संविधान के अनुच्छेद 18 के तहत Abolition of Titles

Himanshu Mishra

18 Feb 2024 8:30 AM GMT

  • संविधान के अनुच्छेद 18 के तहत Abolition of Titles

    “उपाधि” शब्द का क्या अर्थ है अनुच्छेद 18 के अनुसार, “उपाधि” का अर्थ है कोई ऐसा शब्द या वाक्यांश, जो किसी व्यक्ति के नाम के पहले या बाद में जोड़ा जाता है, और जो उसकी विशेषता, योग्यता, पद, विशिष्टता या सम्मान को दर्शाता है। उदाहरण के लिए, राजा, महाराजा,

    भारतीय संविधान के अनुच्छेद 18 का उद्देश्य है कि राज्य और नागरिकों के बीच समानता को बढ़ावा देना और उपाधियों के द्वारा जातिगत, धार्मिक या सामाजिक भेदभाव को रोकना।

    इस अनुच्छेद में चार खंड हैं, जो निम्नलिखित हैं:

    अनुच्छेद 18 (1): इस अनुच्छेद के अनुसार राज्य को किसी को भी सैन्य और शैक्षणिक विशिष्टता के अलावा कोई उपाधि प्रदान नहीं करनी चाहिए। उदाहरण के लिए, राज्य को किसी को भी परमवीर, डॉक्टर, आदि जैसी उपाधि देने से वर्जित है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि राज्य किसी भी व्यक्ति को उसके जन्म, वंश, वर्ग या धर्म के आधार पर विशेष दर्जा नहीं देता है।

    अनुच्छेद 18 (2): इस अनुच्छेद के अनुसार भारत का कोई भी नागरिक किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि भारत के नागरिकों का राष्ट्रीय गौरव और निष्ठा बनी रहती है और वे किसी भी विदेशी राज्य के प्रति अपनी निष्पक्षता बरकरार रखते हैं।

    अनुच्छेद 18 (3): इस अनुच्छेद के अनुसार कोई भी व्यक्ति, जो भारत का नागरिक नहीं है, लेकिन भारत सरकार के अधीन लाभ या विश्वास का कोई पद धारण करता है, राष्ट्रपति की सहमति के बिना किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि ऐसे व्यक्ति का भारत सरकार के प्रति वफादारी और ईमानदारी रहती है और वह किसी भी विदेशी राज्य के प्रति अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्य को अनदेखा नहीं करता है।

    अनुच्छेद 18 (4): इस अनुच्छेद के अनुसार कोई भी व्यक्ति, जो राज्य के अधीन लाभ या विश्वास का पद धारण करता है, चाहे वह नागरिक हो या गैर-नागरिक, किसी भी विदेशी राज्य से राष्ट्रपति की सहमति के बिना कोई भी उपहार, परिलब्धियां या कार्यालय स्वीकार नहीं कर सकता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि ऐसे व्यक्ति का भारत सरकार के प्रति वफादारी और ईमानदारी रहती है और वह किसी भी विदेशी राज्य के प्रति अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्य को अनदेखा नहीं करता है।

    इस प्रकार, अनुच्छेद 18 भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण अनुच्छेद है, जो समानता का अधिकार को प्रभावी ढंग से लागू करने में मदद करता है। इस अनुच्छेद ने भारत में उपाधियों के द्वारा जातिगत, धार्मिक या सामाजिक भेदभाव को खत्म करने का प्रयास किया है और राज्य और नागरिकों के बीच समानता को बढ़ावा देने का प्रयास किया है।

    भारतीय संविधान के अनुच्छेद 18 पर संवैधानिक बहस भारतीय संविधान के अनुच्छेद 18 को लागू करने का प्रस्ताव संविधान सभा में काफी विवादों का कारण बना। कुछ सदस्यों ने इस अनुच्छेद का समर्थन किया, जबकि कुछ ने इसका विरोध किया। उनके मुताबिक, उपाधियों का उन्मूलन एक अनुचित और अनावश्यक कदम था, जो लोगों की उत्कृष्टता और योग्यता को अनदेखा करता था। वे यह भी मानते थे कि उपाधियों का उन्मूलन भारत के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत को नष्ट कर देगा।

