Hindu Marriage Act में Judicial Separation के आधार
Shadab Salim
18 July 2025 2:29 PM

जब भी किसी पक्षकार द्वारा न्यायिक पृथक्करण के लिए डिक्री पारित करने हेतु कोर्ट के समक्ष आवेदन किया जाता है तो ऐसा आवेदन कुछ आधारों पर किया जाता है। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 10 के अधीन न्यायिक पृथक्करण के आधार भी उल्लेखित किए गए हैं। 1976 के संशोधनों के बाद न्यायिक पृथक्करण के लिए वही आधार होते हैं जो विवाह विच्छेद के लिए होते हैं।
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13 की उपधारा 1 उल्लेखित आधारों में से किसी आधार पर विवाह का कोई भी पक्षकार न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के लिए जिला कोर्ट के समक्ष याचिका प्रस्तुत करके आवेदन करने का अधिकारी है और पत्नी के मामले में धारा 13 की उपधारा 2 में उल्लेखित आधारों में से किसी आधार पर अथवा उन ही आधारों पर जिस पर विवाह विच्छेद याचिका प्रस्तुत की गई है न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के लिए आवेदन प्रस्तुत किया जा सकता है।
एडल्टरी
प्रत्यर्थी के द्वारा विवाह के बाद जारता अर्थात एडल्ट्री जिसे सामान्य शब्दों में व्यभिचार कहा जाता है। जब विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार विवाह होने के बाद भी कहीं अन्य जगह अवैध शारीरिक संबंध रखता है तो यह जारता कहलाता है। इस आधार पर विवाह का व्यथित पक्षकार याचिका लाकर प्रत्यर्थी के विरुद्ध न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित करवा सकता है।
क्रूरता न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित करने हेतु एक मजबूत कारण होता है। क्रूरता को अधिनियम में कहीं परिभाषित नहीं किया गया है क्योंकि समय परिस्थितियों के अनुसार क्रूरता के अर्थ बदलते रहते हैं।
क्रूरता
कोर्ट में आए समय-समय पर प्रकरणों में भिन्न भिन्न क्रूरता देखी गई है। जियालाल बनाम सरला देवी एआईआर 1978 जम्मू कश्मीर 67 में पति ने पत्नी पर आरोप लगाया कि पत्नी की नाक से ऐसी खराब दुर्गंध निकलती है कि वह उसके साथ बैठ नहीं सकता और सहवास नहीं कर सकता और इस कारण विवाह का प्रयोजन ही समाप्त हो गया है तथा पागलपन का आरोप लगाते हुए भी न्यायिक पृथक्करण की याचिका प्रस्तुत की और उसे क्रूरता के आधार पर न्यायिक पृथक्करण की याचना की गई।
पत्नी ने आरोपों को अस्वीकार किया। अपील में हाईकोर्ट ने माना कि क्रूरता के लिए मंतव्य और आशय जो क्रूरता के लिए आवश्यक तत्व है सिद्ध नहीं हुआ। क्रूरता एक ऐसी प्रकृति का स्वेच्छा पूर्ण आचरण होता है जिससे एक दूसरे के जीवन शरीर अंग के लिए खतरा उत्पन्न हो जाता है। इसमें मानसिक वेदना भी सम्मिलित है। इस प्रकृति का अकेला एक कार्य भी गंभीर प्रकृति का है तो न्यायिक पृथक्करण के लिए एक पर्याप्त आधार हो सकता है।
सामाजिक दशाएं पक्षकारों का स्तर उनके सांस्कृतिक विकास शिक्षा से भिन्नता पैदा होती है क्योंकि कहीं एक कार्य के मामले में क्रूरता माना जाता है वहीं दूसरे मामले में उसी कार्य हेतु वैसा कुछ नहीं माना जाता। कभी-कभी बच्चों या परिवार के रिश्तेदारों के कार्य भी क्रूरता का गठन करते हैं और इससे व्यथित पक्षकार न्यायिक पृथक्करण की डिक्री को प्राप्त करने का अधिकारी बन जाता है। जहां पत्नी अपने पति के विरुद्ध अपमानजनक भाषा गाली देने वाले शब्दों का प्रयोग कर रही हो और ऐसा ही आचरण पति के माता-पिता के साथ करके परिवार की शांति भंग कर रही हो वहां उसका आचरण क्रूरता कहलाएगा।
