IPC की धारा 498A के मामलों में आज़ाद गवाहों की कमी से क्रूरता के आरोप कमज़ोर नहीं होते: केरल हाईकोर्ट

Amir Ahmad

4 Dec 2025 1:23 PM IST

  • IPC की धारा 498A के मामलों में आज़ाद गवाहों की कमी से क्रूरता के आरोप कमज़ोर नहीं होते: केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट ने कहा कि इंडियन पैनल कोड (IPC) की धारा 498A के तहत आने वाले मामलों में आज़ाद गवाहों की गैरमौजूदगी अपने आप में अभियोजन पक्ष केस को कमज़ोर नहीं कर सकता।

    कोर्ट ने ज़ोर दिया कि करीबी रिश्तेदारों की गवाही को सिर्फ़ इसलिए खारिज नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि उनका पीड़ित से रिश्ता है।

    बता दें, IPC की धारा 498A पति या पति के रिश्तेदार द्वारा पत्नी के साथ की गई क्रूरता से संबंधित है।

    जस्टिस एम बी स्नेहलथा पति द्वारा दायर क्रिमिनल रिवीजन याचिका पर फ़ैसला सुना रही थीं, जिसमें उसने IPC की धारा 498A के तहत सज़ा और कनविक्शन को चुनौती दी थी।

    आरोपी पति को शुरू में एक साल की साधारण कैद की सज़ा सुनाई गई, जिसे बाद में अपील पर घटाकर 6 महीने कर दिया गया।

    आरोपी ने हाईकोर्ट में यह कहते हुए अपील की कि प्रॉसिक्यूशन IPC की धारा 498A के तहत सज़ा वाले अपराध के तत्वों को साबित करने में नाकाम रहा और अपीलीय अदालत प्रॉसिक्यूशन के गवाहों के बयानों में विसंगतियों पर ध्यान देने में नाकाम रही और इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया कि हालांकि शिकायतकर्ता का कहना था कि उसे 2003 से क्रूरता का शिकार होना पड़ रहा था लेकिन उसने 2009 तक कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई।

    प्रॉसिक्यूशन ने सबूत और गवाहों के बयान पेश किए, जिसमें शिकायतकर्ता पत्नी के रिश्तेदारों के बयान भी शामिल थे, जिससे यह साबित हुआ कि दहेज की मांग को लेकर लगातार उत्पीड़न हो रहा था।

    कोर्ट ने कहा कि यह तर्क कि कथित क्रूरता के काम के बारे में कोई आज़ाद सबूत नहीं है और मौखिक गवाहियां भरोसेमंद नहीं हैं, क्योंकि वे करीबी रिश्तेदारों द्वारा दी गई, यह तर्क सही नहीं पाया गया।

    कोर्ट ने कहा,

    "क्रूरता के जो काम IPC की धारा 498A के तहत अपराध की श्रेणी में आते हैं, वे शादीशुदा घर की चारदीवारी के अंदर किए जाते हैं। अपने स्वभाव से ही यह अपराध बंद दरवाजों के पीछे लोगों की नज़र से दूर और आम तौर पर आज़ाद गवाहों की गैरमौजूदगी में होता है।"

    कोर्ट ने राय दी कि आज़ाद सबूत की उम्मीद घरेलू हिंसा की सामाजिक सच्चाइयों को नज़रअंदाज़ करती है, इसलिए शारीरिक हमले के बारे में एक शादीशुदा महिला की गवाही का महत्वपूर्ण सबूत के तौर पर महत्व है।

    कोर्ट ने कहा,

    "दहेज की मांग के कारण जिस शारीरिक हमले का शिकार एक शादीशुदा महिला हुई, उसके बारे में उसकी गवाही का महत्वपूर्ण सबूत के तौर पर महत्व है, अगर उसका बयान ठोस, विश्वसनीय और भरोसेमंद पाया जाता है।"

    कोर्ट ने आगे कहा कि यह तर्क कि अगर लगातार दहेज की मांग को लेकर उत्पीड़न और बुरा बर्ताव होता तो शिकायत करने वाली महिला पुलिस या किसी और प्रशासन के पास जाती और ऐसी कोई शिकायत न होने का मतलब है कि कोई क्रूरता नहीं हुई, यह बात मानने लायक नहीं है।

    कोर्ट ने कहा,

    “कोई यह स्टैंड नहीं ले सकता कि जब भी पति क्रूरता करे तो पीड़ित पत्नी को तुरंत पुलिस स्टेशन या किसी और अथॉरिटी के पास शिकायत दर्ज कराने के लिए जाना चाहिए। पीड़ित पत्नी इस उम्मीद में इंतज़ार कर सकती है कि शायद हालात बदल जाएं खासकर उस शादी से पैदा हुए अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए। इसलिए आरोपी का यह तर्क कि 2003 से कथित तौर पर क्रूरता झेलने के बावजूद उसने 2009 में ही शिकायत दर्ज कराई और शिकायत दर्ज कराने में देरी उसके केस की सच्चाई पर सवाल उठाती है यह बात गलत है।”

    कोर्ट ने इस बात पर ज़ोर देते हुए अपनी बात खत्म की कि दहेज की प्रथा लैंगिक असमानता वित्तीय शोषण और घरेलू हिंसा को बढ़ावा देती है।

    कोर्ट ने आगे कहा,

    “दहेज की मांग के सिलसिले में पत्नी पर हमला करना सिर्फ़ एक घरेलू झगड़ा नहीं है, बल्कि लालच, ज़बरदस्ती और जेंडर आधारित हिंसा पर आधारित एक गंभीर अपराध है। जब किसी महिला को इसलिए शारीरिक नुकसान पहुंचाया जाता है, क्योंकि वह या उसका परिवार गैर-कानूनी दहेज की मांग पूरी नहीं कर पाता तो यह शादीशुदा घर में ताकत के जानबूझकर और ज़बरदस्ती किए गए गलत इस्तेमाल को दिखाता है।”

    इस तरह कोर्ट ने रिवीजन पिटीशन खारिज कर दी यह देखते हुए कि सज़ा के मामले में किसी दखल की ज़रूरत नहीं है।

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