झारखंड हाईकोर्ट का बड़ा फैसला: मामूली चूकों के लिए सेवा से बर्खास्तगी की सजा असंगत

Amir Ahmad

24 Oct 2025 1:17 PM IST

  • झारखंड हाईकोर्ट का बड़ा फैसला: मामूली चूकों के लिए सेवा से बर्खास्तगी की सजा असंगत

    झारखंड हाईकोर्ट की जस्टिस सुजीत नारायण प्रसाद और जस्टिस अरुण कुमार राय की खंडपीठ ने महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा कि प्रक्रियात्मक चूकों काम में लापरवाही अरुचि और अधीनस्थों के उत्पीड़न से संबंधित आरोपों के लिए 'सेवा से हटाने की कठोरतम सजा देना अपराध के अनुपात में असंगत है। कोर्ट ने इस सजा को "सेवा की पूंजीगत सज़ा" बताते हुए सिंगल जज फैसला बरकरार रखा और राज्य सरकार की अपील खारिज की।

    यह मामला मीना कुमारी राय से संबंधित है, जो 1988 से बिहार शिक्षा सेवा में थीं और राज्य पुनर्गठन के बाद झारखंड कैडर में आईं। पलामू में जिला शिक्षा अधिकारी (DEO) के पद पर कार्यरत रहते हुए उनके खिलाफ विभागीय कार्यवाही शुरू की गई। उन पर प्रक्रियाओं का लगातार उल्लंघन, वित्तीय अनियमितताओं को बढ़ावा देने, अधीनस्थों का वेतन रोकने, बिलों के प्रसंस्करण में देरी और सरकारी आदेशों की अवज्ञा करने जैसे कई कदाचार के आरोप लगाए गए।

    जांच में ये आरोप सही पाए गए, जिसके बाद अनुशासनात्मक प्राधिकरण ने उन्हें सेवा से हटाने का आदेश पारित कर दिया।

    इस सज़ा से व्यथित होकर मीना कुमारी राय ने एक रिट याचिका दायर की। सिंगल जज ने अपने फैसले में सज़ा को आरोपों की गंभीरता के अनुपात में असंगत मानते हुए बर्खास्तगी के आदेश को रद्द कर दिया। कोर्ट ने अनुशासनात्मक प्राधिकरण को सजा की मात्रा पर पुनर्विचार करने के बाद नया आदेश पारित करने का निर्देश दिया।

    राज्य सरकार ने इस फैसले को चुनौती देते हुए अपील दायर की। राज्य का तर्क था कि DEO जैसे महत्वपूर्ण पद पर रहते हुए राय अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में विफल रहीं, जो विश्वास का गंभीर उल्लंघन था। इसलिए बर्खास्तगी की सज़ा कदाचार के अनुरूप थी।

    खंडपीठ ने न्यायिक समीक्षा की शक्ति का प्रयोग करते हुए पाया कि हाईकोर्ट सजा के आदेश में तभी हस्तक्षेप कर सकता है, जब सजा कदाचार के अनुपात में इतनी अधिक हो कि वह न्यायालय के विवेक को झकझोर दे।

    कोर्ट ने आरोपों की प्रकृति पर ध्यान केंद्रित किया और पाया कि प्रक्रियात्मक चूकों, आधिकारिक कर्तव्यों में लापरवाही और काम में अरुचि से संबंधित आरोप गंभीर कदाचार की श्रेणी में नहीं आते हैं जिसके लिए सेवा से हटाने की कठोरतम सजा दी जाए।

    न्यायालय ने राय की 31 वर्षों की बेदाग़ सेवा पर विशेष जोर दिया। कोर्ट ने टिप्पणी की कि सेवा से हटाए जाने पर राय को कोई वित्तीय लाभ नहीं मिलेगा और उनकी पूरी 31 वर्ष की सेवा अवधि को पेंशन या सेवानिवृत्ति के बाद के लाभों के लिए भी नहीं गिना जाएगा जो अत्यधिक कठोर है।

    हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के यूनियन ऑफ इंडिया बनाम पी. गुनसेकरन मामले के निर्णय पर भरोसा किया, जिसमें कहा गया कि हाईकोर्ट की शक्ति सीमित है और सज़ा में तभी हस्तक्षेप किया जा सकता है, जब वह चौंकाने वाली हद तक असंगत हो।

    इन टिप्पणियों के साथ कोर्ट ने यह निष्कर्ष निकाला कि सिंगल जज ने सेवा से हटाने का आदेश रद्द करने और सज़ा को असंगत मानने में कोई त्रुटि नहीं की। इसके परिणामस्वरूप खंडपीठ ने राज्य द्वारा दायर अपील खारिज की।

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