न्यायालयों को न्याय और समानता के आधार पर परिसीमा अवधि बढ़ाने का अधिकार नहीं: कर्नाटक हाईकोर्ट
Amir Ahmad
25 Feb 2025 12:27 PM IST

कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा कि परिसीमा अवधि किसी विशेष पक्ष को बुरी तरह प्रभावित कर सकती है लेकिन जब कानून ऐसा निर्धारित करता है तो इसे पूरी कठोरता के साथ लागू किया जाना चाहिए। न्यायालयों को न्याय और समानता के आधार पर परिसीमा अवधि बढ़ाने का अधिकार नहीं है।
जस्टिस कृष्ण एस दीक्षित और जस्टिस जी बसवराज की खंडपीठ ने कैलासम पी नामक व्यक्ति द्वारा ऋण वसूली अपीलीय न्यायाधिकरण के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका खारिज करते हुए यह टिप्पणी की। न्यायाधिकरण ने अपीलकर्ता द्वारा दायर आवेदन इस आधार पर खारिज किया कि उसके पास देरी को माफ करने का अधिकार नहीं है। इसके बाद याचिकाकर्ता ने इसे चुनौती देने वाला आवेदन दायर किया, जिसका निपटारा कर दिया गया और याचिकाकर्ता को डीआरएटी में जाने की स्वतंत्रता दी गई।
इसके बाद याचिकाकर्ता ने 24.05.2023 को अपील दायर की, देरी के लिए माफ़ी मांगने के लिए आवेदन भी पेश किया गया। हालांकि DRAT ने दिनांक 01.04.2024 के आदेश के ज़रिए देरी का आवेदन खारिज कर दिया। परिणामस्वरूप अपील भी नकारात्मक हो गई।
अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि SARFAESI 2002 की धारा 17(1) के तहत निर्धारित 45 दिनों की सीमा अवधि केवल निर्देशिका प्रकृति की है। इसलिए DRT 45 दिनों से अधिक की देरी के लिए माफ़ी मांगने वाले आवेदन को खारिज नहीं कर सकता था।
बैंकों ने दलील का विरोध करते हुए कहा कि अधिनियम की धारा 17 के तहत निर्धारित परिसीमा अवधि 45 दिन है जो अनिवार्य है, DRT एक पारंपरिक न्यायालय नहीं है, उसके पास किसी भी देरी को माफ़ करने का कोई अंतर्निहित अधिकार नहीं है, खासकर जब सीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5 लागू नहीं होती है।
निष्कर्ष
अधिनियम की धारा 17 (1) का हवाला देते हुए पीठ ने कहा,
“इस तरह के आदेशों के खिलाफ DRT से संपर्क करने में देरी को माफ करने के लिए संसद द्वारा कोई प्रावधान नहीं किया गया, चाहे इसका कारण कुछ भी हो और यह कितना भी न्यायोचित क्यों न लगे। जब तक देरी को माफ करने की शक्ति विधायी रूप से स्पष्ट रूप से या अनुमान द्वारा प्रदान नहीं की जाती है, तब तक इस तरह का न्यायाधिकरण देरी को माफ नहीं कर सकता है।”
न्यायालय ने कहा,
“पारंपरिक न्यायालयों के विपरीत न्यायाधिकरणों के पास अंतर्निहित शक्ति नहीं होती। साथ ही न्यायाधिकरण न्यायालय नहीं है। इसलिए 1963 (सीमा) अधिनियम सभी उचित अपवादों के अधीन लागू नहीं होता है। संसद की नीति है कि जो व्यक्ति निवारण चाहता है, उसे 45 दिनों के भीतर डीआरटी के दरवाजे खटखटाने होंगे। उसके बाद वे दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो जाने चाहिए।”
खंडपीठ ने कहा कि कानून उन लोगों की मदद नहीं करता है, जो नींद में और सुस्त हैं।
इसके अलावा उन्होंने कहा,
“यदि संसद का इरादा यह था कि DRT को देरी को माफ करने का अधिकार होना चाहिए तो उसने 2002 के अधिनियम की धारा 17 में 1963 के अधिनियम की धारा 5 जैसा प्रावधान लागू किया होता। हालांकि, जानबूझकर उसने ऐसा नहीं करने का फैसला किया। कम से कम यह तो कहना ही होगा कि यह अनजाने में की गई चूक नहीं है। यह संचित अनुभव और उससे प्राप्त सबक के आधार पर लिया गया नीतिगत निर्णय है।”
याचिका खारिज करते हुए इसने निष्कर्ष निकाला,
“यह सच है कि हमारे जैसे किसी भी कल्याणकारी राज्य का अपने नागरिकों को सभी आवश्यक कानूनी उपाय प्रदान करने के लिए सद्भावनापूर्वक दायित्व है। हालांकि यह अपने न्यायालयों और न्यायाधिकरणों को अनंत काल तक खुला रखने के लिए बाध्य नहीं है। यदि कोई पीड़ित व्यक्ति निर्धारित समय सीमा के भीतर निवारण के लिए आवेदन करने में लापरवाही करता है या इनकार करता है, तो समय बीतने के साथ उसका दावा खो जाता है।”