याचिकाओं की कोई सीमा अवधि नहीं होती, फिर भी उन्हें उचित समय के भीतर दायर किया जाना चाहिए: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने 26 साल बाद दायर याचिका खारिज की

Amir Ahmad

3 Aug 2024 8:02 AM GMT

  • याचिकाओं की कोई सीमा अवधि नहीं होती, फिर भी उन्हें उचित समय के भीतर दायर किया जाना चाहिए: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने 26 साल बाद दायर याचिका खारिज की

    जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने शुक्रवार को फैसला सुनाया कि पुराने मामलों या सीमा अवधि द्वारा वर्जित मामलों पर अभ्यावेदन दायर करने से कार्रवाई का नया कारण नहीं बन सकता या मृत दावे को पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता, भले ही इन अभ्यावेदनों पर सक्षम प्राधिकारियों द्वारा विचार किया गया हो या न्यायालय उन पर विचार करने का निर्देश दे।

    पदोन्नति लाभ की मांग करने वाली याचिका खारिज करते हुए जस्टिस संजय धर ने कहा,

    “संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत रिट याचिका दायर करने के लिए भले ही कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई, फिर भी रिट याचिका सामान्यतः उचित समय के भीतर दायर की जानी चाहिए। वर्तमान मामले में रिट याचिका के खत्म होने के 26 साल बाद याचिकाकर्ता द्वारा प्रतिवादियों की उक्त कार्रवाई को चुनौती देने पर वर्तमान रिट याचिका के माध्यम से विचार नहीं किया जा सकता।”

    वर्तमान मामले में याचिकाकर्ता प्रतिवादी निगम का सेवानिवृत्त कर्मचारी अपनी पदोन्नति के संबंध में लंबे समय से शिकायत कर रहा था। शुरू में उसने 1995 में रिट याचिका दायर की, जिसका निपटारा प्रतिवादियों को उसकी शिकायत का समाधान करने के निर्देश के साथ किया गया।

    इसके बाद 2000 में उसका अभ्यावेदन खारिज कर दिया गया। फिर उसने इस कार्रवाई को चुनौती देते हुए एक और रिट याचिका दायर की, लेकिन बाद में 2007 में इसे वापस ले लिया। वर्षों से बार-बार अभ्यावेदन के बावजूद पदोन्नति और वरिष्ठता के लिए उसका दावा अनसुलझा रहा।

    याचिकाकर्ता ने सीनियर एडवोकेट जेड. ए शाह के माध्यम से दलील दी कि 1986 और 2010 के बीच उन्हें कई बार गलत तरीके से हटाया गया। उन्होंने तर्क दिया कि वे पदोन्नति और परिणामी मौद्रिक लाभों के हकदार थे, जिन्हें अनुचित तरीके से अस्वीकार कर दिया गया।

    उन्होंने दावा किया कि उनके अभ्यावेदन ने उनके दावे को जीवित रखा और प्रतिवादी द्वारा 2021 में आदेश जारी किया, जिसने उन्हें काल्पनिक पदोन्नति प्रदान की ने कार्रवाई का नया कारण प्रदान किया।

    सरकारी वकील रेखा वांगनू द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि याचिका में देरी और लापरवाही बरती गई। उन्होंने दावा किया कि मांगी गई राहत याचिकाकर्ता की सेवा अवधि के दौरान उपलब्ध थी। इस देर के चरण में इसे बनाए नहीं रखा जा सकता है।

    उन्होंने यह भी उजागर किया कि केवल अभ्यावेदन दाखिल करने से दावा जीवित नहीं रहता है। याचिकाकर्ता ने पहले ही रिट याचिका को त्याग कर कार्रवाई को चुनौती देने के अपने अधिकार को छोड़ दिया।

    मामले पर निर्णय देते हुए जस्टिस धर ने कहा कि पुराने मामलों या समय-सीमा के कारण प्रतिबंधित मामलों पर मात्र अभ्यावेदन दाखिल करने से ऐसे दावों को पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता। भले ही इन अभ्यावेदनों का प्राधिकारियों द्वारा जवाब दिया गया हो या न्यायालय ऐसे अभ्यावेदनों पर विचार करने का निर्देश दे।

    सी. जैकब बनाम भूविज्ञान एवं खनन निदेशक के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देकर इस सिद्धांत को पुष्ट किया गया। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि सीनियरिटी और पदोन्नति के लिए दावे उचित समय के भीतर किए जाने चाहिए।

    वर्तमान मामले में याचिकाकर्ता द्वारा अपने अधिक्रमण को चुनौती देने के लिए, जो 26 वर्ष पहले हुआ था, बहुत विलंबित माना गया। न्यायालय ने इस बात की ओर इशारा करते हुए कि याचिकाकर्ता ने अपने अधिक्रमण और पदोन्नति के निर्णयों को समय पर चुनौती न देकर प्रतिवादियों की कार्रवाइयों में सहमति जताई, कहा कि यह आचरण बाद में इन कार्रवाइयों को चुनौती देने के उसके अधिकार का परित्याग करने के समान है।

    अदालत ने टिप्पणी की,

    “याचिकाकर्ता ने दावा किया है कि उसने प्रतिवादियों के इस आश्वासन पर रिट याचिका वापस ले ली कि उसकी शिकायत का निपटारा कर दिया जाएगा, लेकिन प्रतिवादियों ने जोरदार तरीके से इनकार किया। इन परिस्थितियों में यह माना जाना चाहिए कि याचिकाकर्ता ने बिना किसी शर्त के प्रतिवादियों की कार्रवाई को चुनौती देना छोड़ दिया है। इस प्रकार, उसने प्रतिवादियों की कार्रवाई स्वीकार की और अपने अधिक्रमण को स्वीकार किया।”

    अदालत ने स्वीकार किया कि प्रतिवादियों ने 2021 में आदेश के माध्यम से याचिकाकर्ता को काल्पनिक पदोन्नति प्रदान की थी, इसने माना कि इससे उसके पुराने दावों को पुनर्जीवित करने के लिए कार्रवाई का नया कारण नहीं मिलता।

    अदालत ने राय दी,

    “याचिकाकर्ता के प्रति दयालु दृष्टिकोण उसे इस विलंबित चरण में उच्च रैंक और परिणामी लाभों का दावा करने का लाइसेंस नहीं दे सकता। खासकर जब उसने अपने सेवा करियर के दौरान और उसके बाद इन सभी वर्षों के लिए प्रतिवादियों की कार्रवाई को स्वीकार किया।”

    इन विचारों के आधार पर अदालत ने याचिका किसी भी योग्यता से रहित पाई और इसे खारिज कर दिया।

    केस टाइटल- मोहम्मद अब्दुल्ला चौधरी बनाम जम्मू-कश्मीर लघु उद्योग विकास निगम और अन्य

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