजा सुनाता है।
उदाहरण 3
एक वकील (Lawyer) बार-बार न्यायालय की अवमानना करता है और जज को अनुचित शब्दों से अपमानित करता है। न्यायालय महसूस करता है कि साधारण दंड पर्याप्त नहीं होगा, इसलिए मामला मजिस्ट्रेट को भेजा जाता है ताकि उचित कार्यवाही की जा सके।
धारा 385 भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 का एक महत्वपूर्ण प्रावधान (Provision) है, जो यह सुनिश्चित करता है कि न्यायालय की अवमानना से संबंधित गंभीर मामलों की पूरी कानूनी प्रक्रिया (Legal Process) के तहत सुनवाई हो। यह न्यायालय को इस बात का अधिकार देता है कि वह ऐसे मामलों को मजिस्ट्रेट को भेजे, जिनमें संक्षिप्त प्रक्रिया (Summary Procedure) के तहत उचित न्याय नहीं मिल सकता।
यह धारा न्यायपालिका की गरिमा (Dignity of Judiciary) बनाए रखने में सहायक है और यह सुनिश्चित करती है कि गंभीर अवमानना के मामलों में उचित दंड (Appropriate Punishment) दिया जाए। इस प्रकार, धारा 384 और 385 मिलकर न्यायालय को यह सुविधा देते हैं कि वह त्वरित कार्रवाई (Immediate Action) और उचित सुनवाई (Fair Trial) के बीच संतुलन (Balance) बना सके।