नाबालिग अवस्था में किए गए कृत्य आधार बनकर नहीं ठहर सकते: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने पीएसए के तहत हिरासत आदेश रद्द किया

Amir Ahmad

26 Nov 2025 1:16 PM IST

  • नाबालिग अवस्था में किए गए कृत्य आधार बनकर नहीं ठहर सकते: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने पीएसए के तहत हिरासत आदेश रद्द किया

    जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा कि किसी व्यक्ति द्वारा नाबालिग रहते हुए किए गए अवैध कृत्य उसके विरुद्ध बाद में लगाई गई जन-रक्षा अधिनियम (Public Safety Act - PSA) की निरोधात्मक कार्रवाई का आधार नहीं बन सकते। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि किशोरावस्था में दर्ज किसी भी आपराधिक गतिविधि से उसके भविष्य को कलंकित नहीं किया जा सकता और इसे किसी भी प्रकार के निरोधात्मक आदेश का औचित्य नहीं बनाया जा सकता।

    यह निर्णय एक 20 वर्षीय युवक की पीएसए के तहत गिरफ्तारी के विरुद्ध दायर हैबियस कॉर्पस याचिका खारिज करने के खिलाफ दायर इंट्रा-कोर्ट अपील पर आया। युवक को जिला मजिस्ट्रेट पुलवामा द्वारा जारी आदेश के तहत हिरासत में लिया गया था।

    कोर्ट का अवलोकन नाबालिग के कृत्य किसी निरोधात्मक आदेश का आधार नहीं

    चीफ जस्टिस अरुण पाली और जस्टिस रजनेश ओस्वाल की खंडपीठ ने कहा कि रिकॉर्ड से यह स्पष्ट है कि जिला मजिस्ट्रेट ने निरोधात्मक आदेश जारी करते समय जिस FIR और चार्जशीट का सहारा लिया था वह पूरी तरह उस अवधि से संबंधित थी, जब आरोपी किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत एक नाबालिग था।

    खंडपीठ ने कहा कि पीएसए की धारा 8(3)(f) के अनुसार नाबालिग को इस अधिनियम के तहत हिरासत में नहीं लिया जा सकता। इसलिए अल्पायु में किए गए कृत्यों को आधार बनाकर बाद में निरोधात्मक कार्रवाई करना कानून के विपरीत है।

    कोर्ट ने इसके बाद अधिनियम की धारा 10-A के तहत यह जांचा कि क्या शेष आरोप स्वतंत्र रूप से हिरासत आदेश को टिकाए रख सकते हैं। हालांकि, पाया गया कि अन्य आरोप भी इतने अस्पष्ट और विवरणहीन थे कि उनमें न समय का उल्लेख था न स्थान का, न किसी विशिष्ट घटना या व्यक्ति का।

    कोर्ट ने कहा कि सामान्य आरोप जैसे युवाओं को उकसाना या आतंकियों को लॉजिस्टिक समर्थन देना बिना किसी ठोस विवरण के निरोधात्मक आदेश को वैधता प्रदान नहीं कर सकते। इससे न तो हिरासत के कारण स्पष्ट होते हैं, और न ही बंदी को अपनी ओर से प्रभावी प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिलता है।

    खंडपीठ ने अमीना बेगम बनाम तेलंगाना राज्य (2023) और फज़लखान पठान बनाम पुलिस आयुक्त (1989) में स्थापित सिद्धांतों का उल्लेख करते हुए कहा कि निरोधात्मक आदेश तभी वैध है, जब आरोप स्पष्ट, निकटवर्ती और प्रमाणित सामग्री पर आधारित हों। अस्पष्ट तथा विशिष्ट विवरणों से रहित आधारों पर ऐसी कार्रवाई टिक नहीं सकती।

    कोर्ट ने पाया कि आरोपों का बड़ा हिस्सा आरोपी के नाबालिग अवस्था से संबंधित था शेष आरोप अस्पष्ट, अप्रमाणित और अधूरे थे, इसलिए निरोधात्मक आदेश कानूनी रूप से अस्थिर है।

    फलस्वरूप, हाईकोर्ट ने एकल पीठ का आदेश रद्द करते हुए जिला मजिस्ट्रेट द्वारा जारी पीएसए के तहत निरोधात्मक आदेश को खारिज कर दिया और युवक को तत्काल रिहा करने का निर्देश दिया, बशर्ते वह किसी अन्य मामले में वांछित न हो।

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