[UAPA Act] केवल आरोप तय करना जमानत से इनकार करने के लिए पर्याप्त नहीं: जम्मू-कश्मीर हाइकोर्ट ने आतंकवादी को शरण देने की आरोपी महिला को जमानत दी

Amir Ahmad

26 March 2024 7:40 AM GMT

  • [UAPA Act] केवल आरोप तय करना जमानत से इनकार करने के लिए पर्याप्त नहीं: जम्मू-कश्मीर हाइकोर्ट ने आतंकवादी को शरण देने की आरोपी महिला को जमानत दी

    आतंकवादी को शरण देने की आरोपी महिला को जमानत देते हुए जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाइकोर्ट ने कहा कि यदि आरोपी रिहाई के लिए मामला प्रस्तुत करता है तो कड़े आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत आरोप तय करना जमानत से इनकार करने के लिए पर्याप्त नहीं है।

    जमानत के लिए उसकी याचिका स्वीकार करते हुए जस्टिस ताशी राबस्तान और पुनीत गुप्ता की खंडपीठ ने कहा,

    "अधिनियम की धारा 18 और 19 के तहत आरोपी के खिलाफ आरोप तय करना ही अपीलकर्ता की जमानत खारिज करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा, अगर प्रथम दृष्टया अदालत का मानना ​​है कि आरोपी ने जमानत देने के लिए कोई और मामला बनाया है।"

    मामले की पृष्ठभूमि

    बसीरत-उल-ऐन को राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) ने आतंकी मामले के सिलसिले में गिरफ्तार किया था। NIA ने आरोप लगाया कि वह आतंकी संगठन लश्कर-ए-मुस्तफा के सदस्य हिदायत उल्लाह मलिक की पत्नी है और उसने गिरफ्तारी से बचने के लिए विभिन्न स्थानों पर उसके साथ रहकर उसकी मदद की।

    निचली अदालत ने शुरू में बसीरत-उल-ऐन को जमानत दे दी, लेकिन बाद में उसके खिलाफ गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (UAPA Act) की धारा 18 और 19 के तहत आरोप तय होने के बाद इसे रद्द कर दिया।

    बसीरत-उल-ऐन ने अपने वकील के माध्यम से तर्क दिया कि अपने पति के साथ उसकी उपस्थिति (यदि सच है) स्वाभाविक है और यह कोई अपराध नहीं है। उसने इस बात पर जोर दिया कि अभियोजन पक्ष का मामला पूरी तरह से आरोपी के साथ उसके सह-निवास पर निर्भर करता है और आतंकवादी गतिविधियों में उसकी कोई सक्रिय भागीदारी स्थापित नहीं करता है।

    दूसरी ओर NIA ने जमानत का विरोध करते हुए कहा कि उसके खिलाफ लगाए गए आरोपों से साजिश और आतंकवादी को शरण देने का प्रथम दृष्टया मामला स्थापित होता है।

    न्यायालय की टिप्पणियां

    राष्ट्रीय सुरक्षा की रक्षा के लिए अधिनियमित अधिनियम की कठोर प्रकृति को स्वीकार करते हुए पीठ ने इस बात पर जोर दिया कि कथित अपराध की गंभीरता के आधार पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सीमित नहीं किया जा सकता।

    भारत संघ बनाम के.ए.नजीब, सुदेश केडिया बनाम भारत संघ और वर्नोन बनाम महाराष्ट्र राज्य सहित कानूनी मिसालों से आकर्षित होकर न्यायालय ने दोहराया कि आरोपों की गंभीरता अकेले जमानत से इनकार करने का एकमात्र मानदंड नहीं हो सकती। इसने बताया कि जमानत नियम है और जेल अपवाद, जो न्याय के हितों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ संतुलित करने के महत्व पर जोर देता है।

    मामले की बारीकियों में जाने पर जहां कथित तौर पर सह-आरोपी की पत्नी बसीरत-उल-ऐन पर आरोप लगाया गया कि उसने आरोपी को शरण दी और उसके साथ साजिश रची अदालत ने पाया कि अभियोजन पक्ष के तर्क मुख्य रूप से विभिन्न स्थानों पर आरोपी के साथ उसकी उपस्थिति के इर्द-गिर्द केंद्रित थे बिना उसकी ओर से कोई प्रत्यक्ष आपराधिक कृत्य स्थापित किए।

    पीठ ने दर्ज किया,

    "अदालत का मानना ​​है कि प्रतिवादियों द्वारा यह तर्क कि अपीलकर्ता के कृत्य स्पष्ट रूप से अपीलकर्ता द्वारा हिदायत उल्लाह मलिक को उसके अपवित्र कृत्यों में मदद करने और उसे शरण देने के षड्यंत्र के पहलू को दर्शाते हैं, जो आतंकवादी है। इसलिए, जमानत की रियायत नहीं दी जा सकती। इस मामले में अपीलकर्ता को जमानत न देने का कारण नहीं हो सकता।”

    न्यायालय ने पाया कि इन पहलुओं से साजिश या आतंकवादी को शरण देने का कोई मजबूत मामला स्थापित नहीं होता और ये मामले मुकदमे के निर्णय के लिए बिंदु हो सकते हैं।

    जेल में बिताए गए समय और सक्रिय भागीदारी के लिए उसके खिलाफ मजबूत मामले की कमी को देखते हुए न्यायालय ने अपील स्वीकार की और उसे जमानत दे दी।

    उसे व्यक्तिगत और जमानती बांड प्रस्तुत करने, साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ करने या गवाहों से संपर्क करने से बचने और मुकदमे की कार्यवाही में नियमित रूप से उपस्थित रहने का निर्देश दिया गया।

    केस टाइटल- बसीरत-उल-ऐन बनाम एनआईए

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