जहां सास प्रत्येक दिन पुत्रवधू के साथ दुर्व्यवहार करती है उसका पति इसमें कोई आपत्ति नहीं करता है वहां पत्नी इस अधिनियम के अधीन इस संदर्भ में निवेदित डिक्री प्राप्त करने की अधिकारी बन जाती है। पत्नी के मानसिक परपीड़न को अनदेखा इस आधार पर नहीं किया जा सकता कि शारीरिक चोट नहीं पहुंचाई थी। सुलेखा बैरागी बनाम कमलाकांत बैरागी एआईआर 1980 कोलकाता 370 के मामले में यह कहा गया है कि शारीरिक चोट ही क्रूरता नहीं दर्शाती है अपितु मानसिक चोट भी क्रूरता हो सकती है। अतः न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त करने हेतु क्रूरता का आधार एक महत्वपूर्ण आधार है।
प्रत्यर्थी द्वारा धर्म परिवर्तन कर लेना-
यदि विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार हिंदू धर्म को छोड़कर अन्य धर्म में संपरिवर्तित हो जाता है तो ऐसी परिस्थिति में व्यथित पक्षकार न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त करने हेतु कोर्ट के समक्ष आवेदन कर सकता है।
पागलपन-
यदि विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार पागल हो जाता है या असाध्य मानसिक विकृतचित्तता निरंतरता के मनोविकार से पीड़ित हो जाता है ऐसी परिस्थिति में विवाह का व्यथित पक्षकार न्यायिक पृथक्करण के लिए आवेदन कोर्ट के समक्ष कर सकता है।
कुष्ठ रोग से पीड़ित होना-
यदि विवाह का कोई पक्षकार कोई असाध्य कुष्ठ रोग से पीड़ित हो जाता है इस आधार पर विवाह का दूसरा पक्षकार न्यायिक पृथक्करण की डिग्री के लिए कोर्ट के समक्ष आवेदन कर सकता है।
संचारी रोग से पीड़ित होना-
यदि विवाह का पक्षकार किसी संक्रमित बीमारी से पीड़ित है तथा बीमारी ऐसी है जो संभोग के कारण विवाह के दूसरे पक्षकार को भी हो सकती है तो ऐसी परिस्थिति में विधि किसी व्यक्ति के प्राणों के लिए खतरा नहीं हो सकती तथा हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 10 के अधीन न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त की जा सकती है तथा विवाह को बचाए रखते हुए विवाह का दूसरा पक्षकार न्यायिक पृथक्करण प्राप्त कर सकता है।
सन्यासी हो जाना-
यदि विवाह का कोई पक्ष कार सन्यासी हो जाता है तथा संसार को त्याग देता है व धार्मिक प्रबज्या धारण कर लेता है तो ऐसी परिस्थिति में विवाह का व्यथित पक्षकार कोर्ट के समक्ष आवेदन करके न्यायिक पृथक्करण हेतु डिक्री पारित करवा सकता है।
7 वर्ष तक लापता रहना-
यदि विवाह का कोई पक्षकार 7 वर्ष तक लापता रहता है तथा पति या पत्नी का परित्याग करके भाग जाता है या किसी कारण से उसका कोई ठिकाना या पता मालूम नहीं होता है ऐसी परिस्थिति में विवाह का व्यथित पक्ष कोर्ट के समक्ष न्यायिक पृथक्करण हेतु डिक्री की मांग कर सकता है।
पत्नी को प्राप्त विशेष अधिकार-
न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त करने के लिए पत्नी को कुछ विशेष अधिकार प्राप्त हैं। यह विशेष अधिकारों की संख्या 4 है। ऊपर वर्णित अधिकार पति और पत्नी दोनों को प्राप्त है। जिन आधारों को उल्लेख ऊपर किया गया है वह समान रूप से प्राप्त होते हैं परंतु यह चार अधिकार हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 की उपधारा 2 के अधीन पत्नी को विशेष रूप से प्राप्त है जो निम्न है-
विवाह से पूर्व पति की कोई पत्नी जीवित होना-
पति द्वारा बलात्संग, गुदामैथुन और पशुगमन का अपराध कारित करना-
हिंदू दत्तक ग्रहण भरण पोषण अधिनियम की धारा 18 में पत्नी ने भरण पोषण की डिक्री या दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 125 के अंतर्गत पत्नी के पक्ष में भरण पोषण का आदेश पारित होने के बाद दोनों में 1 वर्ष तक सहवास न होना।
यदि पत्नी का विवाह 15 वर्ष की आयु से पूर्व हुआ है तो उसके द्वारा अट्ठारह वर्ष की आयु पूरी करने से पूर्व विवाह का निराकरण कर दिया जाना।