97वां संविधान संशोधन: सहकारी समितियों की स्वायत्तता पर न्यायिक पुनर्विचार
Himanshu Mishra
2 Dec 2024 6:33 PM IST
भारत में सहकारी समितियां (Cooperative Societies) आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए एक महत्वपूर्ण साधन रही हैं। 2011 में किए गए 97वें संविधान संशोधन (Constitution Amendment) का उद्देश्य इन समितियों को अधिक स्वायत्त, लोकतांत्रिक और पेशेवर बनाना था।
लेकिन यह संशोधन अदालत में चुनौती के दायरे में आ गया, जहां यह सवाल खड़ा हुआ कि क्या यह संविधान के अनुच्छेद 368(2) (Article 368(2)) के तहत राज्यों की मंजूरी के बिना पारित किया जा सकता है।
इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि सहकारी समितियों के मामलों में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का संतुलन बनाए रखना आवश्यक है।
97वें संशोधन का उद्देश्य (Objective of the 97th Amendment)
भारत में सहकारी समितियां लंबे समय से सुचारू रूप से काम नहीं कर रही थीं। कई समितियों में चुनाव में देरी, जवाबदेही (Accountability) की कमी और प्रबंधन में पेशेवर दृष्टिकोण का अभाव देखा गया।
संशोधन के तहत:
1. अनुच्छेद 19(1)(c) में सहकारी समितियां बनाने के अधिकार को मौलिक अधिकार (Fundamental Right) के रूप में शामिल किया गया।
2. अनुच्छेद 43B को राज्य के नीति निदेशक तत्वों (Directive Principles of State Policy) में जोड़ा गया, जिसमें सहकारी समितियों को स्वैच्छिक और स्वायत्त (Autonomous) बनाने की बात कही गई।
3. भाग IXB (Part IXB) जोड़ा गया, जिसमें सहकारी समितियों के गठन और संचालन के लिए नियम शामिल थे।
इस संशोधन का उद्देश्य सहकारी समितियों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया, पारदर्शिता (Transparency), और नियमित ऑडिट के माध्यम से अधिक उत्तरदायी और प्रभावी बनाना था।
संविधानिक चुनौती (Constitutional Challenge)
2013 में गुजरात हाई कोर्ट ने निर्णय दिया कि भाग IXB को लागू करने के लिए राज्यों की मंजूरी (Ratification) आवश्यक थी। चूंकि सहकारी समितियां राज्य सूची (State List) में आती हैं, इसलिए इस संशोधन को संविधान के अनुच्छेद 368(2) के तहत राज्यों की मंजूरी की आवश्यकता थी।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा जांचे गए प्रमुख मुद्दे (Key Issues Examined by Supreme Court)
1. विधायी शक्ति और संघीय ढांचा (Legislative Competence and Federal Structure)
सहकारी समितियां राज्य सूची के अंतर्गत आती हैं, जो राज्यों के विधायी अधिकारों (Legislative Powers) में आती है। संशोधन ने सहकारी समितियों के लिए एक समान (Uniform) कानून बनाने की कोशिश की, जिससे राज्यों की स्वायत्तता प्रभावित हुई। अदालत ने माना कि यह संशोधन राज्यों की शक्तियों पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है, इसलिए इसकी मंजूरी अनिवार्य थी।
2. अनुच्छेद 368 के तहत प्रक्रिया (Procedure Under Article 368)
अनुच्छेद 368 के तहत, यदि किसी संशोधन का प्रभाव राज्यों की विधायी शक्तियों पर पड़ता है, तो इसे आधे राज्यों की मंजूरी आवश्यक है। सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात हाई कोर्ट के इस निष्कर्ष से सहमति जताई कि 97वां संशोधन इस प्रक्रिया का पालन करने में विफल रहा।
3. पृथक्करण का सिद्धांत (Doctrine of Severability)
संशोधन के तहत सहकारी समितियों और बहु-राज्य सहकारी समितियों (Multi-State Cooperative Societies) पर प्रावधान थे। केंद्र ने तर्क दिया कि बहु-राज्य समितियों से जुड़े प्रावधान अलग किए जा सकते हैं। लेकिन अदालत ने यह माना कि दोनों हिस्से आपस में गहराई से जुड़े हुए हैं और संशोधन को आंशिक रूप से बरकरार नहीं रखा जा सकता।
4. मौलिक ढांचा सिद्धांत (Basic Structure Doctrine)
अदालत ने माना कि यह संशोधन प्रक्रिया में कमी के कारण संविधान के संघीय ढांचे (Federal Structure) को प्रभावित करता है, जो इसका मौलिक हिस्सा (Basic Feature) है।
97वें संशोधन के प्रमुख प्रावधान (Key Provisions of the 97th Amendment)
अनुच्छेद 19(1)(c)
यह अनुच्छेद नागरिकों को सहकारी समितियां बनाने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता देता है, जो उनके सामाजिक और आर्थिक विकास में सहायक है।
अनुच्छेद 43B
यह राज्यों को सहकारी समितियों को स्वैच्छिक, स्वायत्त और लोकतांत्रिक बनाने का निर्देश देता है। इसके तहत समितियों के संचालन में पेशेवर दृष्टिकोण को भी बढ़ावा देने की बात कही गई है।
भाग IXB (Part IXB)
भाग IXB ने सहकारी समितियों के संचालन के लिए विस्तृत नियम बनाए, जिनमें शामिल हैं:
• लोकतांत्रिक चुनाव (Democratic Elections): समय पर चुनाव सुनिश्चित करना।
• प्रबंधन में पारदर्शिता (Transparency in Management): ऑडिट और रिकॉर्ड्स तक सार्वजनिक पहुंच।
• स्वायत्तता (Autonomy): समितियों में सरकारी हस्तक्षेप को सीमित करना।
महत्वपूर्ण न्यायिक संदर्भ (Judicial Precedents Referenced)
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (Keshavananda Bharati v. State of Kerala, 1973)
इस निर्णय ने यह स्थापित किया कि संसद संविधान के मौलिक ढांचे को नहीं बदल सकती।
संकरी प्रसाद बनाम भारत संघ (Sankari Prasad v. Union of India, 1951)
इस मामले ने अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन की प्रक्रिया को परिभाषित किया।
पश्चिम बंगाल राज्य बनाम भारत संघ (State of West Bengal v. Union of India, 1963)
यह निर्णय संघीय संतुलन और राज्यों की स्वायत्तता के महत्व पर प्रकाश डालता है।
निर्णय का प्रभाव (Impact of the Judgment)
सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने सहकारी समितियों के मामलों में राज्यों की विधायी शक्तियों को बरकरार रखा और संघीय ढांचे की रक्षा की। हालांकि, बहु-राज्य सहकारी समितियों से संबंधित प्रावधान प्रभावित नहीं हुए क्योंकि वे केंद्र की विधायी शक्ति के अंतर्गत आते हैं।
Union of India बनाम Rajendra N. Shah मामले में दिया गया निर्णय यह स्पष्ट करता है कि संविधान संशोधन प्रक्रिया का पालन करना अनिवार्य है। यह संघीय संरचना और राज्यों की विधायी स्वायत्तता की सुरक्षा करता है।
97वें संशोधन ने सहकारी समितियों को मजबूत करने का प्रयास किया, लेकिन प्रक्रियागत चूक के कारण यह आंशिक रूप से असंवैधानिक ठहरा। यह मामला भारत के संघीय तंत्र (Federal System) में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच संतुलन का एक प्रमुख उदाहरण है।