    इसके अलावा, कुछ सदस्यों ने यह भी आपत्ति जताई कि अनुच्छेद 18 के तहत राष्ट्रपति की सहमति के बिना किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि या उपहार स्वीकार करना अपराध है। उनका कहना था कि यह एक अनुचित और अनुपयोगी शर्त है, जो लोगों की स्वतंत्रता और विश्वसनीयता को प्रभावित करती है। वे यह भी दावा करते थे कि यह अनुच्छेद भारत के विदेश नीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों को बिगाड़ सकता है।

    इसके विपरीत, अनुच्छेद 18 के पक्षधारों ने इसका बचाव किया और उन्होंने कहा कि उपाधियों का उन्मूलन एक आवश्यक और उचित कदम है, जो समाज में समानता और न्याय को बढ़ावा देगा। उनके मुताबिक, उपाधियों का अस्तित्व एक जातिवादी, वर्गवादी और विभेदकारी समाज को दर्शाता है, जो लोगों को उनके जन्म, वंश, वर्ग या धर्म के आधार पर अलग-अलग श्रेणियों में बांटता है। वे यह भी मानते थे कि उपाधियों का उन्मूलन भारत के राष्ट्रीय गौरव और एकता को मजबूत करेगा।

    इस प्रकार, अनुच्छेद 18 को लागू करने का प्रस्ताव संविधान सभा में काफी विवादों और बहसों का केंद्र बना। अंततः, इस अनुच्छेद को अधिकांश सदस्यों के समर्थन से पारित किया गया और यह भारतीय संविधान का एक अभिन्न अंग बन गया।

    संविधान सभा में अनुच्छेद 18 पर बहस

    भारतीय संविधान के अनुच्छेद 18 पर संवैधानिक बहस भारतीय संविधान के अनुच्छेद 18 को लागू करने का प्रस्ताव संविधान सभा में काफी विवादों का कारण बना। कुछ सदस्यों ने इस अनुच्छेद का समर्थन किया, जबकि कुछ ने इसका विरोध किया। उनके मुताबिक, उपाधियों का उन्मूलन एक अनुचित और अनावश्यक कदम था, जो लोगों की उत्कृष्टता और योग्यता को अनदेखा करता था। वे यह भी मानते थे कि उपाधियों का उन्मूलन भारत के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत को नष्ट कर देगा।

    इसके अलावा, कुछ सदस्यों ने यह भी आपत्ति जताई कि अनुच्छेद 18 के तहत राष्ट्रपति की सहमति के बिना किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि या उपहार स्वीकार करना अपराध है। उनका कहना था कि यह एक अनुचित और अनुपयोगी शर्त है, जो लोगों की स्वतंत्रता और विश्वसनीयता को प्रभावित करती है। वे यह भी दावा करते थे कि यह अनुच्छेद भारत के विदेश नीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों को बिगाड़ सकता है।

    इसके विपरीत, अनुच्छेद 18 के पक्षधारों ने इसका बचाव किया और उन्होंने कहा कि उपाधियों का उन्मूलन एक आवश्यक और उचित कदम है, जो समाज में समानता और न्याय को बढ़ावा देगा। उनके मुताबिक, उपाधियों का अस्तित्व एक जातिवादी, वर्गवादी और विभेदकारी समाज को दर्शाता है, जो लोगों को उनके जन्म, वंश, वर्ग या धर्म के आधार पर अलग-अलग श्रेणियों में बांटता है। वे यह भी मानते थे कि उपाधियों का उन्मूलन भारत के राष्ट्रीय गौरव और एकता को मजबूत करेगा।

    इस प्रकार, अनुच्छेद 18 को लागू करने का प्रस्ताव संविधान सभा में काफी विवादों और बहसों का केंद्र बना। अंततः, इस अनुच्छेद को अधिकांश सदस्यों के समर्थन से पारित किया गया और यह भारतीय संविधान का एक अभिन्न अंग बन गया।

    बालाजी राघवन बनाम भारत सरकार मामले में, याचिकाकर्ताओं ने भारत सरकार को भारत रत्न, पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्म श्री जैसे राष्ट्रीय सम्मान प्रदान करने से रोकने की याचिका दायर की थी। उनका तर्क था कि इन सम्मानों को उपाधियों के रूप में माना जा सकता है, जो अनुच्छेद 18 के विरुद्ध है। सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को खारिज करते हुए निर्णय दिया कि इन सम्मानों को उपाधियों के रूप में नहीं माना जा सकता है, क्योंकि इनसे कोई विशेष अधिकार या प्रतिष्ठा नहीं मिलती है। ये सम्मान केवल लोगों की उत्कृष्टता और योगदान को प्रशंसा करने का एक तरीका हैं।

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