विधिक प्राधिकारी के समक्ष दायर शिकायत आत्महत्या के लिए उकसाने के बराबर नहीं हो सकती: केरल हाईकोर्ट

Amir Ahmad

27 Jun 2024 8:41 AM GMT

  • विधिक प्राधिकारी के समक्ष दायर शिकायत आत्महत्या के लिए उकसाने के बराबर नहीं हो सकती: केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट ने माना कि विधिक प्राधिकारी (lawful authority) के समक्ष दायर शिकायत भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 306 के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने या उकसाने के बराबर नहीं होगीस क्योंकि ऐसी शिकायत दर्ज करने का उद्देश्य मृतक को आत्महत्या के लिए उकसाना या उकसाना नहीं है।

    जस्टिस बेचू कुरियन थॉमस ने इस प्रकार कहा:

    “किसी व्यक्ति के विरुद्ध विधिक प्राधिकारी के समक्ष मात्र शिकायत को धारा 107 आईपीसी के तहत उकसाने के रूप में नहीं माना जा सकता। व्यक्ति कानून के अनुसार किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध विधिक प्राधिकारी के समक्ष शिकायत करने का हकदार है। ऐसी शिकायत प्राप्त होने पर सक्षम प्राधिकारी को शिकायत की जांच या जांच करने का भी अधिकार है, जैसा भी मामला हो। यदि ऐसे कृत्यों को उकसाने के रूप में माना जाता है तो हर व्यक्ति किसी व्यक्ति के खिलाफ शिकायत दर्ज करने से पहले दो बार सोचेगा, जो कल्याणकारी राज्य के हित में अच्छा नहीं होगा।"

    कोर्ट ने आगे कहा,

    "किसी वैध प्राधिकारी के समक्ष शिकायत दर्ज करना आत्महत्या के लिए उकसाने या उकसाने के बराबर नहीं हो सकता, क्योंकि शिकायत दर्ज करने का उद्देश्य मृतक को आत्महत्या करने के लिए उकसाना या उकसाना नहीं है।"

    याचिकाकर्ताओं पर आईपीसी की धारा 306 के साथ धारा 34 के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप लगाया गया। उन्होंने अपने खिलाफ दायर अंतिम रिपोर्ट रद्द करने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया। अभियोजन पक्ष का मामला यह uw कि मृतक ने वर्ष 2016 में याचिकाकर्ताओं को अपनी मौत के लिए जिम्मेदार बताते हुए दो सुसाइड नोट लिखने के बाद खुद को फांसी लगा ली थी।

    याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि मृतक के शरीर के पास मिले दो पत्र उन्हें उसकी आत्महत्या से नहीं जोड़ते हैं। यह कहा गया कि सुसाइड नोट में याचिकाकर्ताओं के खिलाफ एकमात्र आरोप यह है कि उन्होंने मृतक के खिलाफ पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराई। यह कहा गया कि मृतक ने तब आत्महत्या की जब उसे शिकायत के आधार पर जांच के लिए पुलिस स्टेशन बुलाया गया था। इस प्रकार यह प्रस्तुत किया गया कि किसी वैध प्राधिकारी को प्रस्तुत की गई शिकायत आत्महत्या के लिए उकसाने के बराबर नहीं हो सकती।

    न्यायालय ने कहा कि उकसाने का अपराध तभी बनता है, जब आत्महत्या करने के लिए उकसाया या उकसाया जाता है। इसने कहा कि वैध प्राधिकारी को शिकायत दर्ज कराने का अर्थ आईपीसी की धारा 107 के तहत परिभाषित उकसाने से नहीं होगा।

    न्यायालय ने कहा,

    “महेंद्र सिंह और अन्य गायत्रीबाई बनाम मध्य प्रदेश राज्य [1995 अनुपूरक (3) एससीसी 731] के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 107 आईपीसी के तहत उकसाने शब्द की परिभाषा पर विचार किया और माना कि मृतक को परेशान करने का मात्र आरोप आत्महत्या के लिए उकसाने के अपराध को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा।”

    न्यायालय ने आगे कहा कि यदि पुलिस के समक्ष शिकायत दर्ज करना उकसावे के रूप में माना जाता है तो लोग अपनी शिकायतों के साथ किसी भी वैध प्राधिकारी के पास जाने में संकोच करेंगे।

    इसमें आगे कहा गया कि किसी भी तरह से याचिकाकर्ताओं का इरादा यह नहीं था कि मृतक किसी वैध प्राधिकारी के समक्ष शिकायत दर्ज कराने के लिए आत्महत्या कर लेगा।

    इस प्रकार न्यायालय ने कहा कि ऐसा कोई ठोस सबूत नहीं है, जो यह सुझाव दे कि याचिकाकर्ताओं का मृतक को आत्महत्या के लिए उकसाने का इरादा था।

    तदनुसार, न्यायालय ने याचिका स्वीकार कर ली और याचिकाकर्ताओं के खिलाफ अंतिम रिपोर्ट रद्द कर दी।

    केस टाइटल- मुरली@मुरलीधरन बनाम केरल राज्य

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